‘दलदल’ कहानी के विकलांग सुब्रोतो का करुण तरीके से दलदल में डूबते जाना सिहरन से भरता है तो ‘बलिदान’ की बाढ़ग्रस्त भैरवी नदी में नाव पर सवार क्षमता से अधिक परिजनों द्वारा डगमगाती नाव का भार कम करने के लिये, किसका जीवित रहना अधिक ज़रूरी है, किसका कम , इस आधार पर एक-एक कर नदी में कूद कर आत्म-उत्सर्ग करना स्तब्ध करता है। ‘‘काले चोर प्रोन्नति पायें, ईमानदार निलंबित हों’’ ऐसे अराजक, अनैतिक माहौल में खुद को मिस़फिट पाते ‘मिसफ़िट’ के केन्द्रीय पात्र का आत्महत्या का मानस बना कर रेलवे ट्रैक पर लेटना भय से भरता है तो ‘पाँचवी दिशा’ के पिता का हॉट एयर बैलून में बैठ कर उड़ना, गुब्बारे का अंतरिक्ष में ठहर जाना जिज्ञासा से भरता है। ‘दुमदार जी की दुम’ के दुमदार जी की रातों-रात ‘दुम निकल आई है’ जैसे भ्रामक प्रचार को अलौकिक और ईश्वरीय चमत्कार मान कर लोगों का उनके प्रति श्रद्धा से भर जाना उत्सुकता जगाता है तो ‘बयान’ के निष्ठुर भाई का ‘‘यातना-शिविर जैसे पति-गृह से किसी तरह छूट भागी मिनी को जबर्दस्ती घसीट कर फिर वहीं (पति-गृह) पहुँचा देना।’’ आक्रोश से तिलमिला देता है। वस्तुतः सुशांत सुप्रिय की पारखी-विवेकी दृष्टि अपने समय और समाज की प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति-मनः स्थिति पर ऐसे दायित्व बोध के साथ पड़ती है कि संग्रह की पंक्तियाँ तत्कालीन व्यवहार-आचरण का सच्चा बयान बन गई हैं – ‘‘कैसा समय है यह, जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं सारी मशालें, और हम निहत्थे खड़े हैं।’’ (कहानी दो दूना पाँच)। ‘‘बेटा, पहले-पहल जो भी लीक से हट कर कुछ करना चाहता है, लोग उसे सनकी और पागल कहते हैं।’’ (कहानी ‘पाँचवीं दिशा’)। ‘‘मैं नहीं चाहता था मिनी आकाश जितना फैले, समुद्र भर गहराये, फेनिल पहाड़ी-सी बह निकले ………… मेरे ज़हन में लड़कियों के लिये एक निश्चित जीवन-शैली थी।’’ (कहानी ‘बयान’)। ‘‘लोग आपको ठगने और मूर्ख बनाने में माहिर होते हैं। मुँह से कुछ कह रहे होते हैं जबकि उनकी आॅंखें कुछ और ही बयाँ कर रही होती हैं।’’ (कहानी ‘एक गुम सी चोट’)। ये कुछ ऐसी वास्तविकतायें हैं जिनसे संत्रस्त हो चुका आम आदमी सवाल करने लगा है ‘‘नेक मनुष्यों का उत्पादन हो सके क्या कोई ऐसा कारखाना नहीं लगाया जा सकता ? ” लेकिन संग्रह की कहानियों में जो सकारात्मक भाव हैं ,वे सवाल का उत्तर दें न दें , आम आदमी को आश्वासन ज़रूर देते हैं कि ‘‘मुश्किलों के बावजूद यह दुनिया रहने की एक खूबसूरत जगह है।’’ (कहानी ‘ पिता के नाम ‘ )
सुशांत सुप्रिय के कहानी संग्रह की समीक्षा – किस्सागोई का कौतुक देती कहानियाँ ( सुषमा मुनीन्द्र)
समीक्ष्य कृति
– दलदल (कहानी संग्रह) ( अंतिका प्रकाशन , ग़ाज़ियाबाद ) 2015.
– किस्सागोई का कौतुक देती कहानियाँ
१
सुपरिचित रचनाकार सुशांत सुप्रिय का सद्यः प्रकाशित कथा संग्रह ‘दलदल’ ऐसे समय में आया है जब निरंतर कहा जा रहा है कहानी से कहानीपन और किस्सागोई शैली गायब होती जा रही है। संग्रह में बीस कहानियाँ हैं जिनमें ऐसी ज़बर्दस्त किस्सागोई है कि लगता है शीर्षक कहानी ‘दलदल’ का किस्सागो बूढ़ा, दक्षता से कहानी सुना रहा है और हम कहानी पढ़ नहीं रहे हैं वरन साँस बाँध कर सुन रहे हैं कि आगे क्या होने वाला है। पूरे संग्रह में ऐसा एक क्रम, एक सिलसिला-सा बनता चला गया है कि हम संग्रह को पढ़ते-पढ़ते पूरा पढ़ जाते हैं। कभी उत्सुकता, कभी जिज्ञासा, कभी भय, कभी सिहरन, कभी आक्रोश, कभी खीझ, कभी कुटिलता,कभी कृपा से गुजर रहे पात्र इतने जीवंत हैं कि सहज ही अपने भाव पाठकों को दे जाते हैं।
२
संग्रह की मूर्ति, पाँचवीं दिशा, चश्मा, भूतनाथ आदि कहानियाँ आभासी संसार का पता देती हैं। ये कहानियाँ यदि लेखक की कल्पना हैं तो अद्भुत हैं, सत्य हैं तब भी अद्भुत हैं। ‘मूर्ति’ का समृद्ध उद्योगपति जतन नाहटा आदिवासियों से वह मूर्ति, जिसे वे अपना ग्राम्य देवता मानते हैं, बलपूर्वक अपने साथ ले जाता है। मूर्ति उसे मानसिक रूप से इतना अस्थिर-असंतुलित कर देती है कि वह पागलपन के चरम पर पहुँच कर अंततः मर जाता है। ‘पाँचवीं दिशा’ के पिता हॉट एयर बैलून में बैठ कर उड़ान भरते हैं। गुब्बारा अंतरिक्ष में स्थापित हो जाता है। वे वहाँ से सैटेलाइट की तरह गाँव वालों को मौसम परिवर्तन की सूचना भेजा करते हैं। ‘‘चश्मा’ कहानी के परिवार के पास चार-पाँच पीढ़ियों से एक विलक्षण चश्मा है जिसे पहन कर भविष्य में होने वाली घटना-दुर्घटना के दृश्य देखे जा सकते हैं। दृश्य देखने में वही सफल हो सकता है जिसका अन्तर्मन साफ हो। ‘भूतनाथ’ का भूत मानव देह धारण कर लोगों की सहायता करता है। वैसे ‘भूतनाथ’ और ‘दो दूना पाँच’ कहानियाँ फ़िल्मी ड्रामा की तरह लगती हैं। सुकून यह है कि जब हत्या, बलात्कार, दुर्घटना, वन्य प्राणियों का शिकार कर, गलत तरीके से शस्त्र रख धन-कुबेर और उनकी संतानें पकड़ी नहीं जातीं या पुलिस और अदालत से छूट जाती हैं, वहाँ ‘दो दूना पाँच’ के कुकर्मी प्रकाश को फाँसी की सजा दी जाती है। कहानियों में ज़मीनी सच्चाई है इसीलिये झाड़ू, इश्क वो आतिश है ग़ालिब जैसी प्रेम-कहानियाॅं भी प्रेम-राग का अतिरंजित या अतिनाटकीय समर्थन करते हुये मुक्त गगन में नहीं उड़तीं बल्कि इस वास्तविकता को पुष्ट करती हैं कि प्रेम के अलावा भी कई-कई रिश्ते होते और बनते हैं और यदि विवेक से काम लिया जाय तो हर रिश्ते को उसका प्राप्य मिल सकता है : ‘‘जगहें अपने आप में कुछ नहीं होतीं। जगहों की अहमियत उन लोगों से होती है जो एक निश्चित काल-अवधि में आपके जीवन में उपस्थित होते हैं।’’ (पृष्ठ 73)। लेकिन कुछ स्थितियाँ ऐसा नतीजा बन जाती हैं कि इंसान शारीरिक यातना से किसी प्रकार छूट जाता है लेकिन मानसिक यातना से जीवन भर नहीं छूट पाता। बिना किसी पुख्ता सबूत के, संदेह के आधार पर जाति विशेष के लोगों को अपराधी साबित करना सचमुच दुःखद है। ’मेरा जुर्म क्या है ?’ के मुस्लिम पात्र के घर की संदेह के आधार पर तलाशी ली जाती है, उसे जेल भेजा जाता है । बरसों बाद वह निर्दोष साबित होकर घर लौटता है लेकिन ये यातना भरे बरस उसका जो कुछ छीन लेते हैं उसकी भरपाई नामुमकिन है। ‘कहानी कभी नहीं मरती’ के छब्बे पाजी 1984 जून में चलाये गये आपरेशन ब्लू-स्टार के फौजी अभियान की चपेट में आते हैं। झूठी निशानदेही पर ‘ए’ कैटेगरी का खतरनाक आतंकवादी बता कर उन्हें जेल भेजा जाता है। वे भी बरसों बाद निर्दोष साबित होते हैं। कहानियों में इतनी विविधता है कि समकालीन समाज और जीवन की सभ्यता-पद्धति, आचरण-व्यवहार, यम-नियम, चिंतन-चुनौती, मार्मिकता-मंथन, समस्या-समाधान, साम्प्रदायिकता-नौकरशाही, कानून-व्यवस्था, मीडिया, भूकम्प, बाढ़, अकाल, बाँध, डूबते गाँव, कटते जंगल, किलकता बचपन, गुल्ली-डंडा, कबड्डी जैसे देसी खेल, कार्टून चैनल, वीडियो गेम्स, मोबाइल, लैप-टाप जैसे गैजेट्स ……….. बहुत कुछ दर्ज हैं।
3
सुशांत की कहानियाँ आकार में लम्बी नहीं , अपेक्षाकृत छोटी हैं तथापि सार्वभौमिक सत्य को सामने लाने में सक्षम हैं। भाषा आकर्षक और बोधगम्य है। आह्लाद और विनोद का पुट कहानियों को रोचक बना देता है। पात्रों के अनुरूप छोटे-छोटे, अनुकूल संवाद हैं जो अत्यधिक उचित लगते हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है किस्सागोई का आनंद देती ये कहानियाँ दिमाग पर हथौड़े की तरह वार करती हैं , तथा दिल पर असर छोड़ते हुये सकारात्मक सोच अपनाने के लिये प्रेरित करती हैं । अच्छे कहानी संग्रह के लिये सुशांत सुप्रिय को बधाई और शुभकामनायें।
समीक्षा आलेख – सुषमा मुनीन्द्र
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