मै भी गाऊँ सांग प्रभु

मै भी गाऊँ सांग प्रभु

वसंत यानि प्रेम की ऋतु और फाग यानि मस्ती .. प्रेम और मस्ती के इस कॉम्बो पैक का असर भूलोक में ही नहीं देवलोक में भी है |  ऐसे मौके को  हमारे बाल गणपति कैसे जाने देते | और अपने माता – पिता के पास जाकर करने लगे जिद एक अदद दुल्हनियाँ की, और कहने लगे “हरदम उसके साथ रहूँ और, मै भी गाऊँ सांग प्रभु”  तो आइए चलते हैं  साहित्य फलक पर तेजी    से अपनी ठोस पहचान बनाते  युवा  कवि  कथाकार,उपन्यासकार सौरभ दीक्षित मानस की कविता  “” के साथ देव लोक में और देखते हैं कि हमारे बाल गणपति को दुल्हनियाँ मिलती है या डाँट .. मै भी गाऊँ सांग प्रभु गणपति बोले शंकर जी से, सुन लो मेरी मांग प्रभु। इससे पहले लीन तपस्या, हो जाओ पीकर भांग प्रभु।। मेरे हाथों में भी कोई, सुन्दर सुन्दर हाथ रहे, हरदम उसके साथ रहूँ और, मै भी गाऊँ सांग प्रभु। गणपति बोले शंकर जी से……………………….. तुम तो रहते मइया के संग, विष्णु लक्ष्मी साथ लिए। ब्रम्हा जी ब्रम्हाणी से संग, कान्हा जी बारात लिए।। हम तो बैठे बिकट कुंवारे मेरा भी उद्धार करो, अब तो कोई तिथि निकालो, दिखवाओ पंचांग प्रभु। गणपति बोले शंकर जी से……………………….. आ जायेगी मेरी दुल्हनियां, तुमको भोग लगायेगी। मइया के संग काम करेगी, घर भी मेरा बसायेगी।। जीवन गाड़ी दो पहियों की, हरदम साथ जो चलते हैं, मेरी गाड़ी खड़ी हुयी है जैसे हो इक टांग प्रभु। गणपति बोले शंकर जी से……………………….. सुनकर बातें गणपति जी की शंकर को हंसी आयी थी। पास खड़ी थीं गौरा जी भी मन्द मन्द मुस्कायी थी। बोलीं मेरे प्यारे बेटे तेरा ब्याह कराऊँगी, सबकी होती एक दुल्हनियां दो दो तुम्हें दिलाऊँगी। झूम झूम फिर गणपति नांचें करते हैं डिंग डांग प्रभु। इससे पहले लीन तपस्या, हो जायें पीकर भांग प्रभु।। …………………मानस यह भी पढ़ें .. जया आनंद की कविताएँ कविता विकास जी की स्त्री विषयक कवितायें aआपको कविता “मै भी गाऊँ सांग प्रभु” कैसी लगी |अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह

ऐ सुनो

पितृसत्ता की लड़ाई स्त्री और पुरुष की लड़ाई नहीं है ,ये उस सोच की लड़ाई है जो स्त्री को पुरुष से कमतर मान कर स्वामी और दासी भाव पैदा करती है |कई बार आज का शिक्षित पुरुष भी  इस दवंद में खुद को असहाय महसूस करता है | वो समझाना चाहता है कि भले ही तुमने सुहाग के चिन्हों को धारण  किया हो पर मेरा अनुराग तुम्हारे प्रति उतना ही है |सौरभ दीक्षित ‘मानस’की ये कविता प्रेम और समर्पण के कुछ ऐसे ही भाव तिरोहित हुए हैं……. ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह माँग में सिन्दूर भरकर नहीं घूमता। लेकिन मेरी प्रत्येक प्रार्थना में सम्मिलित पहला ओमकार तुम ही हो। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह आँखों में काजल नहीं लगाता। लेकिन मेरी आँखों को सुकून देने वाली प्रत्येक छवि में तुम्हारा ही अंश दिखता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह कानो में कंुडल नहीं डालता । लेकिन मेरे कानों तक पहुँचने वाली प्रत्येक ध्वनि में तुम्हारा ही स्वर होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह गले में मंगलसूत्र बाँधकर नहीं रखता। लेकिन मेरे कंठ से निकले प्रत्येक शब्द का उच्चारण तुम से ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैरों में महावर लगाकर नहीं चलता। लेकिन मेरे जीवन लक्ष्य की ओर जाने वाला प्रत्येक मार्ग, तुमसे ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैर की अंगुलियों में बिछिया नहीं बाँधता। लेकिन मेरी जीवन की प्रत्येक खुशी की डोर तुमसे ही बँधी हुयी है………मानस आपको सौरभ दीक्षित  जी की कविता कैसी लगीं हमें अवश्य बताएं | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेबसाईट सबस्क्राइब करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |