माँ के सपनों की पिटारी

माँ के सपनों की पिटारी



सूती धोती उस पर तेल -हल्दी के दाग , माथे पर पसीना और मन में सबकी चिंता -फ़िक्र | माँ तो व्रत भी कभी अपने लिए नहीं करती | हम ऐसी ही माँ की कल्पना करते हैं , उसका गुणगान करते हैं …पर क्या वो इंसान नहीं होती या माँ का किरदार निभाते -निभाते वो कुछ और रह ही नहीं जाती , ना रह जाते हैं माँ के सपने 



माँ के सपनों की पिटारी 





कल मदर्स डे था और सब अपने माँ के प्यार व् त्याग को याद कर रहे थे | करना भी चाहिए ….आखिर माँ होती ही ऐसी हैं | मैंने भी माँ को ऐसे ही देखा | घर के हज़ारों कामों में डूबी, कभी रसोई , कभी कपड़े कभी बर्तनों से जूझती, कभी हम लोगों के बुखार बिमारी में रात –रात भर सर पर पट्टी रखती, आने जाने वालों की तीमारदारी करती | मैंने माँ को कहीं अकेले जाते देखा ही नहीं , पिताजी के साथ जाना सामान खरीदना , और घर आ कर फिर काम में लग जाना |अपने लिए उनकी कोई फरमाइश नहीं , हमने माँ को ऐसी ही देखा था …बिलकुल संतुलित, ना जरा सा भी दायें, ना जरा सा भी बायें |




 उम्र का एक हिस्सा निकल गया | हम बड़े होने लगे थे | ऐसे ही किसी समय में माँ मेरे व् दीदी के साथ बाज़ार जाने लगीं | मुझे सब्जी –तरकारी के लिए खुद मोल –भाव करती माँ बहुत अच्छी लगतीं | कभी –कभी कुछ छोटा-मोटा सामान घर –गृहस्थी से सम्बंधित खुद के लिए भी खरीद लेती , और बड़ी ख़ुशी से दिखातीं | उस समय उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी |




मुझे अभी भी याद है कि हम कानपुर में शास्त्री नगर बाज़ार में सब्जियां लेने गए थे , वहाँ  एक ठेले पर कुछ मिटटी के खिलौने मिल रहे थे | माँ उन्हें देखने लगीं | मैं थोड़ा पीछे हट गयी | बड़े मोल –तोल से उन्होंने दो छोटे –छोटे मिटटी के हाथी खरीदे और मुझे देख कर चहक कर पूछा ,” क्यों अच्छे हैं ना ?” मेरी आँखें नम हो गयीं | 


घर आने के बाद पिताजी व् बड़े भैया बहुत हँसे कि , “ तुम तो बच्चा बन गयीं , ये क्या खरीद लायी, फ़ालतू के पैसे खर्च कर दिए | माँ का मुँह उतर गया | मैंने माँ का हाथ पकड़ कर सब से कहा, “ माँ ने पहली बार कुछ खरीदा है , ऐसा जो उन्हें अच्छा लगा , इस बात की परवाह किये बिना कि कोई क्या कहेगा,ये बहुत ख़ुशी का समय है कि वो एक माँ की तरह नहीं थोड़ा सा इंसान की तरह जी हैं |”




 लेकिन जब मैं खुद माँ बनी , तो बच्चों के प्रेम और स्नेह में भूल ही गयी कि माँ के अतिरिक्त मैं कुछ और हूँ | हालांकि मैं पूरी तरह से अपनी माँ की तरह नहीं थी , पर अपने लिए कुछ करना बहुत अजीब लगता था | एक अपराध बोध सा महसूस होता |  तब मेरे बच्चों ने मुझे अपने लिए जीना सिखाया | अपराधबोध कुछ कम हुआ | कभी -कभी लगता है मैं आज जो कुछ भी कर पा रही हूँ , ये वही छोटे-छोटे मिटटी के हाथी है ,जो माँ के सपनों से निकलकर मेरे हाथ आ गए हैं | 






 ये सच है कि बच्चे जब बहुत छोटे होते हैं तब उन्हें २४ घंटे माँ की जरूरत होती है , लेकिन एक बार माँ बनने के बाद स्त्री उसी में कैद हो जाती है , किशोर होते बच्चों की डांट खाती है, युवा बच्चे उसको झिडकते, बहुत कुछ छिपाने लगते हैं ,और विवाह के बाद अक्सर माँ खलनायिका भी नज़र आने लगती है | तमाम बातें सुनती है , मन को दिलासा देती है ,  पर वो माँ की भूमिका से निकल कर एक स्त्री , इक इंसान बन ही नहीं पाती | क्या ये सोचने की जरूरत नहीं कि माँ के लिए दुनिया इतनी छोटी किसने कर दी है ? 






 माँ के त्याग और स्नेह का कोई मुकाबला नहीं हो सकता, लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाए तो उनका भी फर्ज है कि खूबसूरत शब्दों , कार्ड्स , गिफ्ट की जगह उन्हें , उनके लिए जीवन जीना भी सिखाये | घर की हथेली पर बूँद भर ही सही पर उसके भी कुछ सपने हैं , या किसी ख़ास तरह से जीने की इच्छा ,बस थोडा सा दरवाजा खोल देना है , खुद ही वाष्पीकृत हो कर अपना रास्ता खोज लेंगे |


 मेरी नानी ने एक पिटारी दी थी मेरी माँ को, उसमें बहुत ही मामूली चीजें थी , कुछ कपड़ों की कतरने , कुछ मालाएं , कुछ सीप , जिसे खोल कर अक्सर माँ रो लिया करती | सदियों से औरतें अपनी बेटियों को ऐसी ही पिटारी सौंपती आयीं है, जो उन्होंने खोली ही नहीं होती है …उनके सपनों की पिटारी | कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि कोई भी माँ ये पिटारी बच्चों को ना सौंप कर अपने जीवन काल में ही खोल सके |

मदर्स डे का इससे खूबसूरत तोहफा और क्या हो सकता है | क्या आप अपनी माँ को ये तोहफा नहीं देना चाहेंगे | 


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