मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”

क्या इतिहास पलट कर आता है ? “हाँ” इतिहास आता है पलटकर एक अलग रूप में अलग तरीके से पर अक्सर हम उसको पहचान नहीं पाते | यहीं पर एक साहित्यकार की गहन दृष्टि जाती है | एक ही जमीन पर दो अलग-अलग काल-खंडों में चलती कथाएँ  एकरूप हो जाती हैं | राय प्रवीण फिर आती है लौट कर, पर इस बार घुँघरुओं की तान और मृदंग की नाद की जगह होता है बाढ़ का हाहाकार | अकबर को अपने दोहे से परास्त कर देने वाली क्या परास्त कर पाई उस व्यवस्था को जो पीड़ितों को  अनाज देने के बदले माँगती भी है बहुत कुछ | पाठकों की अतिप्रिय वरिष्ठ लेखिका आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा जी की  मार्मिक कहानी “राय प्रवीण” एक ऐसी ही कहानी है जो इतिहास  और वर्तमान के बीच आवाजाही करती अंततः पाठक को झकझोर देती है | आइए पढ़ते हैं एक मार्मिक सशक्त कहानी ..

राय प्रवीण 

गोविन्द गाइड को खोजना-ढूंढ़ना नहीं पड़ता।

झांसी स्टेशन पर जब वातानुकूलित मेल-गाडि़यां रुकती हैं, या कि जब शताब्दी एक्सप्रेस आती है, वह गहरी पीली टी-शर्ट और सलेटी रंग की ढीली पैंट पहने, सिर के लंबे बालों को उंगलियों से कंघी-सी करता हुआ हाजिर मिलेगा। खास तौर पर शताब्दी आते ही उसकी देह में बिजली का-सा करंट दौड़ जाता है। बोगी नंबर 7 से एक्जीक्यूटिव क्लास तक आते-जाते भागमभाग मचाते हुए देख लो। कभी अंदर तो कभी बाहर, उतरा-चढ़ी में आतुरता से मुसाफिरों का जायजा लेता।

सुनहरेे बालों वाले गोरे पर्यटकों को देखते ही उसके भीतर सुनहरा सूरज जगमगाने लगता है। अपनी बोली तुरंत बदल लेता है और जर्मन, फ्रेंच तथा इटैलियन भाषा में मुस्कराकर गर्मजोशी से अभिवादन करता है।

छब्बीसवर्षीय गोविन्द की आंखों में अनोखी चमक रहती है। भले ही कद लंबा होने के कारण काठी दुबली सही। रंग तनिक सांवला, माथा ऊंचा और नाक छोटी। दांत सफेद, साफ। कुल मिलाकर पर्सनैलिटी निखारकर रहता है,धंधे की जरूरी शर्त।

देशी पर्यटकों को वह तीर्थयात्री से ज्यादा कुछ नहीं मानता। वे ऐतिहासिक धरोहर को बेजायका चीज समझकर धार्मिक स्थानों की शरण में जाना पसंद करते हैं। उनके चलते गाइड को उसका मेहनताना देने की अपेक्षा महंत और पुजारियाें के चरणों में दक्षिणा चढ़ाना ज्यादा फायदे का सौदा है परलोक सुधारने का ठेका।—लेकिन गोविन्द ही कब परवाह करता है, विदेशियाें की जेब झाड़ना उसके लिए खासा आसान है। माईबाप, पालनहार, मेहनत और कला के कद्रदान विदेशी मेहमान!

उसे ही क्या, सभी के प्यारे हैं विदेशी। तभी तो खजुराहो के ‘घुन गाइड’ उसका धंधा खोखला करने पर लगे रहते हैं। गोरे लोग देखे नहीं कि मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे। अंग्रेज बनकर ऐसे बोलेंगे ज्यों होंठों के बीच छिरिया की लेंड़ी दबी है। फ्ओरचा कुच नहीं सर! एकदम डर्टी, बोगस। जाड़ा में भी लू-लपट। गर्मी में फायर का गोला। रेनी सीजन में मड ही मड—टूरिस्ट लोग इल हो गया था डॉक्टर भी नहीं। नो मैडीसिन—। गोविन्द के कानों में गर्म सलाखें कोंचता रहता है कोई।

—लेकिन उसे पछाड़ना आसान नहीं। साथ आए अनुवादक से आंख मारकर मिलीभगत कर लेता है (पैसा सबकी कमजोरी है)। पूरी बात मुसाफिरों तक नहीं जाने देता ट्रांसलेटर। गोविन्द होंठों तक आई मां-बहन की गालियों को जज्ब कर जाता है। अनुवादक का क्या, गालियों का ही रूपांतरण कर डाले और बदले में अधिक रकम की फरमाइश धर दे। बेईमानी के अपने पैंतरे हैं, जो धंधे के हिसाब से शिकंजा कसते हैं।

गोरे समूह के साथ हो लेता है गोविन्द सर, ओरछा! मैम यू हैव हर्ड अबाउट राय प्रवीण? नहीं? राजा इंद्रमणि सिंह की प्रेमिका। ए स्टोरी ऑफ ट्रू लव। खजुराहो से पहले ही—बेतवा नदी के किनारे किला और राय प्रवीण का महल। लहरों पर नाचती है आज भी वह नर्तकी। बिलीव मी।

पीठ और कंधों पर भारी वजन लटकाए हुए चलते पर्यटक स्त्री-पुरुष उसकी बात पर अचानक तवज्जो देते हैं, और वह मगन मन बोलता ही चला जाता है, मुगल  पीरियड में बादशाह अकबर का दिल ले उड़ने वाली राय प्रवीण।

गोविन्द यह बात अच्छी तरह जानता है कि ओरछा के मुकाबले खजुराहो की शान धरती से आसमान तक फैली हुई है। संभोगरत युगल मूर्तियों की कल्पना में उड़ती आई पर्यटकों की टोली ओरछा में क्या पाएगी? ले-देकर एक टूटा-फूटा मामूली-सा किला, सादा रूप राम राजा का मंदिर और ऋतुओं के हिसाब से भरती-सूखती बेतवा। एकदम प्रकृति का अनुचारी कस्बा। रुकने-ठहरने के नाम पर सबसे बड़ा माना जाने वाला होटल शीशमहल नाम बड़े और दर्शन थोड़े। कई बार जब टूरिस्ट उसके हाथ से फिसल जाते हैं तो वह ऐसी ही बातें सोचकर दुखी होता है। सरकार को गरियाता है और पर्यटक के देखते ही फिर चालू

किले  में आज भी राय प्रवीण की बीना गूंजती है सर! जुबान  की गति के हिसाब से हाथ नचाता, लोगों से कदमताल मिलाता हुआ अपने ग्राहकों पर बातों के लच्छे फेंकता चलता है, ज्यों हारना नहीं चाहता हो खजुराहो के आधुनिक वैभव से।

अपने  प्रेमी को पुकारने वाली बेचैन प्रेमिका, अप्सरा रम्भा! एकदम आपके माफिक मैम!

उसने साफ झूठ बोल दिया। विदेशी लड़की गोरी तो थी मगर खासी बदशक्ल। उसने एक इटैलियन लड़की को इसी तरह बहकाया था। गोविन्द के सफेद झूठ को सच मानते हुए वह खुद को राय प्रवीण समझने लगी थी और पूरे-पूरे दिन राय प्रवीण के महल के एकांत में बैठी रहती थी। वह किले के नीचे बने ढाबों से तवे की रोटी और आलू की रसीली सब्जी लाया करता था। बोलता था राय प्रवीण यही भोजन किया करती थी।

कैसे न बोलता? इस बस्ती में गोश्त-मछली कहां? अच्छा पैसा ऐंठा था उस विदेशिनी से क्योंकि वह पैसे वाली थी और गोविन्द की उन दिनों फाकामस्ती चलती थी।

राय प्रवीण जवान, खूबसूरत और नाचने-गाने वाली वेश्या! विदेशी लोग भले ही खुले जीवन के आदी हों, भारतीय स्त्री की आजादी की यह शैली उनके लिए जादू की तरह दिलचस्प और अद्भुत थी। यदि ऐसा न होता तो गोविन्द के ओरछा को कौन देखता? गोविन्द बताता ये जीवित कथाएं हैं सर! किले में गूंजती हुई आवाजें आज भी सुनाई देती हैं। गोरे लोग भारी सीनों में सांस रोककर आंखें फैलाने लगते हैं, मैले दांतों से डरी हुई-सी मुस्कराहट झरती है, तब गोविन्द को लगता है कि उसने टूरिस्ट पर अपना जाल डाल दिया है। अब यह खजुराहो जाने की जल्दी में नहीं है। वह पर्यटकों के आगे-आगे चलता है छाती फुलाकर। किले को गर्व से देखता हुआ।

जिस दिन वह ओरछा में पर्यटक बटोरकर खड़े कर देता है, खुद को राजा इंद्रमणि सिंह से कम नहीं समझता और यदि वह टूरिस्टों को नहीं ला पाता, राय प्रवीण की कथा नहीं कह पाता तो उसके पांवों में टीसें मारती हैं और जुबान पर फफूंद-सी चढ़ जाती है।

गोविन्द बताता है, यह  कंचना घाट। बेतवा का निर्मल पानी। और वह, उधर देखिए सामने, राजा वीरसिंह जू देव की छतरी। साथ में अनेक छतरियां राजा लोगाेंं की यादगारें। तसवीर लीजिए, इस पॉइंट से एकदम साफ आएगी, लीजिए न। गोविन्द अपने ओरछा को हर एक टूरिस्ट के दिल में उतार देना चाहता है, ये  स्मारक-मेमोरियल्स, ओरछा-नरेशों के सत्य, न्याय, दान-धर्म, शूरता-वीरता, साहित्य और संस्कृति की कितनी ही यादें समेटे हुए हैं। ये  कहकर फुर्ती के साथ अनुवादक को संकेत देता है समझाओ सब लोगों को।

कंचना घाट पर लोक माता बेतवा की धारा में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अस्थियों की भस्म दिल्ली से लाकर प्रवाहित की गई थी। वह आंखें मूंदकर हाथ जोड़ लेता है।

कंचना घाट नाम कैसे पड़ा? बड़ा दिलचस्प किस्सा है। हुआ ऐसा कि जिस समय मधुकर शाह का राजतिलक हो रहा था, उसी मुबारक मौके पर ग्वालियर की नर्तकी कंचना नृत्य करने को बुलाई गई। सर, मयूरी नृत्य! कहकर वह अपनी दोनों दुबली बांहों को पंखों की तरह फैला देता है और एक पांव पर खड़े होकर मोर बन जाता है। धीरे-धीरे फिरकी मारता है।

नृत्य क्या था, मनभेदी बाण! राजा, राजदरबारी अर्द्धमूर्च्छित हो गए। मदिरा का-सा नशा। रात ढल गई। भोर होने वाली थी, लोग सोए न जागे। खुमार टूटा तो देखते क्या हैं, कंचना नाचने वाली ग्वालियर जाने की तैयारी कर रही है। राजा-रजवाड़ों की अपनी ही तर्ज होती है। जो चीज पसंद आ जाए, उसे छोड़ना कैसा? भले खून-खराबा हो जाए। फिर कंचना की औकात क्या जो राजा का हुक्म न माने। उसे रोक लिया। बदले में राजसी रुतबा दिया। कहते हैं, वेश्या किसी की सगी नहीं होती, लेकिन कंचना वेश्या पूरी उम्र यहीं रही। मरने के बाद उसी नर्तकी के नाम पर इस घाट को नाम दिया कंचना घाट। जब तक बेतवा रहेगी, कंचना रहेगी।

गाइड का खास गुण होता है किस्सों में दिलचस्पी बनाए रखना। कहानी आगे बढ़ती है कंचना  ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। नाम रखा सावित्री। सावित्री हमारे पुराणों में ऐसी सती का नाम है जो पति के प्राणाें के लिए मौत के देवता यमराज से लड़ी थी, पतिव्रता स्त्री। पतिव्रता हमारे समाज में बड़ा सम्मान पाती है। देवी की तरह माना जाता है उसे। कंचना वेश्या थी, उसे जीवन भर पतिव्रता होने के सामाजिक सम्मान की ललक बनी रही, बेटी का नाम इसीलिए रखा सावित्री।

वह बीच में रुकता है, और  यह कवि केशव संस्थान। उस समय के नामी कवि। वह  संस्थान के पास पर्यटकों के समूह के साथ पांच मिनट के लिए ठहरता है, इनकी  कविताई का क्या कहना! देश के ओर-छोर तक इनके कठिन काव्य से दहलते थे साहित्याचार्य।

चलने के साथ ही फिर छूटी बात का छोर थामते हुए बोलता है, हाँ  तो सर, सावित्री जब बड़ी हुई, राजा इंद्रमणि सिंह गद्दी पर बैठ चुके थे। आइए, अब किले में चलते हैं। वह अपने  पर्यटकों के साथ किले की ओर जाने वाली ऊंचाई पकड़ती सड़क पर बढ़ रहा है, हाथों से दाएं-बाएं इशारा करता हुआ, देखिए  यहां से, बेतवा की धार में चांदी-सी चमकती लहरें। धूप नाच रही है पानी पर और इधर बस्ती छोटे-बड़े, कच्चे-पक्के घर।

किले में घुसते ही उसे राय प्रवीण के महल में पहुंचने की जल्दी रहती है। मन काबू में करके रनिवास दिखाता है। राजाओं की वैभव भरी शौर्यकथाएं कहता है। पर्यटक बराबर स्थायी तौर पर मुस्कराते रहते हैं।

राय प्रवीण

—कि आ पहुंचा गुलाब बाग में। सामने राय प्रवीण का रहवास। ऊंची-ऊंची मजबूत सीढि़यां चढ़ता हुआ उमंग और उत्साह बिखेरता अपने साथ आए लोगों को बार-बार पीछे मुड़कर देखता है। गर्व और उल्लास की लहरों से खेलता हुआ गोविन्द गाइड आज राय प्रवीण का सारा इतिहास खोलकर रख देगा। तप और सिद्धि एक साथ अशर्फियों भरी तिजोरी उड़ेलकर दिखाता हो जैसे एक-एक ठोस सुनहरा सिक्का, वो  देखिए राय प्रवीण! ऊपरी मंजिल के मजबूत दालान की दीवारों पर नृत्य-मुद्रा में सबका स्वागत करती हुई नर्तकी। गोविन्द अपने ही घर में ले आया है पर्यटकों को। इस संसार में उसका है ही कौन? एक बूढ़ा बाप था, चार बरस पहले स्वर्गवासी हुआ। अब बस राय प्रवीण, जिसकी वजह से कमाता है, खाता है और उसी के दम पर जिंदा है—यह किला ही उसकी खेती है।

आज की कमाई! पैंट की जेब पर हाथ धरते ही गोविन्द के मन में एक ‘खूबसूरत’ लड़की अवतरित होती है। जुल्मिन मुस्कराती है उसका सांवला-सलोना मुखड़ा—कब से संजोए बैठा है! बीते हुए जीवन की शेष घडि़यां, जो पीछा नहीं छोड़तीं, उन्हीं के साथ उसका जीना-मरना बंधा है।

ओरछा के माणिकदास इंटर कॉलेज में सावित्री और वह साथ-साथ पढ़ते थे। गणित मास्साब की बेटी सावित्री। गणित में ही एकदम फिसड्डी थी। बाप से मार खाती थी क्योंकि गणित जैसे जॉली विषय में फेल हो जाने को गणित मास्साब जीवन में असफल हो जाने का प्रथम और अनिवार्य लक्षण मानते थे। बेअक्ल लड़की का भविष्य गर्त में डूबकर रहेगा। गणित मास्साब जब बेहद निराश होकर एकदम उदास हो जाते तो आशा की कमान उनकी छोटी बेटी दमयंती संभाल लेती और खटाखट सवाल निकालकर बाप के समक्ष धर देती। बस, इसी बिना पर उसने पिता का सारा दुलार हड़प लिया था। बड़ी बहन एकदम बेदखल। सीधी बुद्धू सावित्री और भी सहम-सिकुड़ गई। सिकुड़ जाना स्वाभाविक था। दसवीं कक्षा को वह शुद्ध नकल के दम पर लांघ पाई थी, जिसमें दमयंती ने अपनी कुशलता और प्रतिभा का परिचय दिया था पर्चे हल करके परीक्षा-कक्ष में पहुंचाए थे।

सावित्री के किशोर जीवन में कभी कोई इस तरह की संभावना बन जाएगी, यह खुद उसने भी नहीं सोचा होगा। वह तो ग्यारहवीं के छमाही इम्तिहान में अनुत्तीर्णता का अनुष्ठान पूरा करके अपना बस्ता समेटने के बाद स्थायी रूप से घर की रसोई संभालने जाने वाली थी।

—लेकिन हिंदी मास्साब ने सबको हैरत में डाल दिया। जो लोग सावित्री जैसी ठस्स जेहन लड़की को जानते थे, उनके लिए यह खासे कौतूहल की बात थी। घोषणा ने सहपाठियों को कम और उसके पिता को ज्यादा स्तब्ध कर डाला सावित्री राय प्रवीण बनेगी।

नाटक हो या जीवन, कोई भी पिता अपनी बेटी को वेश्या के रोल में उतरते देखना चाहेगा? बशर्ते कि उसे राज्याश्रय जैसा गरिमामय आसरा न मिला हो।

गणित मास्साब गुस्से में सावित्री की कोई हड्डी चटका दें, उससे पहले प्रिंसिपल साहब ने उन्हें अपने ऑफिस में आदर सहित कुर्सी पर बिठाना शुरू कर दिया। मामला स्कूल की प्रतिष्ठा का था और मध्य प्रदेश सरकार के शिक्षामंत्री से भारी रकम की मंजूरी लेनी थी। नाटक के बहाने धनराशि उनसे ऐंठी जा सकती थी तथा जरूरतों को विस्तार से बताया जा सकता था। अभी तक ओरछा को पर्यटकों ने ही नहीं, मंत्रियों ने भी उपेक्षित कर रखा था। वे सब भाग-भागकर खजुराहो में विश्राम करना चाहते थे, भले कोई कन्या मंत्री क्यों न हो? पांच तारा होटल के साथ सब कुछ पांच तारा!

गोविन्द उस नाटक में राजा इंद्रमणि सिंह बना था। तभी वह सावित्री के इतने नजदीक आया था कि—याद है उसे सावित्री अपनी कुर्ती उतार रही थी। ऐसा जताया जैसे उसे क्या पता? उसकी नंगी पीठ सामने थी। वह क्या करे? अचानक मुड़ पड़ने के कारण मटमैले रंग की छोटी-छोटी छातियां। वह पगला-सा देखता रह गया। बिन छुए ही लगा था कि उसने हाथ धर दिया है, महीन रोम वाली ठोस छातियां—। मीठे ताप की लौ जल उठी थी। वही लौ सावित्री के सांवले चेहरे पर फैली थी। पेट पर होती हुई कमर तक गई थी। यकायक होश आया तो वह चिल्लाई ‘ए{{ धत्! भागो यहां से!’ गोविन्द एकदम से भागा।

उस बोली की सुरीली घंटियां आज तक कानों में बजती हैं। पीठ और छातियों के मखमली रोमों का अभिलेख गोविन्द की नजरों की मार्फत सारे ओरछा पर फैला हुआ है जिसको वह शब्दाेंं की सुरीली लय देकर पर्यटकों को मुग्ध कर देता है।

कंचना नर्तकी की बेटी सावित्री गीत-संगीत, गायन-वाद्य, कविताई और अनेक विद्याओं तथा राजसी तहजीब के चलते बात-व्यवहार की महिमा-गरिमा के निभाव में पारंगत हो गई। कवि केशव उसके गुरु थे। राजा की कृपा से सब सुलभ था।

नाटक में भाग लेने पर सावित्री अपने आप को राय प्रवीण ही मानने लगी। अपनी पूर्व स्थिति से उसका रूपांतरण हुआ। दरअसल यह उसके मन का वसंत था पलाशी खुमार भरी आंखें, तांबई कोंपलों-से अंग। राजसी रंग-ढंग, वैसे ही तेवर। मानो नाटक के बहाने खुलकर मैदान में आ जाना चाहती हो। गायन-वाद्य को लेकर गाने-बजाने का जुनून चढ़ गया।—लेकिन हारमोनियम बाजा कहां से आए? नाटक ही तो है, जरूरी है कि—मानो वह खुद से ही तर्क करते हुए बुदबुदाई। पर जिसको लागी हो लगन—? चमर टोले के सूरे का ध्यान आया और वहीं जा पहुंची। कोई ठहर सकता है सूरे के पास? वह भी एक मुलायम कोमल लड़की—। सूरे की देह पर मैल की मोटी-मोटी तहें चढ़ी रहती हैं। चीकट लटों में बेशुमार जूंएं। मुंह की दक्षिण दिशा से ढांय-ढांय तुपक के गोले कि आधा मोहल्ला बसा जाए। मटर की रोटी खाने वाला आदमी सभ्यता की किस हद तक अपने को साध सकता है?

सूरे को अपनी देह का भी होश कैसे रहे दृष्टिहीन आदमी। सावित्री के बाएं दूध से अपना घूंटा रगड़ता रहता था। ‘आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की’ तक तो वह अंधा सावित्री की शलवार तक हाथ चला चुका

था।—मगर सावित्री की देह में राय प्रवीण का वास था, राजा और सूरे में क्या भेद? दोनों ही अपनी कीमत वसूल करे बिना मानेंगे भला?

कंचना नर्तकी की बेटी वीणा बजाती तो महल झंकृत हो उठता। कविता करती तो विद्वान् दांतों तले उंगली दबा लेते। प्रसन्न होकर राजा इंद्रमणि सिंह ने सावित्री को ‘राय प्रवीण’ का खिताब बख्शा। अपनी रानियों से ज्यादा सम्मान दिया। उसको पाकर अपना जीवन धन्य समझा।

गणित मास्साब विधुर आदमी! बेटी की बेजा हरकतों से तंग आ गए। सावित्री की संगीत विद्या समाप्त होने पर न आती थी। इधर धीरज जवाब दे गया। एक दिन वे किचकिचाते हुए चमर टोले पहुंचे और ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी’ गाती हुई सावित्री को झोंटा पकड़कर घसीट लाए। गली में स्त्री-पुरुष तमाशा देखने निकल आए।

राजा इंद्रमणि सिंह के संवाद रटते हुए गोविन्द के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा हे अध्यापक पिता! तू समाज में सम्मान पाता है, तुझसे तो अच्छी वह वेश्या थी, जिसने अपनी बेटी को तरह-तरह की विद्या सीखने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था। बस, इसी जिद में कि राजा इंद्रमणि सिंह से एक अध्यापक बाजी मार रहा है, गोविन्द ने सावित्री को साइकिल चलाना सिखाया था और महसूस किया था, राय प्रवीण घोड़े पर सवार है। वीरता अपने आप ही झलकने लगी थी सावित्री के चेहरे पर।

नाटक हुआ राजा  इंद्रमणि सिंह के राज्य में सब जगह शांति और आनंद था। ओरछा छोटा सा नगर था, मगर बड़ा सुंदर था। बेतवा नदी का पानी अमृत के समान था। पहाड़ी पर ऊंचे-ऊंचे करधई खैर के वृक्ष, पलाश, दूधी सेमल और कदंब के फूलों से शोभायमान वन, करौंदी के सघन कुंजों से बहती मादक बयार, जहां पशु-पक्षी ही नहीं विचरते, ओरछा जन भी निर्भीक रमण करते थे। मंदिर का ऊंचा शिखर और किले की सुदृढ़ प्राचीरें। घर-घर गायें और पिंजड़ों में तोता-मैना थे, पिछवाड़े बगीचा।  सूत्रधार घोषणा करता है।—

मगर शांति में व्याघात।

इंद्रमणि सिंह का छोटा चचेरा भाई पहाड़सिंह गद्दी हथियाना चाहता था। इसलिए उसने एक युक्ति चलाई। बादशाह अकबर से मिलने चला गया, साथ में था एक बहुमूल्य संदेश। पहाड़सिंह जानता था कि बादशाह अकबर की कमजोरी क्या है। हरम में अनेक पत्नियां-उपपत्नियां होने के बावजूद वह आदमी औरत के लिए ललचाता रहता है। और कला के नाम पर हिंदू स्त्रियां रंडियां बनाई जाती हैं। राय प्रवीण के बारे में बताया जाएगा तो आपे में नहीं रहेगा। सो बस, अकबर को लालची मानकर घी में भीगी रोटी का टुकड़ा दिखाया पहाड़सिंह ने और अपने लिए बर्बर लालच खरीद लेना चाहा।

अकबर लपक पड़ा। पहाड़सिंह का मकसद सिद्ध हुआ क्योंकि राय प्रवीण से अलग होकर राजा इंद्रमणि सिंह प्राण त्याग देंगे, यह पक्की बात मानी जाती थी।

सच में ही जब यह संदेश पहुंचा कि राय प्रवीण को आगरा के लिए रवाना किया जाए, नहीं तो ओरछा राज्य को तहस-नहस कर दिया जाएगा। मोहर-अशर्फियों का नजराना भी देना होगा। सुनते ही इंद्रमणि सिंह पीले पड़ गए।

जल्दी से जल्दी आपातकालीन बैठक बुलाई। दरबारियों से मशवरा किया गया। सभी ने एकमत होकर कहा महाराज, नाचने वाली के पीछे आप ओरछा को नष्ट करा देंगे! हमें यह मान्य नहीं। आप इस आफत की पुडि़या को जल्दी से जल्दी अकबर के दरबार में पेश कर दें, जिससे राज्य में अमन-चैन कायम रहे।

इंद्रमणि सिंह ने सबकी सुनी, लेकिन की अपने मन की। जो स्वप्न में भी न सोचा हो, उसे हकीकत में बदल दें? नहीं, यह संभव नहीं। उन्हें न दिन में चैन, न रात को नींद। राय प्रवीण रोज की तरह वीणा बजाकर उन्हें सुलाने के लिए आई तो राजा फों-फों करके रो पड़े।

दिन में संध्या-समय आनंद मंडल बाग में जब राय प्रवीण उनके साथ विहार करने निकली तो राजा की टांगें लड़खड़ा रही थीं। पगड़ी और अंगरखी मैली-मैली सी—। वह हाथ पकड़कर उन्हें गुलाब बाग में ले गई तो राजा ने दुःख भरी आवाज और कातर निगाहों से पूछा फ्प्रवीणा, बाग की रंगत क्या हुई?

राय प्रवीण विकल हो गई। आज राजा कैसी बात कर रहे हैं? क्या ऐसे हताश हो गए?

आपको बिछोह इस कदर सता रहा है! मैं आपको छोड़कर उस म्लेच्छ के पास हरगिज नहीं जाऊंगी। आप देखते हैं यह किला? मेरा प्रेम ऐसा ही दुर्भेद्य है। अकबर हार जाएगा।

—मगर धमकी पर धमकी आ रही थी। राजा ने कवि केशव को बीरबल के पास भेजा कि हिंदुओं की रक्षा और स्त्रियों के शील को बचाने के लिए वे क्या कर सकते हैं?

—लेकिन बीरबल? माना कि वे यवन नहीं थे, पर यवनों के गुलाम तो थे। केशव से मुलाकात करने से इनकार कर दिया बहाने के रूप में। राजा चारों ओर से निराश हो गए, फिर भी राय प्रवीण को अपने प्राणों की तरह ही नहीं छोड़ना चाहते थे।

सेनाएं ओरछा की सीमा पर आ गईं। तोपें दागी जाने लगीं। त्रहि-त्रहि मच उठी।

इंद्रमणि सिंह ने आंख-कान बंद कर लिए।

राय प्रवीण को धक्का लगा मेरे कारण समस्त राज्य नष्ट हो जाएगा? बेतवा के पवित्र जल में खून बहेगा? औरतें बेआबरू होंगी? बच्चे अनाथ? ओरछा मिट जाएगा तो मैं कहां—ओरछा है तो राय प्रवीण है।

महाराज, मुझे आजाद करो। मैं आपकी रानी नहीं, पत्नी नहीं, वेश्या हूं। वेश्या स्त्री होती है, मगर आजाद स्त्री। मेरा हक मत छीनिए। हां, इतना अवश्य है कि जहां तक वश चलेगा, आपके पास पवित्र, शील और धर्म की रक्षा करती हुई लौटूंगी।इन्द्रमणि सिंह तड़प उठे।

राय प्रवीण आगरा के लिए रवाना हो गई। उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

जगमगाते दीवाने-खास में तख्तेताऊस पर बादशाह अकबर और कुछ छोटी गरिमा वाले रत्नजडि़त सिंहासन, जिन पर आजू-बाजू नवरत्न बैठे हुए थे। तो ये हैं, जिनका मकसद भोग, मजा और लूट है!

नवरत्नों ने कहा अपरूप! अकबर ने उसकी कवित्त में प्रशंसा की।

राय प्रवीण ने कवित्त में ही उसका धन्यवाद किया, लेकिन मन ही मन सोचा कला को बेचने वाले ये अपने ही लोग मेरी आबरू को भी नीलाम होते देखने के लिए बेसब्र हैं। यदि सचमुच ही ये विद्वान् थे तो बीरबल ने अपना हाथ क्यों खींच लिया? कोई विद्या भी आदमी को डरपोक बनाती है? या तो ये विद्वान् नहीं, या फिर अपने नहीं। सत्ता के गुलाम हैं बस! दोनों ओर से कविताई चली। कवि केशव की शिष्या को हराने वाला भला कौन था?

अकबर हार गया या हार जाना चाहता था? रूप के आगे अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनि धराशायी हुए हैं। अंत में बादशाह ने बड़े विनय भाव से यह कहा हूर, तू निपुण है, कुशल है, नौ कलाओं और चौंसठ विद्याओं में पारंगत है। अपना जीवन ओरछा जैसे बीहड़ गांव में बरबाद न कर। तेरी जगह दिल्ली और आगरा में है।

राय प्रवीण हिम्मत से खड़ी रही, पर भीतर ही भीतर कांप गई। उसको अपनी माता कंचना की याद आई, जो ग्वालियर की राजनर्तकी थी, लेकिन मधुकर शाह ने बलात् ओरछा में ही रोक लिया था।

राय प्रवीण क्या करे, उसकी जन्मभूमि ओरछा है। उसकी कर्मभूमि ओरछा है। उसका सर्वस्व ओरछा है। सोच-विचार में उलझी रही। अकबर अपने बादशाही रुतबे के चलते जल्द से जल्द उसकी ‘हां’ सुनना चाहता था।

कवि केशव की गुनाई हुई सावित्री को युक्ति सूझी। खड़े ही खड़े दोहा रच डाला और हिम्मत से सुना दिया:

विनती राय प्रवीण की, सुनिए चतुर सुजान।

जूठी पातर भखत हैं, बारी वायस स्वान।।

हे बादशाह, मैं राजा इंद्रमणि सिंह का जूठा भोजन हूं। और जूठा भोजन तीन जातियां ही खाती हैं मेहतर, कौवा, कुत्ता। कहकर अर्थपूर्ण निगाह से देखा अकबर की ओर, नवरत्नों की ओर।

दरबारी हतप्रभ थे। अकबर का थूक सूख गया। बीरबल को कोई तर्क न सूझा। अकबर ने शर्मिंदगी  और ग्लानि से बचने के लिए राय प्रवीण को मोहर-अशर्फियां देकर विदा किया। सावित्री को इतनी तालियां मिलीं कि उसका सिर ऊंचा हो गया। अब गणित में फेल हो जाने का उसे कोई गम न था।

नाटक संपन्न हुआ तो रात हो चुकी थी। केवल एक ही लट्टू टिमटिमा रहा था। सावित्री पड़ोसिन भाभी से मांगा हुआ लहंगा-दुपट्टा बांहों में चपेटे अपने घर की ओर चली जा रही थी कि गेंदा की फूल झाड़ी से आवाज आई ‘राय प्रवीण, जानेमन!’ जिसके साथ महीनों अभ्यास किया हो, भला आवाज पहचान में न आएगी? बलदेव नाटक का अकबर। जवाब दे ही रही थी कि पतंगे की तरह उड़ते हुए पिताश्री दिखाई दे गए।

अकबर से नहीं, वह बाप से डरी और इतनी डरी कि बांहों में भिंचा लहंगा-दुपट्टा गीली क्यारी में गिर गया। फिर पिता की दहशत भी न रही, सौ चिंताओं की एक चिंता कि ओढ़नी मैली हो जाने और लहंगा लिथड़ जाने के लिए जवाब क्या देगी? जान से कीमती राय प्रवीण का लहंगा—

सावित्री भले ही खुद को राय प्रवीण मानती रहे, क्योंकि इंद्रमणि सिंह थे, अकबर था, केशव थे, बीरबल थे।—मगर जमाना तो वह न था।

सूरे चमार से देह से देह भिड़ाकर बाजा बजाया है। बेतवा के उस पार जंगल वाले मैदान में छिनट्टा गोविन्द के संग साइकिल पर सवार हुई चौलमौल करती फिरी है।

गुलाब बाग महल की सीढि़यों पर दिन के बखत पकड़ा महल के प्रबंधकार ने।

रूपलोभी प्रबंधकार महालुच्चा। गोविन्द को गाइड किसके दम पर बनाया है? सावित्रिया के करिहा (कमर) के दम पर ही न? रंडी छोत!

वही बात की रांड का पूत बिगड़े, रंडुआ की धिय।

सावित्री के पास इन सवालों के सचमुच ही जवाब नहीं थे। पिता पूछ-पूछकर थक गए। उसने एक हरफ भी न कहा। बेटी के बाप की नाक काट लेने के लिए इस तरह की एक ही कटारी काफी होती है, यहां तो तीन-तीन तलवारें लटका दी गईं। इतनी बिगड़ी हुई लड़की के लिए जगह कहां है? पिता तय नहीं कर पा रहे थे और लोगों का सामना करने की हिम्मत उनमें थी नहीं। उन्होंने सावित्री को कुछ न कुछ बहाना लेकर मनमाने तौर पर पीटा। छोटी बहन बचाती थी तो गणित मास्साब रोने लगते फों-फों। उन्हें दौरा-सा पड़ जाता अपनी मृतका पत्नी को पुकारते कातर स्वर में तुम जहां कहीं हो, चली आओ। इस बिगड़ैल घोड़ी के मुंह में लगाम डालकर खींचो। घर के कोठे में बंद कर दो और हर चौकस पहरेदारिन मां की तरह चौकीदारी करो। मैं तब तक लड़का खोज लूंगा इसके लिए। वहां बदचलनी करेगी तो अपने आप दागेगा। मेरा जीना हराम कर दिया। यह बेटी के रूप में नागिन चांडालिनी—

कारगर उपाय केवल ब्याह। एक हाड़-मांस का मर्द मिल जाए बस। वे इस वजनी गठरी को उसके दरवाजे पटककर गंगा नहाने जाएंगे।

गोविन्द ने सुना तो लगा कि इस सुनहरे मौके पर वह अपने आप को पेश कर दे। लेकिन नाटक का नायक गणित मास्साब के हिसाब से सावित्री की दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक था। लड़की को कड़ी से कड़ी सजा देंगे। हो सकता है, सोती हुई का गला ही घोंट डालें। गुस्सा बुरी चीज होती है, वह भी समाज से तिरस्कृत होने का गुस्सा। सावित्री की जिंदगी अहम हो गई थी उसके लिए, नहीं तो काम बड़ा आसान हो जाता—मगर वह राजा थोड़े ही था!

सावित्री का संजोग और गणित मास्साब का भाग्य। ओरछा से बीस मील आगे बेतवा की ओर को गांव है फतेहपुर। वहीं का वीरेन्द्र मिल गया वर के रूप में। कक्षा नौ में तीन बार फेल होने के बाद खेती संभाल ली थी। छोटी पूंजी का आदमी। मास्साब के लिए इस समय यही बेताज बादशाह था। फिर भी माथे पर हाथ मारकर विलाप-सा करते रहे थे सावित्री, अपने हाथों ही फोड़ लिया मुकद्दर। क्या जरूरत थी इतना उड़ने की? जात-कुजात में जा बैठने की? उस आवारा-लुच्चे की संगत करने की? बेटी—आज तू राजरानी होती। प्रिंसिपल साहब ही अपने लड़के के लिए—सोच ले, आज हमारी क्या कीमत होती?—पर फूटी मटकिया कौन ले जाएगा अपने घर? बस, वीरेन्द्र जो तेरे योग्य कतई न था, पर वही—फूटी मटकिया।

पिता की गरदन हलकी हुई। सावित्री सिर का बोझ ही नहीं, घर का, गांव का बोझ थी, चली गई।

गोविन्द ऐसा प्रेमी नहीं था कि दीवाना हो जाए। नाटक न खेला होता तो कौन सावित्री? कहां की सावित्री?

हां, इतना जरूर कि उसके दिल से रह-रहकर आवाज आती, सावित्री वजनी गठरी नहीं, बुद्धिमती लड़की थी। परंतु खलनायक की बात, उलटी करके ही ली जाती। सो चुप लगा गया।

सावित्री ने फतेहपुर में अपना घर संभाल लिया। यह साबित कर दिया कि ओरछा के लोगों ने अपने गंदे मुुंहों से जो बदबू उड़ाई थी, वह उन्हीं के दिलों की गंदगी थी। परनिंदा की सुगंध मनुष्य-स्वभाव। लोग सुख लूटते रह गए।

सावित्री मेहनती थी। मेहनत किसे प्यारी नहीं लगती? वह फतेहपुर में रम गई। ढोर-बछेउओं से लेकर घर-आंगन, पुरा-पड़ोस और पति की प्रिय बन गई। मां का साया बचपन में ही सिर से उठ गया था, आस-पड़ोस की बड़ी-बूढि़यों से नाता जोड़कर सुखी थी। खुद भी भौजी-भाभी बनी डोलती। वीरेन्द्र के कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करना उसे अच्छा लगता था। रोपाई-निराई के लिए कभी मजूर नहीं लगाने दिए। कौन कहेगा कि वह इंटर कॉलेज से ग्यारहवीं पास लड़की है? कि गणित मास्साब के घर उसने चूल्हे पर खाना नहीं बनाया, कुएं से पानी नहीं भरा, गोबर नहीं पाथा, किसानी नहीं की। हर हाल में सुख ढूंढ़ लेने वाली सावित्री का अपना ही संसार। घर का चौक ही गुलाब बाग बना लिया।

उस साल वर्षा का मौसम था। रोज-रोज पानी बरसता था। आकाश में काले-सलेटी बादल छाए रहते। घटाटोप अंधियारा घिर आता। दिन में भी रात—

बेतवा का जल बढ़ने लगा। मेह की दो बूंदें भी डराने के लिए काफी थीं।

खेतों में फसल का बीज गल-गलकर मर रहा था।

बेतवा और बढ़ी। जल और फैला। सीमा घेर ली। गांव के किसान थर्रा गए।

अनिष्ट! प्राकृतिक आपदा! भगवान् को सुमिरने के अलावा चारा क्या था? संकट की घड़ी को काटना—सावित्री कड़कती हुई बिजली और बरसते पानी को भयातुर आंखों से देखती।

 

राय प्रवीण

कि बेतवा ने रात के समय अचानक जोरदार हमला किया। तेवर बदल लिए। क्रोधित होकर उफनने लगी। रात ही रात में फुफकार मारता हुआ पानी गुस्सैल सर्प की तरह बढ़ा चला आ रहा था। तेजी से गांव में घुस आया। गलियां डूबने लगीं। दुकानों के चबूतरे भीग गए। घरों की पहचान खोने लगी। मंदिर और प्राइमरी स्कूल में पानी ही पानी—

सवेरा होने से पहले ही गांव जगर-मगर हो उठता था। सावित्री अपनी गाय-भैसों को सानी खिलाकर दुह लाती थी। कच्चे दूध की गंध से महमहा उठता था बरौठा।

पानी सब कुछ लील गया। गांव अनपहचान—हाहाकार और खामोशी। बड़े-बूढ़े ढहकते हुए रूख पेड़ों-से बदहवास। जवान लोग, जो मेहनत करते थे, पेड़ों पर जा छिपे। बच्चे, जो गलियों में फुदकते फिरते थे, चीखें मारकर मां की छातियों से चिपट गए। मांएं अपने छिपने की नहीं, बच्चों की हिफाजत की जगह नहीं खोज पा रहीं। चिंता में पानी को चीरती हुई इधर-उधर भाग रही हैं, घिरी हुई गायों की तरह—

घर में रखे अनाज को बचाने के लिए तमाम उद्यम किए, सावित्री दो पोटली ही चढ़ा पाई छत पर। आग और पानी का प्रकोप किसी को जिंदा छोड़ता है? नदी दीवारों को रौंदने लगी। दुहाई बेतवा मइया यह तबाही—! अपने पाप-पुण्य याद करने लगा आदमी।

पेड़ों पर बैठे लोग सुरक्षित थे, मगर पेड़ ही खड़े नहीं रह पाए। छतों पर चढ़ी औरतें अपने बच्चे बचाए हुए थीं, लेकिन दीवारें दगा दे गईं। आदमी लाशों में तबदील होने लगा।

सावित्री पुकार रही है काकी, तुम कहां हो? पोले बब्बा को आवाज दो। रमेशा की अम्मां…आ—तुलसी फुआ…! अरे कपूरे कक्का, मीतो को यहां भेजो।

कोई नहीं बोलता। नाते और प्रीत-प्यार के रिश्तों पर गंदला पानी भंवर मारकर चढ़ बैठा। भंवरों की चालाकी के मारे हारते बहते पशु, गायें बां बां करती हुई तैरने का हुनर खो बैठीं। कुत्ते-बिल्ली बह गए।

सावित्री की धोती में एक तार भी सूखा नहीं। सिकुड़ी-सहमी सी वीरेन्द्र के पास खटिया से लगी धरती पर बैठी हुई कच्ची-पक्की छत को ताक रही है। पता नहीं छत भी कितनी देर का आसरा—

वीरेन्द्र ने सावित्री की बांह पकड़ ली। भय में प्यार भरा हाथ दिलासा दे रहा है। जानती है कि दिलासा आदमी तभी देता है, जब वह बेहद निराश हो। पति की आंखों से झरती दहशत को क्या वह देख नहीं पा रही? सावित्री ने आंखों ही आंखों से हिम्मत भरनी चाही। सांसों से सांसों तक ताप पहुंचाया। हम जिएंगे या मरेंगे, मगर एक साथ और इस संकट से लड़ेंगे साथ-साथ।

वीरेन्द्र के माथे में दर्द है। सावित्री लेटे हुए पति के माथे पर हाथ धरे बैठी है।

सामने तीन-चार पक्की अटारियां हैं गांव के बीच दाएं-बाएं छिटकी हुईं। वह ललचाती हुई नजरों से देखकर सोचती है पैसे वाले लोगों का बेतवा भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती। इंद्र भगवान् भी उन्हें नहीं डरा सकते। सबका जोर-जुल्म कमजोरों पर—कच्ची भीतों और मिट्टी के ओटलों पर—

तीन दिन गुजर गए, पानी नहीं उतरा। मौत ने नंगा नाच मचाया है। कितने बच पाए? छत पर टंगे लोगों को धरती का नहीं, आसमान का आसरा है इंद्र भगवान् ने अपना भंडार रिता दिया हो तो अब बस करो? अब हमारे पास क्या है? लत्ता, कपड़ा, बिलिया-बासन तक चढ़ा दिए तुम्हारी धारा में। छीन ले गई बेतवा, जिसकी हमने सदा पूजा की। नदी लील रही है लोगों को।

चौथे दिन अंधियारे भरे भोर की वेला किसी की आवाज आई, फ्राहत कैंप खुल गया है। मदद आ रही है। हेलीकॉप्टर पैकेट गिराएंगे।

बस्ती की हर जीवित आंख आकाश पर जा टंगी। हेलीकॉप्टर टिड्डी की तरह चक्कर काटते रहे। कुछ देर के लिए गांव वाले बाढ़ को भूल, देवताओं के विमानों को देखते रहे। कहते हैं, भगवान् के दर्शन होने पर आदमी जगत्-माया भूल जाता है। भूखे-प्यासे पानी से घिरे आदमी सच में ही अपनी बुनियादी जरूरतें भूल गए। आसमान में उड़ने वाले लोग—देवता ही होंगे। सम्मोहित कर रहे हैं।

बुखार से तपते हुए वीरेन्द्र के कान के पास मुंह ले जाकर सावित्री फुसफुसाई, अब  कुछ खाने को मिलेगा। ताप सिरा जाएगा फिर। आंखें खोलो। राहत आ रही है।

हेलीकॉप्टरों को देखकर क्षण-दो क्षण के लिए भूले थे, उनके गायब होते ही फिर आ दबोचा भूख ने।

पानी उतरने लगा। सारी कुरूपता उघड़ गई! नंगा-संसार—गिजगिजाता हुआ।

गाय-भैंसों, कुत्ते-बिल्ली, मर्द-औरतों और बच्चों की मिली-जुली लाशें। रोने की ताकत न थी। आंखें सूखी, वीरान—मगर भूख बड़ी बेरहम है, लाशों के ऊपर तांडव मचाए है। आंतों में बड़े-बड़े कांटे हैं, जो भीतरी तहों को फाड़े दे रहे हैं। आदमी क्या-क्या खाने को तैयार है, कहते नहीं बनता। बस चले तो आपस में ही एक-दूसरे को चबा लें।

आदमी नहीं, जीव-जंतु, ढोर-पशु—चौरासी योनियों का भेद मिट गया—कीट-पतंग की नाईं मंडरा रहा है आदमी कि भूख भरी जिंदगी नहीं छोड़ रही उसे?

मल्लाह टोले में मछली की जगह सांप खाए गए। जो बाढ़ से बच गए थे, सांप के जहर से मरे। बकरी-भैंसें काटी गईं।

सावित्री ने दो पोटली अन्न बचाकर रखा था, लोग कच्चा ही चबा गए। उसके बाद पेड़ों के पत्ते, नीम की निमकौड़ी, पीपल के फल।

बजबजाती गंदगी में खाना, रहना। सूअरों की तरह लोटना। कमर ने दम छोड़ दिया है।

राहत कैंप! स्त्री-पुरुषों की भीड़ मुर्दों को फलांगकर भागी जा रही है। अपनों को चिता देने से पहले पेट भरने की चिंता। मरे हुओं से नाता कब मानती है जिंदगी? जीवन से ज्यादा कठोर कुछ नहीं—

नंगे-अधनंगे लोगों को पता चला कि ऐसे ही कुछ नहीं मिलेगा, जिसके पास जो कुछ है, पहले उसे काम में लाओ। काकी की गाय, रमेश की अम्मां की बकरी, रूपा महतर की तीन मुर्गियां पता नहीं कैसे बच गईं। पोले बब्बा के पिंजड़े में तोता।

तोता कौन खरीदेगा? लोहे के भाव पिंजड़ा बिक जाएगा। लोहे का मोल है।

गांव के बड़े लोगों ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। ट्रैक्टर में ठिलिया लगा ली। वे हरिजन टोले से गरीब औरतों को ले जा रहे हैं, यह भी जरिया है राहत लेने का। भूखी-प्यासी, मजबूर, कमजोर, बीमार औरतें कैंप तक पहुंचने की भरपूर कोशिश में जुटी हैं। वे अन्न नहीं, जिंदगी लेने जा रही हैं।

कपूरे कक्का की औरत ताप से मर गई। आठ-नौ साल की मीतो छोड़ी है। मीतो कल से ही रो रही है। भूखी है कि मां का बिछोह? कपूरे कक्का मीतो के मरने की दुआ मांग रहे हैं। भूख से तड़पना नहीं देखा जाता। यही नाता बचा है बाप-बेटी के बीच।

वीरेन्द्र का चेहरा देखकर सावित्री का दिल घबराने लगा। उसकी अपनी ही हालत कौन सी ठीक है? भीख मांगने जाए तो कटोरा फैलाकर रह जाएगी, आवाज निकलेगी भी कि नहीं? पूरे मोहल्ले पर निगाह डाली मरघट से भी ज्यादा भयावना सुनसान—आगे कोई रास्ता नहीं—सावित्री छोटा सा घूंघट करके चल दी। चलते-चलते टैक्टर की ठिलिया से जा लगी।

सावित्री की जाति की कोई औरत नहीं जा रही। ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर और यादवों की औरतें जाती हैं कहीं? उनके आदमी सब बंदोबस्त कर लाएंगे। ऊंचे लोगों की बात जरा दमदार होती है। अहलकार भी लिहाज करते हैं। फिर साथ में नीची कौम की औरतें हैं तो सही। लोगों ने उसे अजीब नजरों से देखा। आपस में कानाफूसी की। कोई-कोई हंसा भी।

सावित्री ठिलिया में बैठ गई। मरती हुई औरतों ने देखा तो सिर हिलाकर रह गईं।

रास्ते में तमाम लोग लौटते हुए मिले। कीचड़-सने आदमी। मैली-कुचैली औरतें। उनके सिरों पर छोटी-छोटी पोटलियां थीं। तेल की बोतलें थीं खाली या भरी? औरतें थीं डगमग चलती हुईं। अनपहचान, गंदी, सनी, लिथड़ी-सी।

कस्बे के इंटर कॉलेज का फाटक। फाटक के भीतर चौक। चौक के चारों ओर दालान। बाढ़ के कारण पढ़ाई ठप है। सरकारी रसद रखने की सुरक्षित जगह। आटे और चीनी की बोरियां कमरों में चिनी हैं। डबल रोटी, बिस्कुट और मूंगफली के पैकेट। दियासलाइयों के बंडल। मिट्टी के तेल के पीपे। लकड़ी की पेटियों में दवाएं।

और सामने खड़ी हैं जरूरत के मारे लोगों की कतारें।

लाइन में लगे लोग दाएं-बाएं से, पंजों के बल उचककर खाने-पीने की चीजों के, जिंदगी के लिए जरूरी सामान के दर्शन कर लेना चाहते हैं, जैसे उन सबके प्राण बंधे हों उन बोरियों-बंडलों में और आंखों से देखकर ही खींच लेेंगे जीवन के लिए सत्त।

आजू-बाजू की मैली-लिथड़ी कतारों के बीच एक कतार में सावित्री खड़ी हो गई।

सामान वाले कमरे की किवाड़ें पूरी नहीं खोली गईं। शायद भूखे-नंगे लोगों का डर है, कहीं वे लूट न लें। जबकि खाकी वर्दी पहने कमजोर-सा एक आदमी लाइन में लगे लोगों को चाहे जब डंडा कोंचकर आगे-पीछे ठेलने लगता है। तड़ाक से मार भी देता है। इस समय लोगों के चलते सारे देश का मालिक यह कमजोर आदमी है, जिसके हाथ में सरकारी डंडा है। लोगों में अपने दर्द को पी जाने की लाचारी के सिवा कुछ शेष नहीं रहा। सबसे अच्छे अनुशासन का नमूना यहां है। इतनी बड़ी भीड़ मरियल-से आदमी के काबू में है। वह न भी होता, तब भी कोई अंतर नहीं पड़ता। सब कुछ इसी तरह चलता। निर्बल लोग बिना हिले-डुले कतारों में खड़े रहते। वे बाढ़ में घिर जाने के अपराधी हैं, इसलिए आज्ञा मानकर भी डंडा झेल रहे हैं। शायद इनकी सहनशक्ति में अन्न मिलने की आशा शामिल है।

अन्न-भंडार के तराजू चलने की आवाज तो आ रही है!

सौदा तुल रहा है। सौदागर घूम रहे हैं।

सरकारी आदमी के वेश में खरीदार—गांव के लोगों में कानाफूसी हो रही है।

भूख चौकन्नी होती है। अपने अन्नदाता को ताड़ लेती है।

नंगे-भूखे कान देकर माई-बापों का हुकुम, उनकी फरमाइश, उनकी पसंद सुन रहे हैं। कुछ बातें ऐसी हैं कि ऐंठती आंतों वाले कंधे झुकाए हुए लोग यकायक तनकर खड़े हो जाते हैं। उनकी आंखों में लपलपाती-सी कौंध जागती है, पर शीघ्र ही आग बुझ जाती है और वे सिर झुकाकर खड़े रह जाते हैं।

औरतें कितनी हैं फतेहपुर की? (फुसफुसाहट)

ढोर-डंगर, बकरी, तोता नहीं। (स्पष्ट आवाज)

औरतें। डेंगू बुखार, दस्त, उलटी, जहरीले पानी से हुई खाज-खुजली की मारी हुई नहीं। समझे? सूखी ठठरी बुढि़या भी नहीं। (फुसफुसाहट)

सावित्री की पांचों इंद्रियां जागृत हो गईंµयह राहत? राहत मिलेगी तो?

सरकारी लोगों ने कि राहत कैंप के ठेकेदारों ने गांव के बड़े लोगों द्वारा ठिलिया में भरकर लाई हुई सड़ी-गली लकड़ी-सी हलकी औरतें एकदम खारिज कर दीं। गांव के भले लोग असहाय-से देखते रह गए। वे क्या करें, अपनी ओर से खूब कोशिश कर ली, सरकारी मामला। सरकारी लोग नेता लोगों के मुंहदेखा ठहरे। नेता लोग जनता के सेवक हैं, लेकिन इलाके के दादाओं के एहसानों तले दबे हुए—दादा लोग जानते हैं, किसको जिंदा रखना है, किसको भूखों मार देना है? रसद बचेगी तो बेच दी जाएगी, लेकिन अनुपयोगी लोगों को किसी कीमत पर नहीं दी जाएगी। अन्न को बरबाद करती है आबादी।

वह खड़ी-खड़ी सुन रही है। जितना पल्ले पड़ रहा है, समझ रही है।

उसके भीतर स्वतः ही हाहाकार मच उठा। जिनकी मौत पर मुख खोले मौन रह गई थी, उनके लिए पछाड़ें खाने का मन हो रहा है ओ श्यामू की बहू—अभागिन बाबा (नाग) डस गया! रमेश दाऊ जू वाली जिज्जी, तुमको हैजा लील गया! सरजू तेलिनियां—बेतवा संग बहा ले गई। रतिया, रामदेवी, विमला—आग लगी—आज तुम्हें होना था मेरे संग, यहां—इन लोगों को जी भरकर खुश करते हम और गोदाम खाली करा ले जाते। सबके सब पेट भरकर खाते। गांव में घर-घर गीले चूल्हों से धुआं उठता। गली-गली गमक उठती। रोटी की बास ने चपेट लिया सावित्री को।

फ्ओ, बाबा आ! अच्छे कपड़े पहने हुए एक आदमी कपूरे कक्का को इशारा करता है। कपूरे कक्का बाबा नहीं, भूख के कारण कमर झुक गई है। पीठ से पेट चिपक गया है। देह पर केवल एक पंचा लिपटा हुआ है। कपूरे कक्का की बगल में उनकी बच्ची मीतो खड़ी है। पुकारने वाला कक्का को नहीं, मीतो को देख रहा है। झीनी फ्रॉक में सपाट छाती से फिसलती हुई नजर उसकी जांघों पर—

राय प्रवीण ने खबर सुनी कि अगर वह आगरा नहीं गई तो ओरछा का एक-एक आदमी मौत के घाट—खून-खच्चर।

सावित्री ने बेचैन निगाहों से इधर-उधर देखा। नाता-रिश्ता, लाज-लिहाज त्यागकर छोटा सा घूंघट भी उलट डाला। कपूरे कक्का से बोली, मीतों  को लेकर गांव लौट जाओ आप!

देखने वाले को सावित्री पसंद आ गई है, वह नजरों से भांप गई। ज्यों तोल रहा हो भूखी है, पर ठीक-ठाक है। नहाएगी-धोएगी तो रंग भी निखर आएगा। काठी में दम है। चेहरे पर सलोनापन है। उम्र भी ज्यादा नहीं—तोल रही हैं नजरें, तुल रही है सावित्री। तराजू चल रही है।

राहत कैंप है, हर किसी को राहत चाहिए। अन्न वालों को अन्न, गोश्त वालों को गोश्त। गांव में तो वैसे ही अदला-बदली का रिवाज होता है। चावल-चीनी, गुड़-तेल सब अनाज के बदले।

सावित्री आगे बढ़ती चली गई।

राय प्रवीण सोचती है, इस दरबार में कवित्त, दोहे और छंद काम आने वाले नहीं क्योंकि यहां कोई यवन बादशाह अकबर नहीं। ये जूठन खाने वाले पंडित जूठन की भी जूठन पचा जाएं।

चमकदार दुनिया नहीं है यहां। सादा पलंग पड़ा है। सादा मटमैली-सी चादर, वैसा ही तकिया। फूल न गुलदस्ता, कमरे की दीवार पर गांधी और इंदिरा गांधी की तसवीर लगी है। एक ओर मां सरस्वती टंगी हुई हैं। नाटक खेलते समय वीणावादिनी वर दे—

नहाना  है पहले। किसी पुरुष-आवाज ने हुक्म दिया।

खुशबूदार साबुन मिलता है। साथ में एक धोती भी है। पेटीकोट-ब्लाउज पहनने की जरूरत नहीं। युद्ध के पहले सैनिक की तरह सजेगी वह।

कमरे में आई तो बेहद सादा, मगर उजले कपड़े पहने हुए एक भारी बदन सांवले सज्जन हैं, उम्र होगी पैंतालीस। क्या इनकी पत्नी इतनी ठंडी है कि ये इस तरह—वे शांत चेहरे से मुस्करा रहे हैं। इशारा दिया इधर आओ। सावित्री का बदन बराबर कांप रहा है।

सहमती हुई आगे बढ़ रही थी, ज्यों शेर की मांद में जा रही हो। कलेजे में ढोल की-सी चोट—। झपटकर पकड़ ली। उसने कोई प्रतिरोध नहीं दिखाया। विरोध दिखाने की हकदार ही कहां है? अपने हाथों किया सौदा—‘जितना चाहोगी भिजवा देंगे’, जैसे देवताओं ने आकाशवाणी की हो। उसके कानों में संगीत-सा बज उठा। आनंद पैदा करना चाहा था ‘उन्होंने’, इस समय अन्न ही सबसे बड़ा आनंद है। और उसका स्वर्ग-नरक सब कुछ हैअन्न।

बांहों में भींच ली। बिस्तर पर पड़ी है चित। पहाड़-सा नंगा बदन ऊपर लद गया। वह भी नंगी है। दो प्रजनन अंग टकराए काम जारी हो गया।

वह खिड़की से उस पार देखना चाहती है, जहां चांद निकला होगा।

रोटी के आकार का चांद। व्यभिचार, पाप, अधर्म से निकलता हुआ रोटी बराबर चांद। बहुमूल्य, बेशकीमती, जीवन देने वाला पूरा चंद्रमा। इसके सिवा उसके ध्यान में कुछ भी नहीं आ रहा। यहां तक कि ऊपर चढ़े सज्जन व्यक्ति का विजयी चेहरा भी रोटी की शक्ल में तबदील हो गया—आकार गोल गोल गोल!

लोग आते गए। वह धोती बदलने भी उठी थी, मगर गौर नहीं किया कि वे कौन लोग, कितने आदमी—बस, इतना ही याद रह गया कि वे उजले और बड़े लोगों जैसे थे, जो चमचा भर पानी उड़ेलने के बदले ट्रक भरा अन्न देने का वादा करते गए।

देह की अंदरूनी परतों में छिलते-छिलते कटाव पड़ गया है। कमर के नीचे चिपचिपे खून की पोखर-सी बन गई है। छातियों ने घावों की शक्ल ले ली है। गालों पर दांतों के खूनी निशान—चेहरा दागदार हो गया।

टीस दर्द है, पर वह जिंदा है। वह जिंदा रही तो गांव भी जिंदा—

सावित्री दो दिन तक रोकी गई।

राय प्रवीण अकबर के दरबार से लौटी तो ओरछा की जन-प्रजा स्वागत के लिए उमड़ पड़ी। लोगों ने जय-जयकार किया, फूल बरसाए। नगर में उत्सव मना। राजा इंद्रमणि सिंह अपना रथ लेकर उस सती स्त्री का अभिनंदन करने नगर-द्वार पर पहुंचे।

सावित्री के वापस आने तक फतेहपुर में दो ट्रक सामान आ चुका था। गांव के लोग ट्रक के पास अभी भी मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे। यदि उन्हें सरकारी राहत के प्रति श्रद्धा न होती तो वे ट्रक लूट लेते। अब तक उनके मुर्दा चेहरों पर जिंदगी की रोशनी-सी झलकने लगी थी।

सावित्री को कमजोरी थी। नीचे घाव थे। चाल में भी लड़खड़ाहट थी। वह अपने घर की ओर संतोष भरी आंखों से देखती हुई चली आ रही थी। गांव पहले जैसा रूप अख्तियार करता जा रहा है।

घर में घुसी तो पौर में खटिया पर बैठे वीरेन्द्र को देखकर ठिठक गई।

अभी  क्यों आ गई? वहीं रहती। यार बहुत मन भाए?

पति के चेहरे पर कड़वाहट और आंखों में क्रोध की आग—वह झुलसकर भी उफ नहीं बोली। जिस खुशी को लेकर आई थी, पति की बातें उसके आगे कहां ठहरती हैं? अनसुनी करके आगे बढ़ गई।

वीरेन्द्र उसके पास आंगन में चला आया। आंखों ही आंखों में बहुत कुछ समझाना चाहा सावित्री ने।

—लेकिन उसका बुखार टूट चुका था दवाओं से। अन्न मिल जाने के कारण देह में भी जान आ गई थी। मिसमिसाकर बोला, आगे  पांव मत बढ़ाना रंडी!

गंवार वीरेन्द्र! गुस्से में है। वह गम खा गई। कलह का समय नहीं है यह।

मुझे  मालूम था कि एक दिन तू—। बाप की नाक कटाकर भी तो आई थी।

अभी-अभी जिस कहर से इस गांव के लोग गुजरे हैं, वह मौत से भी कई गुना भयानक था। भूख से मरते हुए जनों को बचाने की खातिर छोटी कौम की औरतें भी तो ले जाई गई थीं। वे रंडी थीं, सावित्री नहीं—यही कहना चाहता है वीरेन्द्र?

बांह पकड़कर बाहर को खींचने लगा। सावित्री में रार-तकरार की हिम्मत नहीं। वह कपूरे कक्का के मलबे में तबदील हुए घर की ओर चल दी। मीतो के पास रहेगी दो दिन। इसका गुस्सा ठंडा—

तीसरे दिन शांत मन लौटी तो पति नहीं, राक्षस खड़ा था सामने। पकड़कर लात-घूंसों से पीटा। घसीट-घसीटकर पटका, जैसे यह करना उसके लिए जरूरी हो, दिखा रहा हो कि लोगो, इस पापिष्ठा औरत को पति होने के नाते मैं क्या-क्या सजा दे सकता हूं।

सहनशक्ति राई भर भी न बची। सावित्री वीरेन्द्र से ज्यादा बलिष्ठ लोगों से जूझकर आ रही थी। वे संख्या में आठ गुने, दस गुने, पता नहीं कितने ज्यादा—। बस, पति ने हाथ लगाया कि चोट-दर्द भूलकर दो लातें मारीं मरदानी कमर पर। वह सांप की तरह फुफकारता हुआ उठा तो तीन-चार धक्के दिए लगातार और घर में जा घुसी। राहत कैंप में उसने भी तो पेट में कुछ अन्न डाला ही था।

लेकिन जबरदस्ती पति के घर में रहना, वीरेन्द्र की नफरत को सहने के सिवा कुछ न था। उसकी ओर से कहने वाला कोई न था। बड़े लोगों को ज्यादा बोलने की आदत नहीं होती। कपूरे कक्का गरीब थे। उनकी बात में उनकी खस्ता हालत जैसा ही दम था। एक पल में पछाड़ दिए गए।

रात के अंधेरे में एकदम आंख खुल गई। गले पर दबाव पड़ रहा था। देखा कि वीरेन्द्र के हाथ में रस्सी—जिंदा रहना मुश्किल है। गला घोंट देगा, या फिर जहर—अब पत्नी मानकर संग रहने वाला नहीं।

जूठन की जगह घूरे पर होती है—मैं जिंदा जूठन—। मर्द को कौन समझाए? क्या सोचा था, क्या हुआ? पति की नफरत उसे जड़ से उखाड़े दे रही थी, फिर भी जहां तक बस चला, रही, अपने हक के चलते।

अंत में जब प्राण बचाने मुश्किल दिखने लगे तो—। पति को कौन रोक सकता है? सरकारी लोग, पुलिस और नेता लोगों से फरियाद करने से तो अच्छा है कि पति के हाथों मारी जाए। राहत कैंप ने सारे भेद उजागर कर दिए!—लेकिन जिंदगी का मोह—जीने की तृष्णा—वह प्राणों को छुपाकर कहीं भाग जाना चाहती है। सांसों को किसी सुरक्षित डिबिया में बंद करके उड़ जाने की बात—कहां? सारे ठिकाने, रिश्तेदारियां याद आती रहीं नाना, मामा, बुआ, मौसी—ऐसे मामलों में कोई मदद नहीं करने वाला। बदनामी बाघ से ज्यादा भयानक होती है, जिसका सामना कोई नहीं करना चाहता। आग की धार में चलती जा रही थी सावित्री और उससे गुजरते ही याद आया था पिता का घर।

मां की गोद-सा महफूज ठिकाना। उसे मयस्सर होगा या नहीं, उसे भी आशंकाएं थीं। छोटी बहन के कुंआरेपन पर बड़ी बहन का चाल-चलन कहीं भारी न पड़ जाए?

फतेहपुर से उसके ‘करतब’ की खबर हवा के साथ उड़कर आई थी और बदबू की तरह गांव में फैलने लगी। पिता घबरा गए बुरी तरह—दुष्टा!

ऐसे में ही एक रात आ पहुंची थी सावित्री। एकदम चुड़ैल जैसे वेश में।

बदचलन, बदकारियों की पोटली-सी बाप के आंगन में आ गिरी, आधी रात के समय।

गणित मास्साब जानते थे, यह उलझा हुआ गुच्छेदार दाग-दगीला सवाल कैसे सुलझेगा? उन्होंने बेटी के सामने हथियार डाल दिए। कुछ कहा नहीं, कुछ सुना नहीं देह पर मिट्टी का तेल छिड़क लिया। माचिस उठा ली। सावित्री अपना मोह भूल गई।

कौन सी बेटी चाहेगी उसका जन्मदाता, पालनकर्ता, दुनिया में सबसे बड़ा शुभचिंतक आत्महत्या—वह भी उसी के कारण। उसकी कल्पना थर्रा उठी।

गोविन्द ने सुना तो उससे मिलने की चिंता में डूबा रहा। उसे सावित्री के पिता की योजना का क्या इल्म? फिर भी ऐसे हौसला बनाया था ज्यों अपनी नहीं, सावित्री की जान हथेली पर धरकर उससे कुछ बातें करने जा रहा हो।

सावित्री, जो पांच मिनट के लिए भी सामने खड़ी नहीं हो पाई, केवल इतना बोली थी अब ? अब कहां—? कहते  हुए उसका सारा बदन कांप रहा था।

गजब! दूसरे दिन ओरछा में यह खबर फैल गई कि सावित्री बेतवा में डूब मरी। बहुत संभव है कि नहाने गई थी क्योंकि धुले सूखे साफ कपड़े पाट पर रखे देखे गए।

राय प्रवीण

ओरछा के लोगों की भीड़ नदी के पाट पर जमा होने लगी।

अब तक जिस पिता ने उसे महामारी की रोगिणी की तरह दुरदुराया था, सन्न-अवसन्न से नदी की धार पर आंख गड़ाए खड़े हैं। लहरों में उछाल खाकर ऊपर आ रही है सावित्री।

नदी  खा गई लड़की को— भीड़ में से कोई कहता है कि गणित मास्साब ने सावित्री के कपड़े उठाकर छाती से इस तरह लगाए, जैसे वे सूखे साफ वस्त्र नहीं, पाक-साफ सावित्री ही हो और बिलख-बिलखकर रो पड़े। दमयंती पिता का बेआवाज रुदन देखते ही चिंघाड़कर दीदी-दीदी कहती हुई पछाड़ें खाने लगी। कई जोड़े हाथ दमयंती को थामने के लिए बढ़े। स्त्रियां पीछे ही रहीं।

बाप-बेटी का छातीफट दुःख और विलाप तमाशबीनों को खासा करुणा भरा आनंद दे रहा था। तभी तो लाश न होते हुए भी लोग मास्साब और दमयंती को देखने के लिए दो घंटे खड़े रहे।

लाश किसी तरह मिल जाए, युक्तियां सुझाई जाने लगीं। साधन बताए गए। गणित मास्साब ज्यों बहरे हो गए हों, दुःख के मारे पिता की तरह लंबी-लंबी सांसें भरते रहे।

करुणा के रास्ते गुजरते हुए लोग सावित्री की बहादुरी तक आ पहुंचे। कहते हैं न, मरे पूत की बड़ी-बड़ी आंखें—सावित्री सचमुच की सावित्री निकली। शीलभंग हुआ, सतीत्व नष्ट हुआ, पर अपने आदमी का पिछौरा मैला होने से पहले अपनी जान पर खेल गई। बाप को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रही तो जल में छलांग लगा दी। भाई, इन्हीं सतियों के दम पर कायम है संसार—

गोविन्द मन ही मन हंसता है।

वह किसे बताए और किसलिए बताए कि सारा दिन पर्यटकों को घेर-घारकर, बक-झक करते हुए, झूठी-सच्ची बातों में फंसाकर कमाई का जरिया तलाशता है, ज्यादा से ज्यादा ठगना चाहता है।—और जेब भरते ही रात वाली मोटर में बैठकर एरच क्यों जा पहुंचता है? गोविन्द नहीं बताना चाहता कि कहां रहती है उसकी राय प्रवीण—

मैत्रेयी पुष्पा

 

मैत्रेयी पुष्पा

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3 thoughts on “मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण””

  1. उफ्फ। कहानी कब क्या मोड़ लेगी। यह पाठक की कल्पना से परे है।
    अटूट बंधन का धन्यवाद । इतनी गहरी कहानी को पढ़ने का अवसर देने के लिये

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