“एक दिन पिता के नाम ” —-वो २२ दिन ( संस्मरण -वंदना गुप्ता )

                                         











“एक  दिन  पिता के नाम  “


आपकी ज़िन्दगी 

आपकी साँसें 
जब तक रहेंगी 
तब तक 
हर दिन पिता को समर्पित होगा 
वो हैं तो तुम हो 
उनके होने से ही 
तुम अस्तित्व में आये 
फिर कैसे संभव है 
एक दिन पिता के नाम करना ?
मेरे लिए तो 
हर दिन , हर घडी , हर पल 
है पिता के नाम 
इसलिए 
नहीं समेट सकती 
अपने जज़्बात 
अपनी संवेदनाएं 
अपने भाव 
किसी एक दिन में ……..
Displaying बाऊजी.jpg

वो २२ दिन 
मेरे पिता संघर्ष की एक मिसाल रहे । जाने कितने जीवन में उन्होने उतार
चढाव देखे मगर हमेशा हँसते रहे , मुस्कुरा कर झेलते रहे , कभी कोई शिकवा नहीं किया
किसी से कोई शिकायत नहीं की ।
 मेरे पिता ने हमेशा अपने आदर्शों
पर जीवन जीया , सत्य , दया , अनुशासन , ईमानदारी कूट कूट कर भरी हुई थी जिसके लिए
वो कुछ भी कर सकते थे । उनकी ईमानदारी पर तो एक दूधवाले , किराने वाले तक को इतना
विश्वास था कि कहते थे बाऊजी हम गलत हो सकते हैं लेकिन आपका हिसाब नहीं क्योंकि
यदि उनके पैसे निकलते थे तो खुद जाकर दे कर आते थे । इसी तरह काम के प्रति अनुशासन
बद्ध रहे कि जब ऑफ़िस के लिए साइकिल पर निकलते तो गली वाले घडी मिलाते कि इस वक्त
ठीक साढे नौ बजे होंगे क्योंकि बाऊजी को देर नहीं हो सकती और वो ही सारे गुण हम
बच्चों में आये । बेटियाँ में उनकी जान बसती थी्। यदि क्रोध था तो वो भी प्यार का
ही प्रतिरूप था , यदि अनुशासन था तो उसमें भी उनकी चिन्ता झलकती थी । आज यूँ लगता
है जैसे अपने पिता का ही प्रतिरूप बन गयी हूँ मैं क्योंकि उन्ही सारे गुणों से
लबरेज खुद को पाती हूँ शायद ये बात उस समय नहीं समझ सकती थी मगर आज मेरे हर
क्रियाकलाप में उन्ही को खुद में से गुजरते देखती हूँ और नतमस्तक हूँ कि मैं ऐसे
पिता की बेटी हूँ जिन्होने इतने उत्तम संस्कार मुझमें डाले कि आज उन्ही के बूते एक
सफ़ल ज़िन्दगी जी रही हूँ और उसी की चमक से जीवन प्रकाशित हो रहा है । लेकिन ज़िन्दगी
भर नहीं भूल सकती अपने पिता के जीवन की अन्तिम यात्रा तक के वो क्षण जिनकी साक्षी
मैं बनी और वो मेरे दिल पर अदालती मोहर से जज़्ब हो गए और एक ऐसा अनुभव मिला जो हर
किसी को जल्दी नसीब नहीं होता कुछ इस तरह :
किसे ज्यादा प्यार करती है मम्मी
को या बाऊजी को
?

मम्मी को

एक अबोध बालक का वार्तालाप जिसे
प्यार के वास्तविक अर्थ ही नहीं मालूम । जो सिर्फ़ माँ के साथ सोने उठने बैठने रहने
को प्यार समझती है । उसे नहीं पता पिता के प्यार की गहराई
, वो नहीं जानती कि ऊपर से जो इतने सख्त हैं अन्दर से कितने नर्म हैं , उसे दिखाई देता है पिता द्वारा किया गया रोष और माँ
द्वारा किया गया लाड और जीने लगती हैं बेटियाँ इसी को सत्य समझ बिना जाने तस्वीर
का कोई दूसरा भी रुख होता है । उन्हें दिखायी देता है तो सिर्फ़ पिता का अनुशासन
बद्ध रखना और रहना
, अकेले आने जाने पर प्रतिबंध मगर नहीं जान पातीं उनका लाड से खिलाये गये
निवाले में उनका निश्छल प्रेम
, उनकी बीमारी में , तकलीफ़ में खुद के अस्तित्व तक को मिटा देने का प्रण
। उम्र ही ऐसी होती है वो जो सिर्फ़ उडान भरना चाहती है वो भी बिना किसी बेडी के तो
कैसे जान सकती हैं प्रतिब
ंधों
के पीछे छुपी ममता के सागर को । और ऐसा ही मैं सोचा करती थी और किसी के भी पूछने
पर कह उठती थी
,
मम्मी से प्यार ज्यादा करती हूँ

प्यार के वास्तविक अर्थों तक
पहुँचने के लिए गुजरना पडा अतीत की संकरी गलियों से तब जाना क्या होता है पिता का
प्रेम जो कभी व्यक्त नहीं करते मगर वो अवगुंठित हो जाता है हमारी शिराओं में इस
तरह कि अहसास होने तक बहुत देर हो चुकी होती है या फिर जब अहसास होता है तब उसकी
कद्र होती है । नेह के नीडों की पहचान के लिए गुजरना जरूरी है उन अह्सासों से
:

खुली स्थिर आँखें , एक एक साँस इस तरह खिंचती मानो कोई कुयें से बहुत जोर देकर बडी
मुश्किल से पानी की भरी बाल्टी खींच रहा हो और चेतना ने संसार का मोह छोड दिया हो
और गायब हो गयी हो किसी विलुप्त पक्षी की तरह। वो
22 दिन मानो वक्त के सफ़हों से कभी मिटे ही नहीं , ठहर गये ज्यों के त्यों । कितनी ही आँख पर पट्टी बाँध लूँ मगर स्मृति की आँख पर नहीं पडा कभी पर्दा । हाँ , स्मृति वो तहखाना है जिसके भीतर
यदि सीलन है तो रेंगते कीडे भी जो कुरेदते रहते हैं दिल की जमीन को क्योंकि आदत से
मजबूर हैं तो कैसे संभव है आँखों के माध्यम से दिल के नक्शे पर लिखी इबारतों
  का मिटना ? एक अलिखित खत की तरह पैगाम मिलते रहते हैं और सिलसिला
चलता रहता है जो एक दिन मजबूर कर देता है कहने को
, बोलने को उस यथार्थ को जिसे
तुमने अपने अन्तस की कोठरियों में बंद कर रखा होता है और सदियों को भी हवा नहीं
लगने देना चाहते मगर तुम्हारे चाहे कब कुछ
हुआ है । सब प्रकृति का चक्र
है तो चलना जरूरी है तो कैसे मैं उससे खुद को दूर रख सकती हूँ
, स्मृतियों ने अपने पट खोल दिए
हैं और कह रही हैं
,
आओ , देखो एक बार झाँककर , खोलो बंधनों को जिनमें बाँध रखा है खुद को ,
निकालना ही होगा तुम्हें
तुम्हारा अवसाद
, पीडा  और दंश

बात सिर्फ़ २२   दिनों की नहीं है बात है एक जीवन की , एक सोच की , एक ख्याल की । कोमा एक अवस्था जिसमें जाने वाला छोड
देता है सारे रिश्ते नाते जीते जी
,
तोड लेता है हर संबंध भौतिक जगत
से विज्ञान के अनुसार और आप जा चुके थे उस अवस्था में । जाने कितनी 
 पीडा अपने साथ ले गए । जाने किस अज्ञात सफ़र में
थे जो किसी से नहीं रहा कोई नाता जैसे
, यूँ तोड दिया पल में हर रिश्ता जबकि रिश्तों को सबसे
ज्यादा आपने ही जीया । कितने फ़िक्रमंद हुआ करते थे घर के एक
एक प्राणी के लिए । प्राण बसा करते थे आपके हर रिश्ते में फिर माता पिता
का हो या भाई बहन का या पत्नी और बच्चों का । भाई
बहनों से चाहे कितनी अनबन हो जाती मगर आपने कभी उनके
लिए अपने मन में कटुता नहीं लायी बल्कि उनके हर दुख सुख में उनके साथ खडे रहते ।
दादी की बीमारी में अपनी सरकारी नौकरी तक की परवाह न कर चार महीने तक
छुट्टी
लेकर बैठे रहे ताकि आपकी माँ को जब आपकी जरूरत हो आप उपलब्ध हो सकें और उनका सही
इलाज करवा सकें । बेटियाँ में तो मानो आपके प्राण ही बसा करते थे । बेशक आपका कठोर
स्वभाव सबको रास नहीं आता था मगर नारियल के ऊपरी आवरण से परे उतने ही अन्दर से
कोमल थे ये शायद ही कोई समझ पाया हो ।
उम्र का एक दौर हुआ करता है जिसमें हर लडकी अपनी इच्छाओं के पंखों पर सवार उडा करती है और माता पिता द्वारा की गयी बंदिशें उसे नागवार गुजरती हैं ऐसे में यदि पिता का रौबीला वर्चस्व आपके जेहन पर डर बनकर हावी रहे तो आप कैसे सहज रह सकते हैं कुछ ऐसा ही मैं महसूसा करती थी जब भी कहीं बाहर अकेले आना जाना होता या स्कूल से कहीं लेकर जाते तो आप नहीं भेजा करते जो मुझे अन्दर ही अन्दर आप से एक दूरी बनाने को मजबूर करता या एक डर आपका मेरे वजूद पर हावी रहता और मैं यदि कहीं जाती भी तो वक्त पर घर पहुंचने की कोशिश करती ये सोच आप परेशान हो जायेंगे क्योंकि वो मेरी सोच थी उस वक्त की मगर आज समझ सकती हूँ आपकी वो वेदना जो अपने बच्चे को जब बाहर हम भेजते हैं तो उनके ठीक ठाक घर पहुँचने के लिए कितने फ़िक्रमंद रहा करते हैं जबकि आज तो हर हाथ में मोबाइल है और उस वक्त तो किसी किसी के घर ही टेलीफ़ोन होते थे ऐसे में संदेश मिलने कितने मुश्किल होते हैं और बच्चे की चिन्ता में माता पिता क्या महसूसते होंगे आज समझ सकती हूँ लेकिन तब नहीं समझ सकती थी उस वक्त तक आप मेरे लिए सिर्फ़ एक डर का बायस थे , चिन्तातुर पिता से ज्यादा तो दूसरी तरफ़ मेरे लिए मुझे हमेशा आगे बढने को प्रेरित करते , किसी से भी डरने की शिक्षा देते आज भी याद है मुझे जब मैं सातवीं कक्षा में थी और आप ने एक इंग्लिश के प्रश्न का उत्तर मुझे लिखवाया और मैने वो ही उत्तर अपनी परीक्षा में लिखा जिसे मेरी टीचर ने काट दिया और उस पर रिमार्क लिखा जब मैने आपको बताया तो आपने एक पत्र मेरी प्रिंसिपल के लिए लिखा और मुझे कहा , जाकर अपनी प्रिंसिपल को दे आना बाऊजी , मैं प्रिंसिपल के कमरे में कैसे जाऊँगी जब कहा तो बोले अरे डरने की क्या बात है , बेधडक जाओ और पत्र देकर आना कहना मेरे पिताजी ने भेजा है देखना कुछ नहीं कहेंगी और मैं डरते डरते प्रिंसिपल के पास वो पत्र दे आयी तो उस दिन मुझमें एक हौसले का संचार हुआ कि दुनिया में किसी से बिना बात डरना नहीं चाहिए , कदम आगे बढाना चाहिए ज्यादा से ज्यादा सामने वाला ही तो कहेगा लेकिन आपकी बात भी उस तक पहुँच जाएगी फिर चाहे उस गलती के लिए मेरी टीचर ने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि बेटा तुम प्रिंसिपल के पास क्यों गयीं मुझे कह दिया होता , तुम्हारे पिताजी ने सही कहा यहाँ मेरी ही गलती थी , जब ये बात सुनी तो मेरा आत्मविश्वास बढा और शायद यहीं से मुझमें आपने एक हिम्मत की नींव डाल दी थी जो ज़िन्दगी भर मेरे काम आयी यहाँ तक कि मैं आज बडे से बडे अफ़सर हो या मंत्री या नेता किसी से भी मिलने या बात करने में संकोच नहीं करती या कहीं जाना हो बेधडक चली जाती हूँ


मुझे आज भी याद है ये उसी हिम्मत
का परिणाम था जब एक बार मम्मी अस्पताल में थीं और आपको वहाँ उनके साथ रहना था और
मुझे घर वापस भेजना था जाने किस परेशानी से गुजरे होंगे ये आज अनुमान लगा सकती हूँ
शायद उस वक्त तो समझ भी नहीं सकती थी क्योंकि आप का स्वभाव था ही ऐसा । सिर्फ़ पाँच
मिनट देर हो जाती घर आने में तो आप मेरे कॉलेज पहुँच जाया करते थे या कोई सामान
गली में लेने गयी हूँ और देर होने लगती तो ढूँढने निकल पडते कि आखिर इतनी देर कैसे
हो गयी
,
इतने चिन्तातुर थे आप बाऊजी और
उस दिन सरदारों का कोई जुलूस निकल रहा था तो सारे रास्ते बंद थे । आप और मैं दोनो
विलिंगडन अस्पताल के बस स्टाप
पर खडे रहे कि कोई बस मिल जाए
जो उस तरफ़ जाए ।
215 नम्बर
का इंतज़ार करते करते जब काफ़ी देर हो गयी और लोगों ने बताया आज इधर वाहन आने बंद
हैं न प्राइवेट बस मिलेगी न सरकारी और आपको मम्मी के पास भी जाना था
, उन्हें ज्यादा देर अकेला छोड नहीं सकते थे और मुझे भी सुरक्षित बैठाना था वाहन में तो आपने एक थ्री व्हीलर
वाले को रोका और मुझे कहा
, बेटा
इसमें जाओ और देखो पंचकुइयाँ से पहाडगंज का रास्ता ले लेंगे वहाँ से तुम सुरक्षित
पहुँच जाओगी और घर पहुँचते ही मुझे अस्पताल के नम्बर पर फोन करना ।

सरदार जी बच्ची को सही तरह पहुँचा देना ।

बिल्कुल बाऊजी , आप चिन्ता न करें ।मैं भी बाल
बच्चों वाला इंसान हूँ । वो बोला ।

मैने भी ठीक है बाऊजी
कह तो दिया था मगर उससे पहले कभी
इस तरह अकेले ऑटो में बाहर नहीं निकली थी । यदि निकली भी तो सिर्फ़ इतना कि घर से
कॉलेज और कॉलेज से घर वो भी बंधी बंधाई बस में तो बाहर की दुनिया की कोई जानकारी
ही नहीं थी । वैसे भी कोई कैसे विश्वास करेगा
कि दिल्ली जैसे शहर में रहने वाली लडकियाँ भी ऐसी हुआ
करती हैं मगर घर का माहौल ही कुछ ऐसा रहा कि कहीं भी बाहर आते
जाते तो घर के लोगों के साथ ही
या फिर बाऊजी और मम्मी के साथ ही । ऐसे में हौसला करके ऑटो में बैठ तो गयी मगर जब
उसकी शक्ल देखी तो घिग्गी बंध गयी
। लाल लाल आँख ,
चेचक के दाग से भरा सांवला चेहरा
, बडी बडी मूँछें ,
ऊपर से एक आँख से काना और बेहद
सेहतमंद और फिर सरदार ।सरदार से डर इसलिए क्योंकि एक साल पहले ही इंदिरा गाँधी की
हत्या सरदार द्वारा हुई थी तो उनके लिए मन में एक डर सा बैठ गया था । अन्दर ही
अन्दर एक लडाई खुद से लडती रही । क्या हुआ जो अकेले
जा रही हूँ । मैं कोई कमजोर थोडे हूँ । इसे बिल्कुल इल्म नहीं होने दूँगी कि मुझे
रास्ते नहीं पता । नहीं तो क्या पता कहाँ ले जाए । इसलिये जैसे ही पहाडगंज पर आया
तो उसे दिशा निर्देश देने लगी क्योंकि पहाड गंज से रास्ता पता था मगर उससे पहले का
नहीं पता था क्योंकि उस रूट पर ही मेरा कॉलेज था ताकि उसे लगे कि इसे सब पता है ।
पता नहीं सामने वाले में कोई दोष होता भी है या नहीं मगर हमारे अन्दर बैठा डर का
साँप हमें हर पल डँसता ही रहता है । मुझे सही सलामत पहुँचा दिया था उसने और अभी
मैं घर भी नहीं पहुँची थी कि आपका फोन आ गया कि मैं पहुँची भी या नहीं । कितने
चिन्तातुर थे आप
, शायद
सोच भी नहीं सकती थी उस वक्त । बेशक आज आपकी हर चिन्ता को समझ सकती हूँ ।
बेटी हो या बेटा आप हमेशा इसी
तरह चिन्तित हो जाते और हमेशा समय पर आने के निर्देश देते और यहाँ तक कि शादी हो
जाने के बाद भी हमेशा वाहन तक छोडने आते फिर चाहे आपसे दर्द के कारण चला जाता या
नहीं
, तो ये क्या था सिवाय स्नेह के
।आपके ये उसूल तो आपके जँवाइयों को भी पता थे इसलिए घर पहुँचते ही सबसे पहले आपको
फोन करवाया करते कि बाऊजी चिन्ता
कर
रहे होंगे । ये सब आपका स्नेह ही तो था
, वो निस्वार्थ प्यार था जिसे शायद जब तक इंसान खुद माता
पिता नहीं बनता और उस दौर से नहीं गुजरता समझ ही नहीं सकता । वरना पहले आपका इस
तरह चिन्तित होना यूँ लगता था मानो आपको हम पर विश्वास ही नहीं है मगर वो आपका हम
पर अ
विश्वास नहीं आपका हमारे लिए
निश्छल प्रेम था जिसे आज कितनी शिद्दत से सब महसूसते हैं ।

आज भी याद है वो शाम जब मम्मी का
फोन आया ।
बेटा , जल्दी आ जाओ ,
तुम्हारे बाऊजी का लग रहा है अंत
समय आ गया है
, खाना पीना सब छुट गया है और निढाल हो गये हैं एक दम
चुप
, सबको अजनबियों की तरह देख रहे हैं ,बीपी हाई हो गया है और दिल में
भी तकलीफ़ है
, पैरों तले जमीन ही खिसक गयी थी और हम सभी बहनें दौडी
दौडी अपने अपने बच्चों सहित पहुँच गयी थीं । बाऊजी से सबको आशीर्वाद दिलवाया एक
एक का परिचय देते हुए क्योंकि पहचान ही नहीं पा रह थे े किसी को ।

रात मानो इम्तिहान के शिखर पर थी
। एक

एक पल घंटों में तब्दील हो चुका
था । मैं आपके सिरहाने बैठी कोई ग्रन्थ पढ रही थी जब आपसे मेरी बात हुई शायद चेतना
में आ गए थे आप उस वक्त या शायद तबियत कुछ सुधर गयी थी बाकि सब ऊंघ रहे थे उस समय
। आपका जीवन से
और ईश्वर से जाने कैसा संवाद चल रहा था , एक अतृप्ति की छाया ने आपको उस पल बेचैन कर दिया था जब
आपने कहा
,

कुछ नहीं होता पूजा पाठ आदी से , आखिर क्या पाया मैने जीवन से ? सारी ज़िन्दगी यूँ ही घिसटते हुए बीती ,
क्या सुख पाया ? ज़िन्दगी भर दुख दर्द तकलीफ़ों को सहते ही तो बीती ? बताओ
क्या मिला ज़िन्दगी से
, सच्चाई और ईमानदारी से ? सब बेकार लगता है अब ।

स्तब्ध रह गयी मैं क्योंकि सारी
ज़िन्दगी ईश्वर की अथक अराधना करने वाले के मुख से ये बात निकले तो हैरान होना
लाज़िमी था जिन्होने हम सबमें ईश्वर में आस्था का बीज बोया था जिन्होने दो वक्त
मंदिर नियम से जाना नहीं छोडा फिर कितनी ही आँधी तूफ़ान आये मगर नियम नही टूटना
चाहिए आज वो ईश्वर के होने पर प्रश्नचिन्ह खडा कर रहा था
, अपने उसूलों ,
अपनी आस्था पर से विश्वास उठ रहा
था ये क्या हुआ सोच मैने कहा
,

बाऊजी , ये कैसे कह रहे हो आप । बताइये आपको क्या कमी रही जीवन में , देखिए , थोडा बहुत संघर्ष तो सभी के जीवन
में होता ही है और आपकी सारी बेटियाँ अपने अपने परिवार में सुखी हैं । उनका एक भरा
पूरा परिवार है । और बेटियों से बढकर आपका आदर करने वाले और आपकी बेटियों को चाहने
वाले उन्हें पति
मिले हैं तो दूसरी तरफ़ कभी किसी के आगे आपका सिर नहीं झुका , हमेशा गर्व से सिर उठाकर जीवन
जीया
, किसी से कभी कोई उधार नहीं लिया ,
समाज मे आपकी मान प्रतिष्ठा है , ये सब किसकी देन है , आपकी सच्चाई ,
ईमानदारी और निष्ठा की ही न
।यहाँ तक कि सरकारी नौकरी होने के
बावजूद
तीन
तीन बेटियों का विवाह करना क्या
आसान था
? फिर कैसे आप ज़िन्दगी या ईश्वर पर आक्षेप लगा रहे हैं ।
बल्कि हमेशा आपने हमें यही सब कहकर समझाया कि अच्छा करोगे तो जीवन में हमेशा
तुम्हारे साथ अच्छा ही होगा तुम अपना सच्चाई का रास्ता कभी मत छोडना और ईश्वर
में हमेशा विश्वास रखना कि वो जो करता है अच्छा ही
करता है और हमने भी यही देखा कि आप पर चाहे कितनी मुसीबतें आयीं मगर आप हर बार
उनमें से कुन्दन की तरह खरे निकलते रहे और चमकते रहे । बताइये क्या कमी रही जो आज
आप इस तरह की बात कर रहे हैं । आपकी फ़ुलवारी के हर फ़ूल पर देखो कैसी बहार छायी है
फिर ऐसी निराशाजनक बात क्यों कर रहे हैं
, अपने विश्वास और अपनी आस्था को कमजोर न होने दो और आप
का हर मुसीबत मे मुस्कुराता चेहरा ही तो हमारा संबल रहा है और फिर यदि आप ऐसी बात
करेंगे तो हमारा सबका क्या होगा । और मुझे तो ऐसा नहीं लगता
कि आपके जीवन में कोई कमी
रही। हाँ
,
संघर्ष बेशक रहा मगर हर संघर्ष
के बाद जीवन और निखरा ही ।

और आप चुप हो गये मेरी बातें
सुनकर और मैं आपके सिरहाने बैठी रही । रात अपनी गति से सरकती रही और आपको भी उसके
बाद नींद आ गयी मगर मैं सोच में पड गयी आखिर ऐसा क्यूं हुआ आपके साथ
? आपका विश्वास क्यों डोला ? क्या अन्तिम समय ऐसा ही होता है सोच सिहर उठी । मगर तकदीर पर छायी छाया से
मुक्त कर दिया सुबह की पहली किरण ने । सुबह डॉक्टर को दिखा दिया तो उसने कहा बस कल
की रात भारी थी अब चिन्ता मत करो मगर उसके बाद आपने खाना नहीं खाया
सिर्फ़ लिक्विड पर ही रहने लगे । अन्न छुट ही गया
मगर हमारे लिए राहत थी कि अब आप खतरे से बाहर हैं ।

जीवन फिर ढर्रे पर चलने लगा था ।
जब एक दिन फिर तकरीबन दो सवा दो महीने बाद आपकी हालत फिर बिगडी तो आपको नर्सिंग
होम में दाखिल करवाना पडा
, बैड
पर ही सारे नित्यक
र्म करवाने पडते , आपका शरीर आपका साथ छोड रहा था , न खडे हो पाते थे न बैठ पाते यहाँ तक कि अपने दस्तखत भी नहीं कर पा रहे थे
तो आपके अंगूठे के निशान को मान्यता दी बैंक ने मगर अब तो कुछ भी संभव नहीं रहा था
इतनी हालत बिगड चुकी थी ।कफ़ वात और पित्त का प्रकोप
, मशीनों से खींच खींच कर कफ़ निकाला जाता , दिल ने तो कब से अपना अलार्म बजा
रखा था मगर उसमें भी आप कितने चिन्तातुर रहते थे ये मुझसे बेहतर कौन जान सकता है
, बेशक बोल नही पाते थे मगर इशारों से मुझे समय से घर जाने को कहते क्योंकि
मेरे बच्चे छोटे थे और सुबह से मैं
वहीं आपके पास रहा करती थी ।

एक एक करके सारे घर के लोग आपसे मिलकर जा चुके थे और एक
दिन मेरे पति भी आपसे मिलने आये तो उन्होने मम्मी और मुझे घर भेज दिया ये कहकर
,
तुम लोग जाओ और फ़्रैश होकर आ जाओ
कुछ खा पीकर
, मैं
बाऊजी के पास हूँ ।
ठीक है , बाऊजी हम थोडी देर में आते हैं कहकर हम घर आ गये ।
मगर हमें नहीं पता था कि वो
हमारी आखिरी बात थी जो उनसे हमने कही थी क्योंकि आने के बाद पता चला कि वो तो कोमा
में चले गए हैं ।
डॉक्टर अपनी हर संभव कोशिश कर
रहे थे मगर जब
78 दिन हो गए तो उन्होने कहा कि अब कोई उम्मीद नहीं है । लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम
लगाओ या नहीं इन्हें फ़र्क नहीं पडने वाला
, ये तो अब कोमा में हैं । आप चाहें तो घर भी ले जा सकते
हैं यहाँ तो बस बिल बढता रहेगा
, अब हम भी कुछ नहीं कर सकते , जितनी साँसें हैं उतनी बस पूरी करेंगे ,
अब ये नहीं कह सकते कितने दिन ।

मम्मी से पूछ कर और उन्हे सारी
सिचुएशन बताकर हमने निर्णय लिया कि घर ले जाया जाए क्योंकि मम्मी को लगा कि
बेटियाँ आखिर कब तक रोज
रोज
आती रहेंगी अपने बच्चों को सबको छोडकर । घर पर तो वो सारा वक्त उनकी देखभाल कर
लेंगी और हम सब आपको घर ले आए।

अब एक एक दिन गुजरने लगा मगर आपकी हालत में न सुधार हुआ
बल्कि घर आने पर तो आपकी आँखें खुल कर स्थिर हो गयीं और आप एक
एक साँस इस तरह लेते खींचकर कि हमारा दिल दहल उठता जाने किससे संघर्ष कर रहे
थे और जब बर्दाश्त से बाहर हुआ तो ताऊजी के बेटे से बात हो रही थी
तो वो
बोले

ईश्वर की सत्ता पर विश्वास कर
बेटा
, ये तो कर्मभोग हैं भोगने ही पडते हैं ,
और चाचाजी ने तो उम्रभर ईश्वर को
इतना पूजा है तो हो सकता है अब इसके बाद उनका जन्म ही न हो इसलिए इतना कष्ट उठा
रहे हैं

भभक उठी थी मैं सुनकर , बर्दाश्त नहीं हो रही थी आपकी
तकलीफ़ और भाईसाहब से ही अड गयी कि
कैसा ईश्वर है वो भाईसाहब , जो अपने ही भक्तों को इतना दुख
देता है और वो भी उस हालत में जब वो निसहाय है
,
उसे अपना होश भी नहीं । डगमग़ा
गयी थी मेरी आस्था उस दिन
, बहुत कोसा था ईश्वर को और समझ आयी थी आपकी बेचैनी
उस रात वाली जब आपने भी ईश्वर और अपने जीवन की तपस
्या पर प्रश्न उठाया था । एक आह निकली थी उस दिन और कह
उठी थी
,
भाईसाहब यदि ईश्वर है न तो मैं
एक बेटी होकर कहती हूँ इतनी तकलीफ़ देने से बेहतर है वो उन्हें उठा ले । सह लेंगे
उनका न रहना मगर नहीं देखी जा रही उनकी तकलीफ़ कह फ़फ़क फ़फ़क कर रो पडी थी ।
बात न बहस की थी न विश्वास की ।
बात थी प्रेम की
, हमारे
रिश्ते की
, पिता और पुत्री के उस रिश्ते की जिसका मैं खुद एक अंश
थी वहाँ कैसे संभव था अपने ही किसी हिस्से को तकलीफ़ में देख पीडारहित होकर रह सकना

हर साँस अपनी जद्दोजहद खुद बयाँ
कर रही थी। बहुत मुश्किल से साँस खींचते और फिर
10 12
सैकेंड को रुक जाती तो लगता बस
यही आखिरी है अगली आयेगी भी या नहीं
,
दिल हलक में आकर अटक जाता वो दस
बारह सैकेंड मानो बरस जितने लम्बे हो जाते
,
एक उहापोह की स्थिति में जाने
कितने बिच्छु पीडा के डंक मार जाते और फिर साँस छोडते मानो रुकी तो कह
रहे हों नहीं , अभी नहीं जाऊँगा और दूसरी तरफ़ मृत्यु अपने सारे हथियार
आजमा रही हो अपने साथ ले जाने के लिए अपनी हर संभव कोशिश कर रही हो । जाने क्या था
और क्यों था ऐसा कोई समझ नहीं पा रहा था ।

रोज कोई न कोई रिश्तेदार देखने
आता ही था एक दिन बाऊजी की एक सत्संगी बहन आयीं और उन से भी जब उनकी तकलीफ़ नहीं
देखी गयी तो बोलीं
, बेटा
, पता है ये क्यों नहीं जा रहे ?
कहिये मौसी , क्यों ?
क्योंकि इन्हे इस हाल में भी
तुम्हारी माँ की चिन्ता है कि मेरे बाद इसका क्या होगा
? ये किसके सहारे रहेगी ? तुम तीन बेटियाँ हो अपने घर की तो फिर कैसे जीयेगी ये ? नहीं तो अब तक इनकी मुक्ति हो गयी होती । ये इतनी
तकलीफ़ सिर्फ़ इन्ही के लिए सह रहे हैं और खुद को आज़ाद नहीं कर रहे ।जिस वक्त ये
इनकी चिन्ता से मुक्त हो जायेंगे देखना इस संसार को छोड जायेंगे ।
बेटा तू एक काम कर ,
जी कहिए मौसी
इनके कान के पास जाकर कह , बाऊजी आप मम्मी की चिन्ता मत करो
, मैं मम्मी का ख्याल रखूँगी और उन्हें अपने साथ रखूँगी ।
सुनकर आश्चर्य हुआ और मैने बताया
मौसी , बाऊजी कोमा में हैं ,
इन तक हमारी बात नहीं पहुँचेगी ।
जरूर पहुँचेगी , तू कहकर तो देख ।
नहीं होगा ऐसा , कोमा मे गया इंसान कभी कुछ भी नही सुन पाता मौसी मगर उन्होने
एक न सुनी बल्कि बोलीं
बेटा , शरीर क्या है मिट्टी न , चलता किससे है ? अन्दर की चेतना से न , तो वो चेतना तो जागृत है न तभी
तो साँस ले रहे हैं और ज़िन्दा भी हैं
,
तू दे वचन उन्हें देख मुक्त हो
जायेंगे
, अन्दर की चेतना कभी निष्क्रिय नहीं
होती
,
वो हमेशा जागृत होती है , उसी के होने से ही सारी क्रियायें होती हैं और जब उस तक तेरी आवाज़ पहुँचेगी
देखना मुक्त हो जायेंगे ।

विश्वास ऐसी बातों पर भला आज के
साइंस के युग में कौन कर सकता है फिर भी मौसी की आस्था और विश्वास के लिए मैने
जैसा उन्होने कहा वैसा ही किया । बाऊजी के कान के पास जाकर बोली
,
बाऊजी , बाऊजी
उफ़ ! बाऊजीकी आवाज़ देते ही उनकी स्थिर
आँखें फ़िरीं और शरीर और सिर एक दम चौंक कर हिला इस तरह जैसे मेरी आवाज़ सुनी हो
उन्होने
, मैं आश्चर्य में डूबी बोल उठी ,
बाऊजी , आप मम्मी की चिन्ता मत करो , मैं हूँ न , मैं ख्याल रखूँगी उनका , मेरे साथ रहेंगी वो , आप इतनी तकलीफ़ मत उठाओ , जाओ आप , मुक्त करो खुद को इस देह की कैद
से कहते कहते रो उठी ।

हाय ! कैसी बेटी हूँ जो अपने ही पिता को कह दिया इस तरह जैसे
उनसे कोई नाता ही न हो म
गर मौसी ने
ढाँढस बँधाया और बोलीं बेटा ये शरीर तो एक दिन जाना ही है सभी का मगर क्या तू खुश
है उन्हें इस तरफ़ तकलीफ़ में देखकर
नहीं मौसी
तो फिर चुप हो जा और उनकी आत्मा
की मुक्ति के लिए प्रार्थना कर और मम्मी को कहा
तुम अपने सारे जीवन की तपस्या का
फ़ल इन्हें दो
और मम्मी ने उनके कहने पर जो
सारी उम्र पूजा पाठ
, व्रत
इत्यादि किये सबका फ़ल बाऊजी के निमित्त कर दिया ।

जाने कितना बडा पत्थर उन्होने
दिल पर रखकर ये सब किया होगा इसका तो मैं अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकती मगर शायद यही
होता है शाश्वत निस्वार्थ प्रेम जो एक स्त्री अपने पति से करती है सिर्फ़ उसे तकलीफ़
से मुक्ति मिल जाए फिर चाहे उसे वैधव्य का दुशाला ही क्यों न ओढना पडे । ये होती
है एक पतिव्रता की दृढता ।

मौसी तो चली गयीं ये सब कराकर और
मम्मी ने भी कहा देखो बेटा
, तुम
सब रोज आती हो और देखो अभी पता नहीं तुम्हारे बाऊजी के ऐसे जाने कितने दिन बीतें ।
देखो मुझे कुछ भी तो करना नहीं होता
,
और तुम भी तो सिर्फ़ आकर बैठती ही
हो अब
कोई काम तो है नहीं इसलिए अपना अपना घरबार देखो और ऐसा करो एक
दिन छोडकर एक दिन आ जाया करो बारी

बारी से ।

हमें भी सबको लगा कि शायद मम्मी
का कहना सही है और हम सब अपने
अपने घर आ गयीं ये सोच कि अब कल नही जायेंगे परसों कोई भी एक या दो हो
आयेंगी।

अभी घर आये मुश्किल से दो घंटे
भी नहीं बीते थे कि मम्मी का फोन आया ।
बेटा , तेरे बाऊजी के तो पैर नीले पड गये हैं और जाने कहाँ से
इतनी चींटियाँ बिस्तर पर आ गयी हैं लगता है कल डॉक्टर को दिखाना पडेगा फिर से ।

तुम चिन्ता मत करो मम्मी हम कल आ
जायेंगे।

रात किसी तरह काटी और सुबह फिर
उसी तरह रोज की सारी तैयारी कर दी सबके खाने की लंच पैक कर दिए और निकलने से पहले
मैं नाश्ता करने बैठी तो एक भी कौर गले से नीचे न उतरे और लगे अब यदि खाकर नहीं
गयी तो पता नहीं सारा दिन कैसे निकले और कहाँ
, क्योंकि बाऊजी को लगता है अस्पताल फिर ले जाना
पडे तो कुछ तो जबरदस्ती खाना ही पडेगा वरना कैसे भाग दौड कर पाऊँगी । किसी तरह
24 कौर मुँह में डाले । इतने में मम्मी का फोन आया तो
मेरे पति ने उठाया और उनसे मम्मी की बात हुई तो उन्होने कहा वो आ रही है और मैं भी
आता हूँ ।

मुझसे बोले तुम ऐसा करो कुछ पैसे
रख कर ले जाओ न जाने कहाँ क्या काम आयें । मैं बच्चों की सैटिंग करके पहुंचता हूँ
और तुम ऑटो करके जल्दी से पहुँचो ।

मैंने वैसा ही किया जैसा उन्होने
कहा था । वो ही मौसी मुझे ऑटो से उतरते ही मिलीं तो उन्हें बताया कि ये हो रहा है
तो बोलीं चिन्ता न कर
, ब जल्दी ही मुक्ति हो जायेगी उनकी ।
मैं अविश्वास की पोटली थामे
जल्दी

जल्दी घर की ओर बढने लगी और जैसे
ही गली के नुक्कड पर पहुँची तो देखा ताऊजी के बेटे की बहू ने बाहर ईँटें फ़ेंकी हैं
। सन्देह का कीडा कुलबुलाने लगा और मैं डरते

डरते एक एक कदम बढाती जैसे ही
दहलीज में घुसी तो चौक में सामने ही जमीन पर बाऊजी को लेटे देखा और
………… हंस उड चुका था ।

उस दिन हो गया था मेरा दाह
संस्कार और आपका पुनर्जन्म आपकी विशिष्टताओं के साथ जब ये जाना मैने कि
:

कितने चिन्तातुर थे आप उस अवस्था
में भी जिसमें जाने के बाद सुना है इंसान और उसकी चेतना सब शून्य में स्थित हो
जाती हैं मगर ये शायद आपके निस्वार्थ प्रेम की ही बानगी थी जो बता रही थी कि कितना
स्नेहमयी व्यक्तित्व था आपका हर शख्स के लिए प्रगाढ स्नेह वो भी इतना कि मृत्यु से
भी लड गये और वो भी हाथ बाँधे मानो इसी इंतज़ार में खडी रही कि कब आज्ञा हो और वो
अपना कर्तव्य पूरा कर सके । मानो एक बार फिर भीष्म का जन्म हुआ हो और वो प्रतिज्ञा
बद्ध हों कि जब तक हस्तिनापुर को चहुँ ओर से सुरक्षित न देख लूँ प्राण नहीं
छोडूँगा और मानो आपने आत्मसात कर लिया हो उस चरित्र को पूरे का पूरा और दिया हो एक
वचन खुद को
जब
तक अपनी अर्धांगिनी के भविष्य के प्रति निश्चिंत नहीं हो जाऊँगा तब तक इस संसार से
विदा नहीं लूँगा फिर उसके लिए चाहे मृत्यु से संघर्ष ही क्यों न करना पडे
, फिर चाहे उसके लिए अपन
एक
एक साँस के लिए लडना पडे ,”  यूँ लगा आप भी भीष्म की तरह शर शैया पर लेटे हों और
मौत हुँकार भरती जाने कितने अपने डंक चुभो रही हो और आप एक
एक साँस का कोई कर्ज़ उतार रहे हों , ऐसा था स्नेहमयी ममतामयी व्यक्तित्व ।

 अब इसे ईश्वर का चमत्कार
कहो
, उसमें आस्था कहो या प्रकृति या इंसान की प्रबल इच्छाशक्ति का
कमाल मगर मैने ये तब जाना क्योंकि मेरे वचन देने के बाद आपने चौबीस घंटे भी नहीं
लिए खुद को मुक्त करने को जो पिछले
22 दिनों से आप संघर्षरत थे ईश्वर से ,
प्रकृति से या कहो खुद से ।

तब अहसास हुआ कि कोमा में गए हुए
इंसान की चेतना तक जरूर पहुँचती है बात बेशक वो जवाब न दे सके मगर यदि उसके अन्दर
कोई इच्छा या लालसा बची होती है तो शुरु हो जाता है एक संघर्ष मृत्यु से । मानो
मृत्यु अपने सभी उपकरण लगा रही हो प्राण खींचने के और इंसान की प्रबल इच्छाशक्ति
विवश कर रही हो उसे ठहरे रहने को
, कितना कठिन संघर्ष करना पडता होगा ये तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है मगर
उस दिन लगा इंसान की इच्छा शक्ति के आगे प्रकृति भी विवश हो सकती है ।
जाने क्यों आपके जाने के बाद अब
तक आपकी वो दशा स्मृति से हटती ही नहीं और एक अपराध बोध से ग्रसित हो जाती हूँ
क्योंकि उस वक्त जैसा डॉक्टर ने कहा वैसा ही हमने किया था क्योंकि हमें लगता था
डॉक्टर जो कह रहा है सही कह रहा है मगर आज मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती है और अन्दर
से एक आवाज़ उभरती है कि हमें डॉक्टर के उस निर्णय को नहीं मानना चाहिए था कि लाइफ़
सपोर्ट सिस्टम हटा दिये जायें क्योंकि कम से कम तब आप एक एक साँस के लिए शायद इस
तरह नहीं लडते बेशक ये बात आज तक किसी को नहीं कही न बतायी मगर मेरे अन्दर मेरी
आत्मा मुझे धिक्कारती है क्योंकि जिस दिन से ये अहसास हुआ कि कोमा में भी आपकी
चेतना जागृत थी उस दिन से यूँ लगा जैसे हम ही आपके सबसे बडे दुश्मन बन गए थे ।
कैसे अपने लोग ही अन्जाने में अपनों की तकलीफ़ का हिस्सा बन जाते हैं कभी सोच भी
नहीं सकती थी और अब ये निर्णय लिया है कि कभी किसी की भी ज़िन्दगी में यदि ऐसी कोई
स्थिति आयी तो कभी ऐसा निर्णय नहीं लेंगे क्योंकि अह्सास हो चुका है बेशक मस्तिष्क
शून्य हो जाए मगर चेतना तो सब भोगती ही है
,सुनती भी है बस उत्तर ही नहीं दे पाती । ये फ़ाँस शायद
ज़िन्दगी भर मेरे ह्रदय में चुभती रहेगी जाने कभी इससे निजात मिलेगी भी या नहीं
, नहीं जानती । अब तो सिर्फ़ उस दर्द ,
उस पीडा को महसूस कर मानो हर पल अंगारों पर लोटती हूँ ।
आपका व्यक्तित्व मेरा आदर्श बना
और आज मैं खुद में आपको देखती हूँ ।
अब ढूँढती हूँ खुद को तो कहीं
नहीं मिलती
…………मिलते
हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ आप
………क्या इसी तरह होता है हस्तांतरण
प्रकृति का

?
वंदना गुप्ता 
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5 thoughts on ““एक दिन पिता के नाम ” —-वो २२ दिन ( संस्मरण -वंदना गुप्ता )”

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