गईया-मईया- पी. शंभू सिंह जी की कहानी

गईया मैया

  गाय    की तुलना अक्सर स्त्री से की जाती है | साम्यता भी तो कितनी है दोनों में गईया हो या स्त्री ..  जिस खूँटे से बाँध दी जाती है आजन्म उसी से बँधी    रहती है | चाहे सूखा घास -फूस ही खाने को मिलता रहे पर पूरे घर की सेवा करने में जी जान से करती रहती हैं |  पर पितृसत्ता दोनों का ही दोहन करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ती | वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय शंभू पी सिंह जी भी अपनी कहानी में गईया मैया और स्त्री के एक ऐसे दर्द की तुलना करते हैं ..अपनी प्रकृति में भिन्न होते हुए भी जिनमें साम्य  है, वो है एक माँ का दर्द |पितृसत्ता अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए जहँ गईया से बछिया चाहती है वहीं स्त्री से पुत्र | और अनचाही संतान का एक ही हश्र , चाहें वो जन्म से पहले हो या बाद में |  पढ़ते हैं .. दो माओं के दर्द को एक तन्तु में पिरोती मार्मिक कहानी .. कहानी की समीक्षा यू ट्यूब पर देखें … कथा समीक्षा -गईया मैया गईया मैया  “रामायणी मैं जा रहा हूं खेत पर। आने में लेट होगी, तो गईया को सानी-पानी दे देना। उसका अंतिम महीना चल रहा है, इस बार बाछी हो जाए तो एक और गाय तैयार हो जायगी। अब ये बूढ़ी भी हो गई, समझो अंतिमें बियान है।” रामायणी को हिदायत करते, कंधे पर गमछा रख, गनौरी चला गया खेत पर। रामायणी मुंह में आंचल दबाए चुपचाप सुनती रही। गाय की इतनी चिंता है। दो दिन से कह रही हूं, एक बार डॉक्टर को दिखा दो, लेकिन मेरी बात का कोई असर नहीं। रामायणी ने टेलीविजन पर देखा है, डॉक्टर बोल रही थी कि गर्भ के बाद हर महीने जांच करानी चाहिए, सास उसे लेकर अस्पताल जाती नहीं, अकेले जाने देती नहीं और रोपनी का टाइम है, तो गनौरी को फुर्सत ही नहीं है। कुछ भी हो इस बार वह लिंग जांच तो नहीं करवाएगी। सास के दबाव में आकर तो दो बच्चे की हत्या कर चुकी है। इस बार जो भी हो, उसका भी अंतिमें होगा। रामायणी का यह तीसरा महीना चल रहा है। चार बच्चे तो जन चुकी, चारों बेटी। दो जिंदा है, दो को आने ही नहीं दिया। गर्भ में ही पता लग गया। अल्ट्रासाउंड की जांच में, दोनों बार लड़की ही थी। उसे तो कुछ भी नहीं पता, कब, क्या, क्यों किया, ये सब।जिसे आना है उसे आने दे, नहीं तो हमेशा के लिए टांका लगवा दे। अब बार-बार की जांच-पड़ताल। कहीं लड़की निकल गई तो दवा देकर अंदर ही मार देना कोई अच्छी बात थोड़े ही न है। मर कर बची थी रामायणी पिछले साल। इतना खून निकला कि लगता था अब दम ही निकल जाएगा। गनीमत ये हुई बड़े भैया आ गए। स्थिति देख तुरत एम्बुलेंस मंगाया गया और शहर के अस्पताल में भर्ती करा दिए, तो जान बची। मरद तो कुछ सुनता ही नहीं। बस रात में शरीर नोचने आ जाता है। उसकी किस्मत खोटी थी कि इस घर ब्याही गई। भैया चाहते तो किसी नौकरी वाले घर भी भेज सकते थे। पिता जिंदा होते तो यहां कभी नहीं ब्याहते। कितना प्यार करते थे। रोज बाबूजी को रामायण की चौपाई पढ़ते सुनाती थी। पांच साल की उम्र में ही वह रामायण की चौपाई पढ़ने लग गई थी। तभी उन्होंने मेरा नाम रामायणी रख दिया। जहां भी जाते मुझे साथ ले जाते। लोगों को बैठाकर चौपाई सुनवाते थे। गर्व करते थे मुझपर। भैया तो सात साल बड़े हैं। पिता जैसा सम्मान देती रही है। भैया तो चाहते भी थे कि थोड़ा अधिक दहेज दे देने से नौकरी वाला लड़का मिल जाएगा, लेकिन भाभी ने एक न सुनी। बस एक ही रट लगाती रही, तीन बहन है तेरी। एक का ब्याह नौकरी वाले के घर करोगे, तो बाकी का भी सोच लो। अकेले कमाने वाले, सात खाने वाले हैं। एक अदना क्लर्क की नौकरी से क्या कर सकते हो। जो भी करो सोच समझकर करो। बाबूजी के गुजरने से पहले भाई की नौकरी हो गई थी। खेती-पथारी से तो साल भर खाने का अनाज भी नहीं हो पाता था। भाभी भैया को हमेशा घर की बाकी जिम्मेदारियों का एहसास कराती रहती। कुछ नहीं तो अपने बच्चों के भविष्य संवारने की बात करना नहीं भूलती। यह सुन भैया चुप हो जाते। रामायणी किसी को दोष नहीं देती। सब किस्मत की बात है। जिसकी किस्मत जहां ले जाय, जाना ही पड़ेगा। आ गई इस घर में। साथ में भैया ने एक कर्यकी बाछी भी लगा दिया। आज वही कर्यकी बाछी, गाय बन गई है। इस घर में रामायणी और कर्यकी की हालत एक जैसी है। कर्यकी ने भी पिछले छह साल में चार बच्चा दे चुकी है। दुधारू गाय है। साल में नौ महीने दूध देती है। गाभिन होने के अंतिम तीन महीना ही दम मारती है। उसकी भी किस्मत रामायणी जैसी ही है। उसके चार बच्चों में पहली ही बाछी हुई, बाद का तीनों बाछा हुआ। दो को तो एक साल बाद ही कसाई के हवाले कर दिया। तीसरे को भी हटाने की तैयारी हो रही है। पता नहीं उतने छोटे बछड़े का कसाई क्या करता है। बछड़े के जन्म को लेकर भी रामायणी को ही सास का उलाहना सुननी पड़ती है। हर बात पर एक ही रट लगाए रहती है, जैसी कुलछिन अपने है, वैसी ही अपने साथ बाछी भी लेकर आई। अपने खाली बेटिये जनती है, तो नैहर से लाई बछिया खाली बछड़ा ही बियाती है। बाछी होती, तो एक साल के अंदर गाय बन जाती। इतनी दुधारू गाय है कि पचास हजार से कम में नहीं बिकती। बाछा तो अब किसी काम का रहा नहीं। हल से खेत जोतने का समय बीत गया। पहले हल और गाड़ी में बैल की जरूरत होती थी, तो लोग बछड़ा को पालते थे। अब खेत की जोताई ट्रैक्टर से होने लगी और बैलगाड़ी की जगह मोटर गाड़ी ने ले ली, तो भला अब बैल को कोई क्यों खरीदेगा। जब तक गईया दूध देती है, तभी तक बछड़ा दिखता है। जैसे ही उसकी कर्यकी गाय गाभिन होती है,  बेचारा बछड़ा कसाई के हवाले कर दिया जाता है। पिछ्ली बार भी तो … Read more