अष्टावक्र गीता -3 

अष्टावक्र गीता -3

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में | अष्टावक्र गीता -3  कभी आप अपने गाँव या सुदूर क्षेत्रों में जरूर गए होंगे | देश के ऐसे कई अंदरूनी इलाके हैं जहाँ सड़क भी नहीं है तो हवाई जहाज तो क्या जीप भी नहीं जा सकती | मान लीजिए आप को  किसी सुदूर इलाके में जाना है |ऐसे में जब आप अपनी यात्रा  प्लान करते हैं तो इस तरह से करते हैं पहले दिल्ली से से नजदीक के हवाई अड्डे तक की फ्लाइट फिर वहाँ से उस गाँव तक की ट्रेन फिर गाँव के पास तक बस फिर बैलगाड़ी ,फिर थोड़ा पैदल | इस तरह से आप की यात्रा पूरी होती है | ऐसे में आप ये नहीं कहने लगते की ये हवाई जहाज या ये ट्रेन या ये बस मेरी है .. या उससे भी बढ़कर ये हवाई जहाज या ट्रेन या बस मैं हूँ | हमको पता होता है कि मैं यात्रा पर हूँ और ये सब साधन मात्र है जिनके द्वारा यात्रा की जा रही है | ऐसे ही हमारी आत्मा अनंत यात्रा पर निकली है | विभिन्न जन्मों में विभिन्न रूप नाम युक्त शरीर बस साधन मात्र हैं जिससे ये यात्रा पूरी होगी | उसे मैं या  मेरा मान लेना ही समस्त दुखों की जड़ है | अष्टावक्र गीता के साथ हम परमात्मा (आत्म तत्व )को खोजने वाली ऐसी ही यात्रा पर निकलेंगे |  इस यात्रा की खूबसूरती ये है कि इसके लिए न हमें मंदिर जाने की जरूरत है न मस्जिद न गुरुद्वारे न ही और किसी पूजा स्थल | इसके लिए न किसी धूप दीप फूल पट्टी की आवश्यकता है ना किसी कर्मकांड की | क्योंकि अष्टावक्र जी ने स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ये मंदिर मस्जिद जाने वाला , ये धूप बत्ती जलाने वाला , ये धार्मिक अनुष्ठान करने वाला ही   परमात्मा है | एक बच्चा जब अपने पिता के साथ लूडो या सांप -सीधी खेलता है तो जीतने के लिए पूरा कौशल लगा देता है |उसके लिए हार या जीत बहुत मायने रखती है | वही बच्चा एक दिन बड़ा होकर जब अपने बच्चे के साथ खेलता है तो जानबूझकर हारता है |हारते हुए भी मुसकुराता है |क्योंकि वो जान गया है की ये तो बस खेल है | वो बोध जो बचपन में नहीं था वो बड़े पर हो गया | यही बोध अगर हमें हो जाए कि परमात्मा (मैं )इस संसार के खेल को खेलने निकला है तो सारी सफरिंगस समाप्त हो जाएंगी | सुख -दुख मान  अपमान खेल लगने लगेंगे | बोध बस इतना होना  है कि इन अनुभवों को लेने के लिए शरीर रूपी रथ पर सवार होने वाला परमात्मा ही है | अष्टावक्र गीता -तत्वमसि  जो तुम हो वही मैं हूँ | जिस प्रकार व्यक्ति बिना दर्पण के अपना चेहरा नहीं देख सकता | उसी प्रकार परमात्मा अपनी ही बनाई या अपने से ही उत्पन्न हुई इस सृष्टि को जानने समझने अनुभव करने हेतु विभिन्न जड़ और चेतन स्वरूपों में विद्धमान है | इसलिए पेड़ हो , इंसान हो या मामूली कंकण पत्थर सबके अंदर दृष्टा रूप में परमात्मा ही है | इस गोचर और अगोचर सृष्टि में परमात्मा के अतरिक्त कुछ है ही नहीं | केवल उसे मैं या मेरा मान  लेना ही सारी सफरिंगस की जड़ है | जैसे एक बिजली के तार से बहुत सारे बल्ब जुड़े हुए है | कोई बल्ब फ्यूज है वो प्रकाशित नहीं हो रहा है पर उसमें भी बिजली जा रही है | जो प्रक्षित हो रहे हैं उनमें भी बिजली ही जा रही है | यहाँ बल्ब का रोशन होना या न होंना  जड़ और चेतन के रूप में समझ सकते है | सृष्टा दोनों में है |कहीं कुछ भिन्न है ही नहीं | अपने भौतिक स्वभाव के कारण ही वो कहीं  जड़ तो कहीं चेतन रूप में दिख रहा है | यानि मेरे अंदर और बाहर सब कुछ परमात्मा ही है या अंदर से ले कर बाहर तक मैं ही सब जगह व्याप्त हूँ |तो मेरा तेरा के सारे झगड़े और दोष समाप्त हो जाते हैं |  अष्टावक्र के अनुसार अगर ये बात अभी इसी क्षण समझ लो .. तो अभी इसी क्षण से मुक्ति है | आज जब सबसे ज्यादा झगड़े धर्म जाति और संप्रदाय के कारण ही होते हैं |सबसे ज्यादा रक्तपात इसी कारण होता है तो अष्टावक्र गीता को समझ लेना ,आत्मसात कर लेना इन सब झगड़ों को मिटा सकता है |और इस शरीर में रहते हुए भी परमानन्द प्राप्त किया जा सकता है | यहाँ पर सबसे पहले ये समझना होगा की सुख और आनंद अलग अलग है  सुख एक क्षणिक भाव है और आनंद हमेशा रहने वाला | सुख का कारण बताया जा सकता है | आनंद का नहीं |सुख के बाद दुख आना निश्चित है पर आनंद ठहर जाता है | सुख और आनंद की यात्रा में उलझे व्यक्ति के आधार पर तीन भागों में बांटा जासकता है| सामान्य व्यक्ति -जिसने मान  लिया है की सुख बाहर है | वो सुख और दुख की यात्रा में निमग्न रहता है |वो अभी स्टेशन पर ही बैठ है |इस प्रकार के व्यक्ति को संसारी भी  कह सकते हैं | सन्यासी -जो समझता है कि सुख अंदर है पर इस बात को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाता है |जरूरी नहीं ये व्यक्ति सन्यासी भेष धरण करे | उसका मन से सन्यासी होंना  पर्याप्त है | ज्ञानी _जिसने  इस ज्ञान को आत्मसात कर लिया है |जिसका सुख अब अंदर से आ रहा है |यहाँ दुख है ही नहीं |सुख और दुख मन के आनंद सागर में उठने वाली लहरें मात्र है | कृष्ण के सारे पुत्र गांधारी के … Read more

अष्टावक्र गीता -2 

अष्टावक्र गीता

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में | अष्टावक्र गीता -2  अष्टावक्र गीता के बारे में जानने से पहले जरूरी है कि ऋषि अष्टावक्र के बारे में भी जान लिया जाए | हालांकि इस जानकारी से उस ज्ञान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा पर एक दिव्यअङ्ग बालक का आत्मबोध व ज्ञान से भरा  हुआ होना  आश्चर्य का विषय है तो प्रेरणा दायक भी | हालांकि अष्टावक्र के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती पर जितनी मिलती है उस आधार पर उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती है | कौन थे अष्टावक्र अष्टावक्र को जानने के लिए उद्दालक ऋषि के आश्रम में जाना पड़ेगा |प्राचीनकाल में उद्दालक ऋषि के आश्रम में उनके एक शिष्य उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे | उनका नाम था कहोड़ | कहोड़ आत्मज्ञानी तो नहीं थे पर वेद मंत्रों आदि को कंठस्थ कर लेते थे | उद्दालक ऋषि की दो संतानें थीं एक पुत्री सुजाता और दूसरा पुत्र श्वेतकेतु | सुजाता और श्वेत केतु की उम्र में 15- 16 वर्ष का अंतर था | जब सुजाता विवाह योग हुई तो उद्दालक ऋषि ने कहोड़ से उनका विवाह किया | कहोड़ ज्ञानी नहीं थे वो वेद पाठी विद्वान थे | अक्सर उनके उच्चारण में गलतियाँ हो जाती थीं | अष्टावक्र की प्रारम्भिक शिक्षा  एक बार उन्होंने किसी श्लोक का आठ बार गलत उच्चारण किया तब अपनी माता के गर्भ में बैठे अष्टावक्र ने गर्भ से ही कहा पिताजी आपने आठ बार गलती की है इसे ऐसे कहें | कहोड़ को यह अपने ज्ञान का अपमान लगा |उन्होंने कुपित होकर अष्टावक्र को श्राप दिया,”तूने मेरी आठ बार गलतियाँ निकाली हैं जा  तेरा शरीर आठ जगह से वक्र हो जाए | कुछ कथाएँ कहती हैं कि उन्होंने गुस्से में सुजाता के पेट पर लात मार दी थी |जिस कारण वो पेट के बल गिर गईं थी और गर्भस्थ शिशु आठ जगह से मुड़ गया | जो भी हो इस घटना के बाद कहोड़ ऋषि को बहुत पश्चाताप हुआ और वो घर छोड़ कर चले गए | जगह -जगह जा  कर वो शास्त्रार्थ में भाग लेते और आगे बढ़ जाते | अष्टावक्र और शास्त्रार्थ  सुजाता अष्टावक्र के साथ अपने पिता उद्दालक ऋषि के आश्रम में चलीं आईं | अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बड़े होने लगे | वहीं उन्होंने शिक्षा पाई | उनकी उम्र में दो -तीन वर्ष का ही अंतर था |अतः वे उद्दालक  को ही अपना पिता समझते थे | करीब 12 वर्ष की उम्र में खबर आई की राजा  जनक आत्म ज्ञान के लिए शास्त्रार्थ अपने दरबार में करवा रहें हैं |वहाँ उनके कहोड़ ऋषि भी गए हैं | जो सब पर विजय प्राप्त करने के बाद बंदी नामक ज्ञानी से हार रहे हैं |जब अष्टावक्र को इस बात का पता चला तो वह अपने पिता से मिलने राजमहल चले गए | वहाँ उनके आठ जगह से मुड़े शरीर को देखकर सब हंसने लगे | सबको हँसता देखकर अष्टावक्र भी हँसने  लगे | उनको हँसता हुआ देखकर राजा जनक को आश्चर्य हुआ |उन्होंने पूछा,”सब तो तुझे देखकर हँस रहे हैं पर हे  बालक तुम क्यों हँस रहे हो ?” अष्टावक्र बोले ,”हे  राजन ! मैं इस बात पर हँस रहा हूँ कि यहाँ चमड़े के व्यापारियों के मध्य आत्मबोध पर चर्चा हो रही है |तो फिर कैसी जीत और कैसी हार |’ उनका उत्तर सुन कर राजा  जनक ने फिर कहा,”बालक ! इतने बड़े विद्वानों को चमड़े का व्यापारी कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ?” अष्टावक्र बोले,”हे  राजन ! जिस तरह से घड़ा टेढ़ा होने पर आकाश टेढ़ा नहीं होता उसी तरह से मेरा शरीर टेढ़ा होने से मैं यानि आत्मस्वरूप ईश्वर कैसे टेढ़ा हो गया | इन्हें मेरा टेढ़ा शरीर दिखता है पर उसके भीतर मैं नहीं दिखता तो फिर हो गए ना ये चमड़े के व्यापारी |” राजा जनक निरुत्तर हो गए | उन्हे स्वयं भी उस बच्चे हंसने के लिए अपराध बोध हुआ | तभी अष्टावक्र ने बंदी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा व्यक्त की | ये शास्त्रार्थ पढ़ी हुई विधा पर था पर एक श्लोक पर आकर बंदी अटक गए | अष्टावक्र ने वो श्लोक पूरा किया और विजयी घोषित हुए | उन्होंने बंदी द्वारा हराए गए सभी विद्वानों  को राजा  जनक के कारागार से मुक्त कराया | अपने पिता कहोड़ को पा कर अष्टावक्र बहुत प्रसन्न हुए | उस रात  राजा जनक सो ना सके | उन्हें समझ आ गया कि ये बालक कोई साधान बालक नहीं है और इसके पास अवश्य ही मेरे सारे प्रश्नों का हल होगा | राजा जनक को आत्मबोध  अगले दिन राजा जनक उन्हें ढूंढते हुए एक आश्रम के पास पहुंचे वहाँ वो खेल रहे थे | राज्य जनक ने उनसे आत्मबोध करने की इच्छा की |   कहा जाता है कि राजा जनक जब घोड़े से उतर रहे थे |उनका एक पैर रकाब पर था और एक हवा में तभी अष्टावक्र ने उन्हें शिक्षा देनी शुरू की |इस असुविधा जनक स्थिति में वो घंटों आत्ममुग्ध से बने रहे | जब उन्होंने पैर जमीन पर रखा तब तक उन्हें आत्मबोध हो चुका था | जनक विदेहराज बन चुके थे |ऐसे में उनका राज्य  पर शासन करने का मन भी नहीं रह गया था |तब अष्टावक्र ने ही उन्हें समझाया था की अब वो ज्यादा अच्छा शासन कर पाएंगे |जनता का अधिकार है कि कोई विदेह राजा उनके राज्य को संभाले | ये सारा ज्ञान 20 अध्यायों  में निहित है जो आध्यात्मिक पथ के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न “मैं कौन हूँ ” का उत्तर देता है | इसके बाद सारा अंधियारा नष्ट हो जाता है | सरल से बीस अध्याय  का अर्थ सहज है पर उन्हें आत्मसात  करने के लिए व्याख्या आवश्यक है … Read more

अष्टावक्र गीता -1

अष्टावक्र गीता

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में | अष्टावक्र गीता -1 आखिर क्या कष्ट रहा होगा बुद्ध को कि नवजात शिशु और अप्रतिम सुंदरी पत्नी यशोधरा को छोड़कर  इस संसार को दुख से मुक्त करने के लिए निकल गए | क्या दुख रहा होगा महावीर को कि राज महल के वैभव उन्हें बांध नहीं सके | दुख का कारण था एक ही प्रश्न ..संसार में इतने दुख क्यों हैं ?क्या कोई तरीका है कि संसार को इन दुखों से मुक्ति मिल जाए | क्या हम और आप दुखों के जंजाल में घिर कर ये नहीं सोचते हैं कि आखिर क्या कारण है कि ईश्वर ने ये ये दुनिया बनाई और उसमें रोग, कष्ट , विछोह, मृत्यु जैसे दुख उत्पन्न कर दिए | आखिर क्या मजा आता होगा उस ईश्वर को ये खेल खेलने में ? इस पर हसरत जयपुरी जी का लिखा हुआ एक बहुत ही प्रसिद्ध गीत भी  है .. दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई .. काहे को दुनिया बनाई ..   ऐसे में कोई आप से आकर कह दे कि ये आप ने ही बनाई है आप ही इसके कर्ता -धर्ता और नियंता हो .. तो ? अहं ब्रह्मास्मि .. शिवोहम  तो फिर स्वाभाविक सा प्रश्न होगा ,”फिर हमें क्यों नहीं पता ?” उत्तर है :मन और बुद्धि ने हमें भरमाया हुआ है | ठीक वैसे ही जैसे आइस -पाइस के खेल में बच्चे अपनी आँख पर खुद ही पट्टी बांधते हैं और सामने दिखाई देने वाली चीजों को पट्टी के कारण नहीं देख पाते और यहाँ-वहाँ टकराते जाते हैं | ये खेल हमीं ने चुना है | विभिन्न प्रकार के सुख -दुख हमारे बनने के काल समय और परिस्थिति पर निर्भर करते हैं | ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या  हम अपने ही बनाए इस जगत को इंद्रियों  द्वारा देखने -सुनने समझने के लिए विभिन्न जड़ -चेतन , जीव -जन्तु वनस्पति के रूप में आकार लेते हैं | ये बनना हमारा वैसे ही स्वभाव है जैसे लहर उठना समुद्र का स्वभाव है | जैसे समुद्र में उठने वाली लहर पानी से अलग नहीं है |वैसे ही समग्र चेतना  हमारे अंदर समाई है |अज्ञान वश  हम अपने को अलग समझते हैं और यही दुख का कारण है | फिर इससे मुक्ति कैसे हो ? (इस आत्म स्वरूप को समझने के लिए द्वैत और अद्वैत दो सिद्धांत है ) अष्टावक्र कहते हैं ,“अभी और इसी वक्त “ जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार मिट  जाता है |वैसे ही अज्ञानता की पट्टी उतारते ही एक पल में बोध हो जाता है | और ये सबके लिए एक ही सच है | इसका किसी धर्म  से जाति संप्रदाय से कोई लेना देना नहीं है | इसके लिए कोई विशेष विधि, अनुष्ठान , प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं है | अब सवाल ये है कि इतना सहज ज्ञान होने के बाद भी अष्टावक्र गीता इतनी प्रसिद्ध क्यों नहीं है ? इसका एक मात्र कारण है कि मनुष्य का स्वभाव है कि उसे कठिन पर विजय प्राप्त करने में आनंद आता है | कोई चीज सहज और सरल है तो उसको करने का उतसह ही जाता रहता है | कभी बच्चों को खाना बनाना सिखाना शुरू करिए तो देखेंगे उन्हें दाल -चावल सीखने में आनंद नहीं आता | ये तो रोज का खाना है |इसमें क्या मजा |मटर -पनीर से शुरू करें तो कोई बात है और आजकल तो यू ट्यूब से देखकर कोई अनोखी चीज से ही शुरू करने का मन करता है | अडवेंचर पार्क में सबसे कठिन झूले पर बैठना है | गणित का सबसे कठिन सवाल हल करना है | आत्म बोध इतना ही आसान है तो उसका आनंद ही खत्म हो जाता है | अष्टावक्र जिस बात को इतनी सीधी और सरल भाषा में कहते हैं |द्वैत सिद्धांत में इसके लिए तमाम अनुष्ठान जप तप भी हैं |वहीं हठ योग ये मानता ही नहीं नहीं कि जिस शरीर ने ये सारा भेद उत्पन्न किया है उसे दंड दिए बिना बोध हो भी सकता है | इसलिए कोई खड़ा राहकरकर शरीर को कष्ट देता है तो कोई एक हाथ का इस्तेमाल न करके | हाथ सूख कर लकड़ी हो जाता है | बहुत कष्ट सहने के बाद कष्ट रहित अवस्था आती है | पर एक हाथ सदा के लिए बेकार हो जाता है | पर उसे उसी में आनंद आता है | ओशो अपने प्रवचन में एक कहानी सुनाया करते हैं |  एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन अपने दोस्तों के साथ मछली पकड़ने गए | दो बगल बगल तलब बने हुए थे |जो तालाब मछलियों से लबालब भरा हुआ था ,सारे दोस्त वहीं मछलियाँ पकड़ने लगे | झाटझट मछलियाँ पकड़ में आने लगीं  |वो खुशी से चिल्ला रहे थे |मुल्ला बगल के तालाब में चले गए |उसमें मछलियाँ नहीं थीं | सारा दिन कांटा डाले बैठे रहे | मछली एक भी नहीं फंसी |एक व्यक्ति उन्हें लगातार देख रहा था |उनके पास जाकर बोला ,”आप उस तालाब में मछली पकड़ें यहाँ पर नहीं हैं | मुल्ला बोले,”वहाँ सब पकड़ रहें हैं |तालाब मछलियों से भर हुआ है वहाँ मछली पकड़ी तो क्या पकड़ी |यहाँ पकडू तो कोई बात है |” दरसल आसान काम से हमारा अहंकार तुष्ट नहीं होता | इसलिए उसको करने में रुचि नहीं रहती |  महात्मा  बुद्ध के बारे में कहा जाता था कि जब उन्होंने घर छोड़ कर भोग का त्याग किया और साधु  सन्यासियों की शरण ली तो भी उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ |उन्होंने वो सब किया जो करना को कहा गया पर ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ | आत्म बोध नहीं हुआ | मन बहुत निराश हुआ | भोग को भी त्याग और योग को भी त्यागा तब … Read more