कोई शॉर्टकट नहीं दीर्घकालीन साधना है बाल साहित्य लेखन -भगवती प्रसाद द्विवेदी

  यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने  के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना एक कड़ी चुनौती है l  जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले और बाल साहित्य को दिशा कैसे मिले ? आइए जानते हैं ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से, जिनसे बातचीत कर रही हैं कवि-कथाकार वंदना बाजपेयी l सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से कवि -कथाकार वंदना बाजपेयी की बातचीत कोई शॉर्टकट नहीं गंभीर साधन है बाल साहित्य लेखन  प्रश्न- नमस्कार सर ! मेरा आपसे पहला प्रश्न है कि आप रसायन विज्ञान के छात्र रहे हैं, फिर साहित्य में आपका आना कैसे हुआ ? कहाँ और क्षार की शुष्कता और कहाँ साहित्यिक भावुकता की अनवरत बहती धारा l सुमित्रानंदन पंत की पंक्तियों “आह से उपजा होगा ज्ञान” का आश्रय लेते हुए मेरी सहज जिज्ञासा है कि वो कौन सी घटना थी जिससे आपके मन में साहित्य सृजन का भाव जागा? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी – वंदना जी! मैं विज्ञान का विध्यार्थी  जरूर रहा, क्योंकि वो दौर ही ऐसा था कि शिक्षा के क्षेत्र में मेधावी व प्रतिभाशाली छात्रों को अमूमन अभिवावक विज्ञान ही पढ़ाना चाहते थे l मेरे साथ भी वही हुआ l हालांकि साहित्य और संस्कृति में मेरी बचपन से ही अभिरुचि रही l महज़ डेढ़ साल की उमर में ही मैं अपनी माँ को खो चुका था l दादी मुझे एक पल को भी खुद से दूर नहीं करना चाहती थीं और उन्होंने ही मेरी परवरिश की थी l फिर भी होश संभालने पर मैं आहिस्ता-आहिस्ता अंतर्मुखी होता चला गया था और शिशु सुलभ चंचलता खेलकूद आदि से मैं प्रायः दूर ही रहता था l रात को जब मैं दादी के साथ सोता, वे रोज बिना नागा लोककथाएँ, पौराणिक कथाएँ आदि सुनाया करती थीं और मैं उन कथाओं के अनुरूप जार-जार आँसू बहाने लगता तो कभी प्रसंगानुरूप आल्हादित भी हो उठता l उन कथा- कहानियों से जुड़कर मैं तरह-तरह की कल्पनाएँ किया करता था l संभवतः दादी की इन वाचिक कथाओं से ही मेरे भीतर सृजन का बीजारोपण  हुआ  होगा l   प्रश्न- आज आप साहित्य जगत के स्थापित नाम हैं l जबकि आपने विज्ञान से साहित्य की दिशा में प्रवेश किया है तो जाहिर है कि आपकी यहाँ तक की यात्रा सरल नहीं रही होगी l कृपया अपने संघर्षों से हमें अवगत कराएँ ? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी – मैं तो खुद को आज़ भी विद्यार्थी ही मानता हूँ और बच्चों और बड़ों से कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश करता हूँ l मगर मैंने विज्ञान से साहित्य में प्रवेश नहीं किया l बचपन से ही मैंने साहित्य रचते हुए विज्ञान की पढ़ाई की l छठी कक्षा से ही लेखन और प्रकाशन का सिलसिला प्रारंभ हो गया था l उसी का परिणाम था कि हिन्दी संकाय के छात्र- छात्राओं के बावजूद स्कूल कॉलेज कि पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन में बतौर छात्र संपादक मेरी ही सेवाएँ ली जाती थीं l विज्ञान ने ही प्रगतिशील सोच के साथ ही रूढ़ियों और अंधविश्वास से मुक्त होने की दृष्टि दी l साथ ही लेखन, व्याख्यान में मुझे अनावश्यक विस्तार के स्थान पर “टू द पॉइंट” में विश्वास दृण हुआ l मेरी आस्था स्वाध्याय व सृजन में रही, किसी वाद-विवाद में नहीं l जहाँ तक संघर्ष का सवाल है वो बाल्यकाल से लेकर आज तक अनवरत जारी है l अनेक व्यवधानों के बावजूद अध्ययन और सरकारी सेवा के दौरान भी मैंने इस लौ को मद्धिम नहीं होना दिया l   प्रश्न- आपने लगभग हर विधा में अपनी कलम का योगदान देकर उसे समृद्ध किया है l बच्चों के लिए लिखने यानि बाल साहित्य की ओर आपका रुझान कब और कैसे हुआ ?   भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- मेरा यह मानना है कि बाल साहित्य लेखन की कसौटी हैl अतः हर रचनाकार को बच्चों के लिए जरूर लिखना चाहिए, मगर जैसे -तैसे नहीं, पूरी जिम्मेदारी के साथ l जिन दिनों मेरा दाखिला, जूनियर हाई स्कूल रेवती में हुआ, वहाँ की एक स्वस्थ परिपाटी ने मुझे बहुत प्रभावित किया l प्रत्येक शनिवार को विद्यालय में बाल सभा हुआ करती थी, जिसमें हर बच्चे को कुछ न कुछ सुनाना होता था l कोई चुटकुला सुनाता, तो कोई पाठ्य पुस्तक की कविता सुनाता l रात में मैंने एक बाल कहानी लिख डाली और बाल सभा में उसकी प्रस्तुति कर दी l जब शिक्षक ने पूछा, किसकी कहानी है ये? तो मैंने डरते-डरते कहा, “गुरु जी, मैंने ही कोशिश की है l” तो उन्होंने उठकर मेरी पीठ थपथपाई “अच्छी” है! ऐसी कोशिश लगातार करते रहो l”  फिर तो मेरा हौसला ऐसा बढ़ा कि हर शनिवार को मैं एक कहानी सुनाने लगा और कुछ ही माह में “चित्ताकर्षक कहानियाँ” नाम से एक पांडुलिपि भी तैयार कर दी l मगर गुरुजी ने धैर्य रखने की सलाह दी और पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ भेजने की सलाह दी l आमतौर पर लेखन की शुरुआत कविता से होती है पर मेरी तो शुरुआत ही कहानी से हुई l मेरी पहली कहानी ही प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘बाल भारती’ में प्रकाशित हुई l जब पत्रिका और पारिश्रमिक की प्राप्ति हुई तो मेरी खुशी का पारावार ना रहा l फिर तो समर्पित भाव से लिखने और छपने का सिलसिला कभी थमा ही नहीं l   प्रश्न –4 आज का समाज बाजार का समाज है l पैसे और पैसे की दौड़ में मनुष्य भावनाहीन रोबोट बनता जा रहा है l इससे साहित्यकार भी अछूता नहीं रह गया है l बड़ों की कहानियों में विसंगतियों को खोजना और उन पर अपनी कलम चलाना कहीं सहज है पर ऐसे समय और समाज में बाल मन में प्रवेश करना कितना दुष्कर है ? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी-  बहुत ही सही और जरूरी सवाल … Read more