हारने से पहले

हारने से पहले

जीवन में हम कितनी ही बार परेशान होकर कहते हैं, “ये जीना भी कोई जीना है”या “इससे तो मौत भली”  पर वास्तव में जब मौत सामने या कर खड़ी होती है तो पीछे छूटता जीवन दिखाई देता है | मृत्यु  और जीवन कि इस संधि पर पल -पल हारते हुए व्यक्ति को अपनी पूरी जिजीविषा के साथ वापस लौटने के लिए क्या जरूरी होता है ? आइए जाने डॉ. पूनम गुज़रानी जी की कहानी “हारने से पहले” से .. हारने से ठीक पहले  टिप….टिप…. टिप…..टपकती हुई गुल्कोज की बूंदें पिछले चार दिनों से लगातार मेरे शरीर में प्रवेश कर रही थी। इसके अलावा जाने कितनी दवाइयां, इंजेक्शन, विटामिन, प्रोटिन मेरे शरीर में जा रहे थे पर शरीर पर इनका कोई असर हो रहा ये महसूस नहीं हो रहा था। बैचैन मन , अशक्त शरीर, उबाऊ दिनचर्या, गमगीन माहौल जीवन को निरन्तर मौत की ओर धकेल रहे थे। पी पी कीट पहने डॉक्टर…. नर्स…. और वार्ड बॉय….इस तनाव , उदासी को कम  करने में असमर्थ लग रहे थे। चारों ओर शोक ही शोक पसरा था। जाने कितने चले गए और कितने ओर इस महामारी की भेंट चढ़ेगे… कोई नहीं जानता…..। सांत्वना के शब्द बिल्कुल खोखले और बेमानी लग रहे थे। जब से मैं इस कोविड अस्पताल में भर्ती हुआ  मन रह-रहकर मौत की कल्पना करते हुए अपने आप से डर रहा है। न प्रार्थना में जी लगता…. न कोइ सपना जी बहलाने में कामयाब हो पाता…. दूर-दूर तक सधन अंधेरा…..उम्मीद की कोई किरणें आस-पास दिखाई नहीं दे रही है…..है तो सिर्फ मरीजों की दर्द से कराहती चीखें….. इमरजेंसी में भागती हुई हताश, बेबस नर्सें…. आक्सीजन की सप्लाई को लेकर चिंतित डॉक्टर…. पिछले चार दिनों में मेरे आस-पास की चार जिंदगियां लाश में तब्दील है गई…. इस खौफनाक माहौल में जब अपनी ही सांस को बारी-बारी कभी ओक्सोमीटर से, कभी नाक के आगे उंगली रखकर चेक करना पङता है तो दूसरों पर भला क्या भरोसा हो….सांस चलती है तो दिल पर संदेह की सुई अटक जाती है….. और दिल धङकने की आवाज से भी तसल्ली नहीं होती तो दिन में कई-कई बार थर्मामीटर लगाने की अजीब सी बीमारी जहन में पलने लगती है….। लगता है यमदूत बस आने ही वाला है ….। सोचते हुए रूह कांप जाती है…. पिछले कई दिनों से यही सब तो भुगत रहा हूं मैं। जब भी समाचार सुनता हूं विषबैल के बढ़ते हुए आंकङे मेरे भीतर की जीवटता को तिल-तिल कर मारते हुए प्रतीत हो रहे हैं। कभी कभी मन में सवाल उठता है कि ये क्यों हो रहा है…. भगवान…. खुदा…., परमात्मा…. कहां, कौनसी गुफा में बैठ गया कि उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा…. कुछ दिखाई नहीं दे रहा…..। फिर अगले ही पल इसका प्रतिकार करते हुए अपना ही दिल, दिमाग कहता है- भगवान…. खुदा…. परमात्मा…. कोई भला क्यों करेगा तुम्हारी सहायता…. स्वर्ग सी धरती का तुम लोगों ने क्या हाल किया है। अंधाधुंध प्रदूषण, अशांति, तनाव, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष की आग में सुलगते हुए इस ब्रह्माण्ड का कितना शोषण किया है तुमने….। तुम मानव नहीं….दानव हो दानव…. फिर भी बात करते हो परमात्मा की…. धिक्कार….तुम्हें सौ सौ धिक्कार… विजय के हाथ अपने कानों पर चल गये। कङ़वी सच्चाई से रुबरु होना वश की बात नहीं थी….। जो आया है उसे एक दिन जाना पर कदम- कदम बढ़ते मौत के साए में जीना मरने से कई गुना डरावना होता है। इसे उन सबने महसूस किया जिन्होंने चौहदह दिन अकेले अस्पताल में बिताए…..न कोई सर पर हाथ रखकर सांत्वना देने वाला….न कोई चार बार मनुहार करके खाना खिलाने वाला….न कोई दवाई लेने के लिए आंख दिखाने वाला ….न कोई दूध न पीने पर अपनी कसम देने वाला….इतने पर भी तो बस नहीं…. कोई मर जाए तो चार कंधे भी नसीब नहीं होते ….बाप के मरने पर बेटा नहीं जा पाया और बेटे के मरने पर बाप…. उफ…..जिंदगी बस अजीब सी दास्तां बनकर रह गई है आजकल….। जिंदगी में बङी से बङ़ी मुसीबत से मैं कभी नहीं घबराया पर आजकल दिल दिमाग सब के सब जङ हो रहे हैं।इसे वहम कहें या डर या वातावरण का असर कि पिछले छह महीनों में बारह बार अपना कोविड टेस्ट करवाया होगा मैनें…. पर हर बार नेगेटिव….. लेकिन चूहे की मां भला अब तक खैर मनाती….इस बार रिपोर्ट पोजिटिव थी। एक दो दिन ओल्ड एज होम में आइसोलेशन में रहा पर लगातार बढ़ती हुई खांसी….उखङती हुई सी सांस….जीभ से नदारद होता स्वाद…. आवाज में भारीपन…. कोई रिश्क नहीं लेना चाहता था मैं….न अपने लिए…. न अपनों के लिए….,। वृद्धाश्रम छोङकर मैं दयाल जी हॉस्पिटल में आ गया पर यहां स्थिति सुधरने के बजाय बिगङती चली जा रही थी। दो दिन बाद ही मुझे आई सी ओ में शिफ्ट कर दिया गया। धीरे धीरे तन-मन ढीले होते जा रहे हैं। भगवान के घर का बुलावा मानो साफ – साफ सुनाई दे रहा है। कल ही तो मेरे पास के बेड पर लेटा चालीस साल का युवक आक्सीजन की कमी के कारण चला गया। सरकार….मीडिया…. डाक्टर….परिवार….सब लाचार होकर मौत का नग्न नृत्य देख रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पा रहा…..कैसा विचित्र समय है…. आदमी आदमी के छूने से बीमार हो रहा है…. बहुत पीछे छूट गया किसी से गले मिलना , गर्मजोशी से हाथ मिलाना, जादू की झप्पी,हर दर्द की दवा मीठी सी पप्पी….. सोचते हुए विजय के आंखों से आंसुओं की बरसात होने लगी। अचानक अपने सर पर किसी का स्पर्श महसूस किया तो धीरे से आंख खोली। सफेद कपड़ों में ये कौन है…. क्या कोई परी…. क्या कोई अप्सरा…… क्या मैं मरकर स्वर्ग में आ गया…. कहीं कोई भूतनी तो नहीं …..कहीं मैं नरक में….. नहीं…. नहीं…. कहते हुए हङबङाते हुए मैं उठ बैठा…. पूरा बदन पसीने से तर-बतर…..मेरे ज़हन में शायद मरने के ख्याल को छोड़कर कुछ भी शेष नहीं रहा। अंकल यूं अकेले – अकेले आंसू बहाना कोई अच्छी बात तो नहीं….. मुझे बताइए क्या प्रोब्लम है…. आपकी आज की तो सब रिपोर्ट भी अच्छी है। फिर इस तरह दिल छोटा करने का मतलब….थोङा सा बहादूर बनिए…. खुद को संभालिए…. हौसले के बलबूते हर जंग जीती जा सकती है….। मुझे देखिए पिछले पूरे साल से इस हॉस्पिटल में कोविड के … Read more

अखबारों के पन्नों पर

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हम सब रोज अखबार पढ़ते हैं | अखबार की खबरें हमारी मानसिक खुराक होती है | पर ये खबरे किसी दर्द किसी अत्याचार या किसी अन्याय की सूचना होती हैं |अखबारों के पन्ने पर पन्ना दर पन्ना लिखी होती हैं शोषण की दस्ताने |आइए इस विषय पर पढ़ते हैं डॉ. पूनम गुज़रानी की महत्वपूर्ण गजल अखबारों के पन्नों पर पढ़ते पढ़ते कितना रोई अखबारों के पन्नों पर, सांझ हुई तो अक्सर सोई अखबारों के पन्नों पर। जाने वाले सैनिक का मासूम सा बच्चा भूखा था, नेताओं ने आंख भिगोई अखबारों के पन्नों पर। अरबों की खरबों की दौलत रहती बंद तिजोरी में, बस वादों की फसलें बोई अखबारों के पन्नों पर। लालकिले के सब गलियारे कानाफूसी करते हैं, किसने कितनी लाशें ढोई अखबारों के पन्नों पर। अपने हिस्से की खुशियां जो ‘पूनम’ जग को दे जाता, उसके खातिर सदियां रोई अखबारों के पन्नों पर। डॉ पूनम गुजरानी सूरत यह भी पढ़ें …. मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा कविता सिंह जी की कवितायें गीता के कर्मयोग की काव्यात्मक व्याख्या आपको गजल “अखबारों के पन्नों पर कैसी लगी ? अपने विचार हमें अवश्य बताएँ |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |