गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार
आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 4 उलझनों में घिरा यौवन व विवाह समारोह (लखनऊ और औबरा 1967 से69) एम.ए.पास करने के बाद लखनऊ में ललिता और बीबी दोनों नहीं थे। मैं तब लखनऊ में बहुत अकेली हो गई थी।फोन सबके घरों में नहीं होते थे, यह अकेलापन मेरे पहले अवसाद का कारण बना, जिसे मैं मनोविज्ञान का इतना ज्ञान होने के बाद भी समझ नहीं पाई थी। वैसे इसमें अचंभे वाली कोई बात नहीं है क्योंकि कोई भी मनोवैज्ञानिक अपने या अपने परिवार के बारे में कोई प्रोफैशनल राय नहीं बना सकता।मैं पी. एच. डी. करना चाहती थी परन्तु हमें बताया गयाथा कि वह मिलने में कुछ महीने लग सकते हैं,पर हो अवश्य जायेगा, तब तक विभाग के एक रिसर्च प्रौजैक्ट में रिसर्च असिसटैंट का काम मैं कर सकती हूँ ।मैने उसे स्वीकार लिया।रिसर्च प्रोजैक्ट के लिये मुझे इकट्ठा किये गये डेटा का विश्लेषण करना होता था ।आजकल तो कम्प्यूटर से सब फटाफट हो जाता है, उन दिनों तो हमारे पास कैलकुलेटर भी नहीं होते थे। सारी गणनाये स्वयं करनी पड़ती थी, साँख्यकी(statistics) का अच्छा ख़ासा ज्ञान था, पर दिन भर यही काम अकेले लायब्रेरी में या किसी साइड रूम में करते रहना आसान नहीं था।हॉस्टल में भी किसी से बात करने का मन नहीं करता था। अपने ही विभाग में भी किसी से बात नहीं की, मुक्ता वहीं थी, उससे भी कभी नहीं मिली । अपने अन्य किसी सहपाठी की भी खोज ख़बर नहीं ली।अब याद करती हूँ तो सहम जाती हूँ, क्योंकि अब मैं अवसाद को अच्छी तरह समझ गई हूँ।उस समय मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी,मर रही थी। मम्मी भी बार बार वापिस आने को कहती रहती थीं, उन्हे मेरा अब लखनऊ में रहना बेकार लग रहा था।मेरा ओबरा जाने का भी कतई मन नहीं था। वहाँ नानी, मम्मी, भैया ,भाभी और उनके तीन बच्चे थे। सुरेन भैया देहरादून ज़िले में कोटी में थे।वहाँ मम्मी साल में एक बार चली जाती थीं।भैया भाभी ने मम्मी और नानी की देखभाल में कोई कमी नहीं रखी फिर भी वैचारिक अंतर तो होते ही हैं, नानी और मम्मी दोनों का बुढ़ापा था, उनमें भी खटपट होती रहती थी।मुझे लग रहा था वहाँ मैं ख़ुश नहीं रह पाऊँगी।अब यह सीखो,वह सीखो, भैया और मम्मी पीछे पड़ेगें…………….. फिर शादी की बातें, लड़की देखना दिखाना, इसके लिये मैं ख़ुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। लखनऊ में रहकर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी, असफल महसूस कर ही थी, अपनी क़ाबलियत पर शक कर रही थी, मैं हार रही थी, मैं बहुत दुखी थी, अवसाद ग्रस्त थी। अंत मे मैने हार स्वीकार करली और मैं ओबरा चली गई। उस ज़माने में जब संचार के साधन बहुत कम थे, लगता था कि जब अपने विभाग में पी. एच. डी. मिलने में कुछ समय लगने की बात हो रही है तो किसी और विश्वविद्यालय में तुरंत तो नहीं मिलेगी।एक विकल्प था कि बैंगलोर से क्लिनिकल सायकौलोजी में पी.जी. डिप्लोमा करूँ पर, इसकी इजाज़त कभी नहीं मिलती, ये भी मैं जानती थी। कोई जानकारी पाना भी कहीं से बहुत मुश्किल होता था, फिर मानसिक तनाव झेलते हुए कुछ सूझ भी नहीं रहा था।मेरी हार घर वालों की जीत थी,मैं पढ़ाई पूरी करके घर आ गई थी।अब मम्मी ने शादी के लियें वर की तलाश शुरू कर दी मेरे पास भी न करने के लिये कोई कारण नहीं था।बस यही सोचा कि अब ज़िंदगी जिस तरफ़ ले जायेगी चल दूँगी! वैसे ओबरा आकर परिवार के बीच भतीजों भतीजी के साथ रहकर अकेलापन कम होने लगा था। ललिता से कभी कभी पत्रों का आदान प्रदान होता रहा, वह जल्दी ही एक बेटे की माँ बन गई थी। रज्जू भैया भी अमरीका में जाकर बसने की तैयारी में लगे थे। ओबरा में मुझे कॉन्वैंट स्कूल में नौकरी मिल गई थी,वहाँ की सिस्टर ख़ुद प्रस्ताव लेकर आई थी, जबकि मैने बी.ऐड. नहीं किया हुआ था।मुझे पाँचवीं और छटी क्लास को पढ़ाना था।मैंपाँचवीं की कक्षा अध्यापिका बना दी गईथी।पाँचवीं में मेरा भतीजा भी पढ़ता था।ओबरा में केवल उ.प्र. के बिजली विभाग के लोग थे, वहाँ कुछ और था ही नहीं, इसलिये बच्चे भी जान पहचान के थे, जो स्कूल के बाद मुझे भुआ ही कहते थे। मेरा भतीजा बहुत ज़हीन था, प्रथम आता था, मुझे लगता था कि कहीं कोई पक्षपात न समझे, कोई बच्चा उसके आस पास भी नहीं था।यह सेक्रेड हार्ट कान्वेंट पाँचवीं तक ही था, मेरे आने के बाद उन्होनेसिर्फ एक लड़की के साथ छटी कक्षा शुरू की थी। इसके अलावा वहाँ सहशिक्षा का सरकारी इंटर कॉलिज था जो उ.प्र. के बिजली विभाग के प्रबंधन में चल रहा था।यहाँ माध्यम हिन्दी था और इस छोटी सी जगह के विद्यालय ने एक वर्ष उ.प्र. बोर्ड का टॉपर दिया। यहाँ के छात्र अच्छे से अच्छे इजीनियरिंग कॉलिज और मैडिकल कॉलिजों में बिना किसी कोचिंग के प्रवेश पाते रहे थे। यहाँ पर मेरी एक सहेली बनी साधना भार्गव, जिसकी शादी तय हो चुकी थी। वह पढ़ाई ख़त्म करके ओबरा में अपने माता पिता के साथ रह रही थी, बस इंतज़ार था कि कब उसका मंगेतर अमरीका से आये और वह शादी करके वहाँ जाये। वह शादी के सपने देखने में व्यस्त थी। उसके अपने कोई सपने थे ही नहीं। मैं शादी के लिये तैयार थी, पर उसे लेकर मेरे कोई सपने नहीं थे। मैं कुछ करना चाहती थी, पर लक्ष्य सुनिश्चित नहीं था, पी.एच.डी करने का सपना टूट सा चुका था। शायद मुझमें धैर्य की कमी थी और कोई मार्गदर्शक भी नहीं था। यहाँ एक संगीत के शिक्षक श्री रवींद्र पाँडे भी थे, जो बनारस से … Read more