अष्टावक्र गीता -1

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में |

अष्टावक्र गीता -1

आखिर क्या कष्ट रहा होगा बुद्ध को कि नवजात शिशु और अप्रतिम सुंदरी पत्नी यशोधरा को छोड़कर  इस संसार को दुख से मुक्त करने के लिए निकल गए | क्या दुख रहा होगा महावीर को कि राज महल के वैभव उन्हें बांध नहीं सके | दुख का कारण था एक ही प्रश्न ..संसार में इतने दुख क्यों हैं ?क्या कोई तरीका है कि संसार को इन दुखों से मुक्ति मिल जाए |

क्या हम और आप दुखों के जंजाल में घिर कर ये नहीं सोचते हैं कि आखिर क्या कारण है कि ईश्वर ने ये ये दुनिया बनाई और उसमें रोग, कष्ट , विछोह, मृत्यु जैसे दुख उत्पन्न कर दिए | आखिर क्या मजा आता होगा उस ईश्वर को ये खेल खेलने में ?

इस पर हसरत जयपुरी जी का लिखा हुआ एक बहुत ही प्रसिद्ध गीत भी  है ..

दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई .. काहे को दुनिया बनाई ..  

ऐसे में कोई आप से आकर कह दे कि ये आप ने ही बनाई है आप ही इसके कर्ता -धर्ता और नियंता हो .. तो ?

अहं ब्रह्मास्मि .. शिवोहम 

तो फिर स्वाभाविक सा प्रश्न होगा ,”फिर हमें क्यों नहीं पता ?”

उत्तर है :मन और बुद्धि ने हमें भरमाया हुआ है |

ठीक वैसे ही जैसे आइस -पाइस के खेल में बच्चे अपनी आँख पर खुद ही पट्टी बांधते हैं और सामने दिखाई देने वाली चीजों को पट्टी के कारण नहीं देख पाते और यहाँ-वहाँ टकराते जाते हैं |

ये खेल हमीं ने चुना है |

विभिन्न प्रकार के सुख -दुख हमारे बनने के काल समय और परिस्थिति पर निर्भर करते हैं |

ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या 

हम अपने ही बनाए इस जगत को इंद्रियों  द्वारा देखने -सुनने समझने के लिए विभिन्न जड़ -चेतन , जीव -जन्तु वनस्पति के रूप में आकार लेते हैं | ये बनना हमारा वैसे ही स्वभाव है जैसे लहर उठना समुद्र का स्वभाव है |

जैसे समुद्र में उठने वाली लहर पानी से अलग नहीं है |वैसे ही समग्र चेतना  हमारे अंदर समाई है |अज्ञान वश  हम अपने को अलग समझते हैं और यही दुख का कारण है |

फिर इससे मुक्ति कैसे हो ?

(इस आत्म स्वरूप को समझने के लिए द्वैत और अद्वैत दो सिद्धांत है )

अष्टावक्र कहते हैं ,“अभी और इसी वक्त “

जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार मिट  जाता है |वैसे ही अज्ञानता की पट्टी उतारते ही एक पल में बोध हो जाता है | और ये सबके लिए एक ही सच है | इसका किसी धर्म  से जाति संप्रदाय से कोई लेना देना नहीं है | इसके लिए कोई विशेष विधि, अनुष्ठान , प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं है |

अब सवाल ये है कि इतना सहज ज्ञान होने के बाद भी अष्टावक्र गीता इतनी प्रसिद्ध क्यों नहीं है ?

इसका एक मात्र कारण है कि मनुष्य का स्वभाव है कि उसे कठिन पर विजय प्राप्त करने में आनंद आता है | कोई चीज सहज और सरल है तो उसको करने का उतसह ही जाता रहता है | कभी बच्चों को खाना बनाना सिखाना शुरू करिए तो देखेंगे उन्हें दाल -चावल सीखने में आनंद नहीं आता | ये तो रोज का खाना है |इसमें क्या मजा |मटर -पनीर से शुरू करें तो कोई बात है और आजकल तो यू ट्यूब से देखकर कोई अनोखी चीज से ही शुरू करने का मन करता है |

अडवेंचर पार्क में सबसे कठिन झूले पर बैठना है |

गणित का सबसे कठिन सवाल हल करना है |

आत्म बोध इतना ही आसान है तो उसका आनंद ही खत्म हो जाता है | अष्टावक्र जिस बात को इतनी सीधी और सरल भाषा में कहते हैं |द्वैत सिद्धांत में इसके लिए तमाम अनुष्ठान जप तप भी हैं |वहीं हठ योग ये मानता ही नहीं नहीं कि जिस शरीर ने ये सारा भेद उत्पन्न किया है उसे दंड दिए बिना बोध हो भी सकता है | इसलिए कोई खड़ा राहकरकर शरीर को कष्ट देता है तो कोई एक हाथ का इस्तेमाल न करके | हाथ सूख कर लकड़ी हो जाता है | बहुत कष्ट सहने के बाद कष्ट रहित अवस्था आती है | पर एक हाथ सदा के लिए बेकार हो जाता है | पर उसे उसी में आनंद आता है |

ओशो अपने प्रवचन में एक कहानी सुनाया करते हैं | 

एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन अपने दोस्तों के साथ मछली पकड़ने गए | दो बगल बगल तलब बने हुए थे |जो तालाब मछलियों से लबालब भरा हुआ था ,सारे दोस्त वहीं मछलियाँ पकड़ने लगे | झाटझट मछलियाँ पकड़ में आने लगीं  |वो खुशी से चिल्ला रहे थे |मुल्ला बगल के तालाब में चले गए |उसमें मछलियाँ नहीं थीं | सारा दिन कांटा डाले बैठे रहे | मछली एक भी नहीं फंसी |एक व्यक्ति उन्हें लगातार देख रहा था |उनके पास जाकर बोला ,”आप उस तालाब में मछली पकड़ें यहाँ पर नहीं हैं | मुल्ला बोले,”वहाँ सब पकड़ रहें हैं |तालाब मछलियों से भर हुआ है वहाँ मछली पकड़ी तो क्या पकड़ी |यहाँ पकडू तो कोई बात है |”

दरसल आसान काम से हमारा अहंकार तुष्ट नहीं होता | इसलिए उसको करने में रुचि नहीं रहती | 

महात्मा  बुद्ध के बारे में कहा जाता था कि जब उन्होंने घर छोड़ कर भोग का त्याग किया और साधु  सन्यासियों की शरण ली तो भी उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ |उन्होंने वो सब किया जो करना को कहा गया पर ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ | आत्म बोध नहीं हुआ | मन बहुत निराश हुआ | भोग को भी त्याग और योग को भी त्यागा तब एक रात एक पेड़ के नीचे सहज ज्ञान प्राप्त हो गया |सिद्धार्थ बुद्ध हो गए | आत्मबोध हो गया |मैं मिट गया |

कोई भी विधि हो इस मैं रूपी अहंकार का मिटना ही आत्मबोध का होंना  है |

समुद्र या लहर एक ही है | लहर बनने से पहले वो समुद्र ही थी और लहर मिटने के बाद भी वो समुद्र ही है | खास बात ये है कि लहर रूप में भी वो समुद्र ही है पर खुद को लहर कह कर उसने खुद को समुद्र से अलग समझा  हुआ है |

कबीर दास जी ने इस विषय में बहुत सुंदर लिखा है ..

हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई
बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाई।

खोजते -खोजते कबीर खो गया | जब बूंद समुद्र में समा गई तो उसे कैसे खोज जाए |

लेकिन इसको लिखने के बाद कबीर दास जी को लगा की वो वो कुछ गलत लिख  गए हैं तो उन्होंने पुन : लिखा ..

हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई

समुंद समाना बुंद में सो कत हेरी जाई।

खोजते -खोजते कबीर खो गया | जब समुद्र बूंद में समा गया है तो उसे कैसे खोज जाए |

बूंद समुद्र में समा गई या समुद्र बूंद में समा गया | ये कहना मुश्किल है |

समग्र चेतना हमारे अंदर समाई हुई है या हम ही समग्र चेतना स्वरूप सारे संसार में आच्छादित हैं | एक ही बात है |

यही बात अष्टावक्र कहते हैं ..

अपने को देह से परे देखो 

तुम ही समग्र चेतन स्वरूप हो 

ऐसा देखते ही तुम एक क्षण में आनंदित , अविचलित और मुक्त हो जाओगे | 

कहते हैं नरेंद्र जब स्वामी राम-कृष्ण परमहंस के पास गए तो उन्होंने उनके प्रश्नों से जान लिया की इस बालक में सच्ची जिज्ञासा है अगर इसे शांत नहीं किया तो ये भटक जाएगा | हो सकता है अपना कोई संप्रदाय ही बना ले | उनके प्रश्नों का तुरंत निवारण करने हेतु उन्होंने अष्टावक्र गीता ही उनको पढ़ने को दी | जिसे  पढ़कर वो बंधनों से मुक्त हुए और स्वामी विवेकानंद बने | जिसके पास विवेक हो और मुक्ति का आनंद भी हो |

यही अष्टावक्र गीता का ज्ञान है |

ये ज्ञान बहुत ही सहज सरल है | जो बीस श्लोकों में कहा गया है | जिसे समझना बहुत आसान है पर आत्मसात करना थोड़ा मुश्किल है |

आगे के खंडों में हम इसके एक एक श्लोक की व्याख्या करते हुए समझने का प्रयास करेंगे |

शायद कोई लकीर हमारे मन पर खींच जाये ..

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