व्यस्त चौराहे

व्यस्त चौराहे

ये कहानी है एक व्यस्त चौराहे की, जो साक्षी बना  दुख -दर्द से जूझती महिला का, जो साक्षी बना अवसाद और मौन का ,जो साक्षी बना इंसानियत का | कितनी भी करुणा उपजे , कितना भी दर्द हो ,पर ये व्यस्त चौराहे कभी खाली नहीं होते .. लोगों की भीड़ से ,वाहनों के शोर से और साक्षी होने के ..  मौन अंतहीन दर्द की शृंखलाओं से | आइए पढ़ें मीन पाठक जी की एक ऐसी ही मार्मिक कहानी व्यस्त चौराहे  जब से आरोही ने ये नया ऑफिस ज्वाइन किया था, शहर के इस व्यस्त चौराहे से गुजरते हुए रोज ही उस अम्मा को देख रही थी। मझोला कद, गोरी-चिट्टी रंगत, गंदे-चिकट बाल, बदन पर मैले-कुचैले कपड़े, दुबली-पतली और चेहरे पर उम्र की अनगिनत लकीरें लिए अम्मा चुपचाप कुछ ना कुछ करती रहती। वह कभी अपना चबूतरा साफ़ करती, कभी चूल्हे में आग जलाती तो कभी अपने सेवार से उलझे बालों को सुलझाती हुई दिख जाती। आरोही जब भी उसे देखती उसके भीतर सैकड़ों सवालों के काँटे उग आते। कौन है ये? यूँ बीच चौराहे पर खुले में क्यूँ अपना डेरा जमाए बैठी है? छत्त के नाम पर ऊपर से गुजरता हाइवे और दीवारों के नाम पर वो चौंड़ा सा चौकोर पिलर; जो अपने सिर पर हाइवे को उठाये खड़ा था, वही उसका भी सहारा था। अम्मा ने कुछ बोरों में ना जाने क्या-क्या भर कर उसी से टिका रखा था। वहीं छः ईंट जोड़ कर चूल्हा बना था। कुछ एल्युमिनियम के पिचके टेढ़े-मेढ़े बर्तन, प्लास्टिक की पेण्ट वाली बाल्टी और चूल्हे के पास ही कुछ सूखी लकड़ियाँ रखी थीं। यही थी उसकी घर-गृहस्थी। उसे देख कर आरोही के मन में ना जाने कैसे-कैसे ख्याल आते। वह सोचती कि उम्र के जिस पड़ाव पर अम्मा है, उसके बेटे-बेटियों के बालों में भी सफेदी झाँक रही होगी। उनके बच्चे भी बड़े हो रहे होगें। इसका पति जीवित है भी या नहीं! क्या उसे अम्मा की याद नहीं आती या अम्मा ही सब भूल गयी है ? इतने शोर में यहाँ कैसे रहती है अम्मा ? इन्हीं सब प्रश्नों के साथ आरोही ऑफिस पहुँच कर अपने काम में जुट जाती। लौटते समय फिर से चौराहे पर उसकी आँखें अम्मा को ऐसे तलाशतीं जैसे मेले की भीड़ में कोई अपने को तलाशता है। उस दिन किसी कारणवश आरोही को ऑफिस से जल्दी लौटना पड़ा। ऑटो से उतर कर चौराहे पर पहुँची तो आदतन उसकी आँखें अम्मा के चबूतरे की ओर उठ गयीं। उसने देखा कि अम्मा कोई कपड़ा सिल रही थी। कुछ सोचते हुए पहली बार आरोही के कदम खुद-ब-खुद अम्मा की ओर बढ़ गए। पास आ कर उसने देखा, अम्मा के सामने ही एक प्लेट पर काली रील रखी हुयी थी और अम्मा बड़ी तल्लीनता से ब्लाउंज की फटी आस्तीन सिलने में जुटी थी। उसने बैग से अपना टिफिन बॉक्स निकाल लिया। “अम्मा..! प्लेट इधर करना ज़रा।” टिफिन खोलते हुए बोली वह। अम्मा अपने काम में लगी रही। जैसे उसने सुना ही ना हो। “प्लेट इधर कर दो अम्मा।” आरोही इस बार कुछ जोर से बोली। उसकी तरफ देखे बिना ही अम्मा ने सुई को कपड़े में फँसा कर रील गिराते हुए प्लेट उसकी ओर खिसका दिया और फिर से सिलाई में लग गई। “लो, अम्मा !” लंच प्लेट पर रख कर उसके आगे सरकाते हुए आरोही ने कहा; पर अम्मा अपने काम में मगन थी, कुछ न बोली। लंच यूँ ही अम्मा के सामने रखा रहा और अम्मा अपना काम करती रही। आरोही थोड़ी देर वहीं खड़ी रही; पर जब अम्मा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी तब वह चुपचाप अपने रास्ते हो ली। मन ही मन सोच रही थी कि पता नहीं उसने जो किया वो उसे करना चाहिए था या नही; पर अम्मा के करीब जाने का उसे वही एक रास्ता सूझा था। अब तो रोज ही आते-जाते कुछ न कुछ उसके आगे रख देती आरोही लेकिन कभी भी ना तो अम्मा ने आरोही की ओर देखा, ना ही उसके कहने पर चीजें अपने हाथ में ली। कभी-कभी तो वह अम्मा के इस रवइए पर खिन्न हो जाती; पर अम्मा के नज़दीक जाने का और कोई ज़रिया उसे दिखाई नहीं दे रहा था। वह करे भी तो क्या ! जब भी वह उसके पास जा कर खड़ी होती तब ना जाने कितनी बार उसका जी चाहता कि वह बात करे अम्मा से। पूछे, कि वह कहाँ से आई है? यहाँ क्यों रह रही है? उसके घर में कौन-कौन हैं? परन्तु अम्मा के व्यवहार से आरोही की हिम्मत न होती और घर आ कर देर तक उसके बारे में ही सोचती रहती। उस दिन लौटते समय आरोही ने देखा कि अम्मा आने-जाने वालों को उंगली दिखा कर कुछ बोल रही थी। जैसे यातायात के नियमों को ताक पर रखने के लिए उन सबको डाँट रही हो, “सुधर जाओ तुम लोग नहीं तो भुगतोगे।“ जिज्ञासावश आरोही अम्मा की तरफ बढ़ गयी। कुछ और लोग भी उसी की तरह उत्सुकतावश रुक कर उसे देख रहे थे। अम्मा को देख कर आरोही ठिठक गयी। उसकी आँखों में अंगारे दहक रहे थे। भौंहें कमान-सी तनी थीं। गले की नसें खिंच कर उभर आई थीं। अम्मा ऊँची आवाज में बोले जा रही थी; पर उसे कुछ समझ नहीं आया। वह चुपचाप देखती रही फिर वहीं बैठे एक रिक्शेवाले से पूछ लिया उसने, “क्या हुआ अम्मा को ?” “कबहू-कबहू बुढ़िया पगलाय जात। थोड़ो दिमाग खिसको है जाको।” चुल्लू भर मसाला वहीं चप्प से थूक कर अंगोछे से दाढ़ी पर छलका थूक पोछते हुए बोला वह। सुन कर धक्क से रह गयी आरोही। वह उसे इस हाल में पहली बार देख रही थी। उसे हमेशा चुप-चाप अपना काम करते हुए ही देखा था उसने। वहाँ लोगों के खड़े होने से जाम लगने लगा था। आती-जाती गाड़ियों की रफ़्तार थमने से उनके हॉर्न तेज हो गए थे। तभी चौराहे पर खड़ा सिपाही सीटी बजाता हुए वहीं आ गया। उसे देखते ही वहाँ खड़े सभी लोग तितर-वितर हो गए। गाड़ियों की कतारें रेंगती हुयी निकलने लगीं और थोड़ी देर में ही यातायात पहले जैसा सामान्य हो गया। रिक्शेवाले की बात सुन कर आरोही के दिल में कुछ चुभ-सा गया था। वह सोचने लगी कि कहीं अम्मा के इस … Read more