कुछ ही मिनट विलंब के कारण ट्रेन छूट गयी । कानोँ तक आवाज आई, पीरपैँती जानेवाली लोकल ट्रेन पाँच नंबर प्लेटफार्म पर खड़ी है । गणतव्य तक पहुँचने
की नितांत आवश्यकता ने मतवाली गाड़ी के पीछे दौड़ लगाने को कहा । हाँफते
हुए उस डब्बे के करीब पहुँचा जहाँ भीड़ कम दिखाई पड़ी । देखते ही आँखेँ
झिलझिला गई, आदमी तो कम लेकिन बड़े गठ्ठर से लेकर छोटी बोड़िया की ढेर लगी
हुई ।
किसी तरह अंदर प्रवेश किया । सीट पर तो दो–चार महिलाएँ ही बैठी हुई थीँ,
ज्योँही उसकी नजर मुझपर पड़ी और सीट पर पसर कर बैठ गयी ।
कुछ देर यूँ ही टुकूर–टुकूर देखता रहा, भला कोई मर्द रहे तब तो अपने
हिस्से की बात कही जाए । मन मेँ वेवकुफाना सोच भी उत्पन्न हुआ, ऐसा तो
नहीँ महिला बोगी मेँ आ गया ।
एक महिला पास बैठी महिला से बोली,
“बोयल दहो न आगु चैल जैतेय, यहाँ
खड़ा–खड़ा टटुआय जैतेय।“
आपस मेँ खिलखिलाती हुई बोली, “आगु चैल जा न खालिये छैय…।“
बोल ही रही थी कि मुखर्जी आके बढ़ा, वहाँ भी जस–के–तस । समझ से परे हो चला
। एक अधेर महिला ठिठोली मेँ मग्न थी । देखते ही बोली, कहाँ जाएगा , बैठ
जाईये । थोड़ा–थोड़ा खिसक कर जगह बना दी । मुखर्जी भी बैठ गया, वही
टुकूर–टुकूर वाला स्टाईल मेँ ।
अगला स्टेशन मेँ कल्याणपुर मेँ दो महिला आ धमकी । चाल–चलन, पहनावा–ओढ़ावा
से थोड़ी पढ़ी–लिखी मालूम पड़ रही थी । हिम्मत नहीँ हुआ कि बोल पाऊँ बैठ
जाईये । दोने खड़े–खड़े बातेँ करती जा रही थी ।
पास मेँ बैठी महिलाओँ मेँ एक बोली,
“नरसिनिया होते – कहो आगु जाय ले…।“
दूसरी बोली,
“अरे नाय–नाय ! यहाँ के नेतवा की कैल कैय नाय जाने छो, सब
घसघरहनिया के हाथो मेँ कलमोँ थमाये देलकैय और ई सब देखैय नैय छो– एक कखनी
मेँ बैगवा लटकाय के दौड़ा–दौड़ी करैत रहल छैय
…।“
वह दोनोँ महिला अनसुनी करती हुई आगे बढ़ गई । ठीक बगल वाला सीट पर बैठ गई
। कभी बुनाई की बात तो सिलाई की….। विद्यालय के बच्चोँ की शिकायत ट्रेन
पर करती रही ।
एक शिक्षिका महोदया चर्चा छेड़ी, क्या बतावेँ दीदी, एक बार मैँ मुंबई गई
थी, अपने मालिक के संग । वे पहले वहीँ काम करते थे । समय पर रुपया–पैसा
भी नहीँ भेजते थे । मैँ भी घरनी बन आस लगाए ताकती रहती थी । कब डाक बाबू
आवे ? रुपया–पैसा का टांट बना ही रहता था । सोची जब तक पुरुष को कसके
नहीँ पकड़ा जाए तो, छुट्टा घोड़ा बन जाएगा । गाँव–गिराम मेँ भी सुनती आ रही
थी, परदेश मेँ वे लोग बिगर जाते हैँ । बात भी सही है ।मैँ चली गई । वहाँ की हालात देखकर तो हँसी भी आती है और घूटन भी कम नहीँ ।
एक दिन बाजार घूमने निकली, देखकर तो मेरी आँखेँ चकरा गई। अधनंगी छोरी तो
थी ही, मेरी मां की उम्र की भी महिला आधे कपड़े मेँ खुद को बेढ़ंग दिख रही
थी।
मेरे पति उस ओर दिखाकर कहने लगे।
देखो, यही है शहर । तुमलोग खामखाह बदनाम करती रहती हो।
“देख रही हो न!”
मैँ कुछ नहीँ समझ पाई । झट से उसके आँखोँ पर हाथोँ से ढ़क दी और बोली , आप
उधर मत देखिये ।
दूसरी महिला ठहाका मार कर हँसने लगी …..। अरे आप तो कमाल कर दिया, तब क्या हुआ ?
आपको हँसी आती है ? मेरा तो प्राण ही निकला जा रहा था। घर मेँ तो वे कुछ
समझते ही नहीँ थे। डर के मारे कुछ बोल भी नहीँ पाती थी। फिर भी हिम्मत
करके बोली, आज के बाद इस रास्ते से नहीँ गुजरेँगे।
वे हकचका कर बोले, तब तो ठीक है। गंधारी के तरह आँखोँ पर पट्टी बांध दो,
तुम आगे–आगे और मैँ पीछे–पीछे चलता रहुँगा।
कुटिल मुस्कान नारी मन मेँ बदबू भी उत्पन्न कर रही थी।
पल भर के लिए मैँ उधेर बुन मेँ विचरण करने लगी। भला मैँ क्या करुँ?
रास्ते भर चलती रही। जहाँ कहीँ अधोवस्त्र का दर्शन होता, मैँ उनके आँखोँ
पर हाथ रख देती।
आगे बढ़ती गई। बंबईया चकाचौंध से लड़ते हुए अपनी मरैया तक पहुँच गई जहाँ
ढेर सारे बच्चोँ की भीड़ टुकड़े पुरजे से बने बसेरा जो क्षण भर मेँ गाँव की
याद ताजा कर गई।
सरकार तो हम महिलाओँ के लिए भगवान बन उतर आये, न तो भला नौकरी मिलती?
कितना पढ़े–लिखे दिल्ली–ढ़ाका खाक छान रहा है। यहाँ भी लफुआ–लंगा बन
चोरी–डकैती पर उतारु है, उससे तो हम भला हैँ।
साथी महिला बोली, अभी कहाँ हैँ आपके —?
अब भला मैँ साथ छोड़ूँ। वह कठमर्दवा भी आशा मेँ ही था, छोअन–भोजन साथ चले।
मैँ भी सोची सोने पे सोहागा।
अब तो बस दिनभर घर के काम मेँ इधर–उधर मंडराते रहता है। मैँ अपनी डयूटी
मेँ मगन रहती हूँ।
अचानक गाड़ी की सीटी बजी और आगे बढ़ गई। चिल्लाई, लो जी! तुम्हारे चक्कर
मेँ गाड़ी भी खुल गई । क्षण मेँ चुप्पी ने अपना दबदबा बना दिया।
चिँतित स्वर मेँ बुदबुदायी। ट्रेन भी कोई गाड़ी है, ऑटो से आती तो रुकवा
कर उतर भी जाती, इसे कौन कहने वाला?
इधर एक महिला ठहाके के साथ ताने दी, “हम्मे कहलियो नै कि घसगरहनी सब
मास्टरनी बैन गेलैय– पढ़ल–लिखल रहैय तब नै नामो पैढ़के उतैर जाये। औकरा से
अच्छा हमसब छियै, अगला स्टेशन कोन अयतैय पता छैय….।“
मुखर्जी चुप–चाप सुनता जा रहा था।धीरे–धीरे भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। डब्बे की यह हालात कि हर कोई चढ़ने वाले
रिश्ते मेँ बंधे हो, मानो एक दूसरे से पारिवारिक संबंध हो। कोई संकोच
नहीँ, आना और बैठ जाना। बातचीत भी जारी।
पसीने से तरबतर एक महिला आई, अपने गट्ठर को उपरी सीट पर फेँक कुछ बोलना
चाही तब तक मेँ मुखर्जी थोड़ा खिसक गया। वह बैठ गई। तभी पहले से बैठी
महिला बोली, “आंय हे बरियारपुर वाली तोहर मर्दवा कारी माय संग फंसल छौ
की…..।“
मैले कुचैले साड़ी का आंचल मेँ ही पसीना पोँछी और राहत की सांस ली। किसी
तरह की सकुचाहट नहीँ, न ही घृणा।
बोली, “आजो कल भतरा अपने क शेर समझी रहल छै। बिलाय नियर घौर मेँ बैठलो
रहल और गुरकी देखायव मेँ आगु। अपने फुसुर–फुसुर कनचुसकिया मशीनमा से करैत
रहल औअर घरनी पर इलजामोँ लगायत रहल…। कौन एयसन मरदौ होतैय जे घरौ मेँ
बैठलो रहतेय और ओकर मौग घौर–बाहर दोनोँ समहालतैय। हम त जंजालो मेँ फंसी
गैलोअ छिये न तो कवैय ऐसन मरदौ के छोयर के चैयल जैतिहिये रे ….।“
बचवा के मुंहो देखी के रही रहलिये….।
दूसरी महिला जो आस–पास की ही थी, वह भी बिना संकोच किए पुरुषोँ पर प्रहार
करना शुरु कर दी…।
“बहिन ठीके कही रहल छो…. हमरो मरदौ कहि रहलो छैय, अकेलो–अकेलो हरदोम
भागलोपुरोव जाय छो, कोय चकरो चलाय छो कि….?”
गाड़ी नाथनगर स्टेशन पहुँचने वाली थी। एका–एक ट्रेन खाली होना शुरु।
भागलपुर पहुँचते–पहुँचते गाड़ी पर इक्का–दुक्का ही सवारी बची रही।
गाड़ी खुलती ही भीड़ पहले की तरह हो चली। सभ्यता के चादर से ढ़ंके, पुरुषोँ
से सभ्य दिख रही थी… महिलाएं । इशारे–इशारे मेँ चार के जगह सात–आठ बैठ
गये।
कुछ बोलने मेँ भी नहीँ बन रहा था ….। सबके सब डेली पेसेन्जर मान गाड़ी
को दखल कर रखी थी….।
हिम्मत जुटायी, कुछ बोलूं । पर मुखर्जी की बातोँ मेँ कोई दम नहीँ; आँखेँ
फेर ली, मानो प्रत्येक पुरुष उसे मर्द ही दिखाई पड़ा हो। कुछ ही देर मेँ
सफेद कुर्ता–पैजामा वालोँ की भीड़ जमा होने लगी। पूरी गाड़ी को अपने कब्जे
मेँ कर लिया… चुनावी माहौल की दुर्दाँत नतीजा। नेताजी फुलोँ से लदे,
दोनोँ हाथ बांधे बोले जा रहे थे ।
“हमू तोरे गाँव घौर के बेटा छियोव, एक बार धियान दै दिहौ– फेर ई कसम–कस
से छुटकारा देलाना हम्मर काम छै – औअर तोरा सबके लाठी डंडा से पुलिसवा जे
तंग करैय छौ, ऊ सबके अस्पताल देखलो ने वहीँ रहतैय।“
नेताजी के पीछे कई समर्थक जो वोट नहीँ मांग रहे थे, बल्कि गरीबी से जुझते
हुए फटे–चिटे कपड़ो द्वारा निहारनेमात्र से धन्य–धान्य समझ रहा था। उसकी दोगली निगाहेँ अधेर नहीँ बल्कि
कमसिन को ढ़ूंढ़े जा रहा था। डब्बे मेँ प्रत्येक सीट के पास दो–एक चमचोँ का
बखान परवान पर था। जैसे पालनहार आ गये होँ। गाड़ी धीमी होती ही जिंदाबाद
जिँदाबाद नारोँ के साथ पटाक्षेप कर गये।
महिलाओँ मेँ कानाफुसी शुरु। अभद्र व्यवहार का जिक्र देहाती अंदाच मेँ।
कानोँ मेँ झनझनाहट पैदा कर दी। चमचोँ ने महिलाओँ की अस्मत के साथ खिलवाड़
करना चाहा। उसे धक्का देते हुए वाथरुम की ओर ले जाने की दानवी प्रयास
किया।
भगवान का ही शुक्र है कि मैँ बच गई, वरना न जाने क्या होता? कभी
पुलिसवालोँ के गंदे हाथ, कभी कर्मचारियोँ के नपाक हाथ तो कभी स्थानिय
गुंडोँ चिथड़े मन के द्वारा वर्षोँ से सतायी जा रही हूँ। फिर भी यह ट्रेन
साथ नहीँ छोड़ती। निःसंकोच बोली जा रही थी। हमलोग तो इस लोहे की पट्टी को
छोड़ कबके उतर जाती पर, यह भूख और उसकी (पति) अमानुषी सोच, खीँच लाती है
और अपने साथ निर्जीवता लिए चलने को मजबूर करती है।
बीच मेँ ही हिम्मत जुटाकर मुखर्जी ने कहा, ईश्वर प्रत्येक जगह है, उनका
ध्यान हरेक प्राणी पर समान भाव से है। अनाचारियोँ को सजा देना निहित
कर्तव्य है।
बगल मेँ बैठी महिला पहले तो मुस्कान बिखेरी।
मुखर्जी सोचा शायद मेरी आस्तिकता पर हँसी आ गई होगी। चुप रहा ।
“ईश्वर, वही भगवनमा का बात करते हो, जो चोर–गुंडोँ को भी घंटो तक शक्ति
देता रहता है और हम भीड़–भरक्का मेँ तड़पते रहते हैँ!”
उस महिला की आवाज से मुखर्जी सन्न रह गया।
बोली जा रही थी, अरे! कहानी सुनती आ रही हूँ, द्रोपदी को कृष्ण ने बचाया
था। उस अबला के पास बचा क्या, जब साड़ी से जमीन लद ही गया। मैँ नहीँ मानती
अत्थर–पत्थर को। मैँ तो दो–दो हाथ करना जानती हूँ। उस गुंगा से क्या
उम्मीद जो कुछ फुल–पत्तियां, लड्डु–बतासोँ की महक से व्यभिचारी को साथ
दे।
बातोँ मेँ ही ट्रेन पीरपैँती स्टेशन पहुँचने वाली थी। मुखर्जी ने हिम्मत
को दुहराया और कहा, बहन! वाकई आपलोग जज्बाती हैँ। कठिन रास्तोँ को लांघने
की पूर्ण क्षमता है, भारतीय नारी की प्रतिमान को स्थापित रखने की साहस
है। आप सबोँ की जिन्दगी तप के समान है।
दूसरी महिला जो महिला मानी गई थी, पहनावा से। शायद गरीबी और ग्रामीण
संस्कृति ने उम्र से पहले ही मां बनने के लिए मजबूर किया होगा।बोली, नहीँ ! आप अभी सामर्थ्यहीन हो। मेरी जिन्दगी तप नहीँ बल्कि लाचारी
को लीलने के लिए है, तप तो निःसहाय मानव का ढ़ोंग है, दुर्बलता की परिचायक
है। मैँ ढ़ोँगी पर विश्वास नहीँ रखती हूँ। ट्रेन के रफ्तार से कहीँ अधिक
तेज मेरी जिन्दगी चलती है। चलती ट्रेन मेँ दौड़ती औरत का मिसाल हूँ। गाड़ी
स्टेशन पर रुकी, मुखर्जी धीरे–धीरे डब्बा से बाहर आ गया। उसके कानोँ तक
आवाज टकराई, “ऐसे सब मरदौ उपदेशो देते रहलौ छैय” जब तक ट्रेन खुल नहीँ
गई, मुखर्जी देखता रहा और अंतस की आवाज निकली– सच मेँ ट्रेन की रफ्तार
धीमी थी और कानोँ से टकराई आवाज तेज…….।
संजय कुमार अविनाश लखीसराय बिहार
मोबाइल 09570544102
samast chitr googal se saabhar