धन वैभव इन सबसे बढ़कर,है अनमोल आशीष तेरा ॥
कुछ दिया नहीं बस पाया है ।
आज भी कुछ मांगती हूँ ॥
जाने -अनजाने अपराधों की ।
बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे ।
बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे
॥
वंदना बाजपेयी
माँ यशोदा की तरह
प्यारी न्यारि ……
लिखती हूँ जब कागज
के पन्नों पर ,
एक स्नेहिल छवि उभरती है
शायद…….संसार की सबसे
अनुपम कृति है …..’माँ ‘
जब भी सोचती हूँ माँ को ,
हर बार या यूं कहें बार-बार
माँ के गोद की सुकून भरी रात
और साथ ही ,,,,,,
नरमी और ममता का आंचल
और भी बहुत कुछ
प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार
ऐसा होता है माँ का प्यार …….
हर शब्द से छलक़ता ,,,,,
प्यार ही प्यार …
सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह
और समर्पण ,
ही पहचान है ,उसकी अपनी
तभी तो इस जगत में,
”माँ” महान है …….!!!
संगीता सिंह ”भावना”
आज समझ सकती हू माँ तेरा
वो भीगी पलकों में तेरा मुस्कुराना
हसकर सब सहते हुए भी
अपने सारे दर्द छुपाना
न बताना किसी को कुछ
अपनों से भी अपने ज़ख्म छुपाना
जब दे कर जोर पूछती मैं तो
यही होता हरदम तुम्हारा जवाब
न बताना किसी को दुःख अपने
यह दुनिया है बड़ी ख़राब
यह सब सामने तो सुनती
पर पीठ पीछे हसती है
न बता सकते हम दुःख माँ बाप को
क्योंकि बेटियो में उनकी जान बसती है
वो भी दुखी होते है बेटियो के साथ
न देख पाते है बेटियो के टूटे ख्वाब
न कर पायेगे वो फिर इज़्ज़त दामाद की
देखेगे जब उनको तो याद आएगी
बेटी के टूटे हुए अरमानो की
पर इतना याद रखना मेरी बच्ची
तुम भी एक औरत हो कल तुम्हे भी
ब्याह कर किसी के घर जाना है
जो न करवा पाती अपने पति कि इज़्ज़त
उनकी भी इज़्ज़त कहा करता यह ज़माना है !
दर्द हो जो भी उसे अपने अंदर समेट के रखना
लेकिन हद से ज्यादा ज्यादतियां भी
कभी न तुम बर्दाश्त करना
थोड़ी बहुत कहासुनी हर घर में होती है
कभी न उसे झगड़े का रूप तुम देना !!!
गर्व होता अब मुझे खुद पर
मैं भी तुम्हारी तरह हो गई हूँ माँ
तुम्हारी ही तरह झूठी जिंदगी जीना
मैं भी अब सीख गई हूँ माँ
भीगी पलकों से अब
मैं भी मुस्कुराती हू
किसी को न अपना दर्द सुनाती हू
गर हो गई कभी इंतेहा दर्द की
तो आँखे बंद कर सपनो में
मैं तुम्हारी गोद में सो जाती हू
मन ही मन बता देती हू तुम्हे सारे दर्द
अपने सर पर तुम्हारे हाथो का
प्यार भरा स्पर्श तब पाती हू
आ जाती है एक नयी उमंग सी मुझ में
फिर मुस्कुराते हुए इस झूठी दुनिया
का सामना करने तैयार हो जाती हू ।
उल्हासनगर / मुंबई
वो तुम ही हो मां …
जिसने मुझे
जिंदगी का मतलब बतलाया
रिश्तों को निभाने का
अर्थ समझाया
वो तुम ही हो मां जिसने …
दुनिया की ना सुनके
मुझपर विश्वास जताया
और जिंदगी में आगे बढने के लिये
अपना उत्साह दिखलाया
वो तुम ही हो मां जिसने..
पिता की कमी को पूरा किया
जब मन उदास होता था
उनकी कमी का अहसास होता था
तब तुमने पापा बनके
मेरा मन बहलाया
वो तुम ही हो माँ जिसने…
मेरा साथ दिया
जब जीवन साथी चुनने की बारी आई
बाकि सभी ने अपनी नाराजगी जताई
तब मेरी खुशियों के लिये
उनकी नाराजगी भी सही
पर मेरी खुशियों की खातिर
अपनी जिद्द पर अङी रही
वो तुम ही हो मां जिसने..
मुझमे ममत्व जगाया
बेटे बेटी में फर्क न करना
तुमने ही सिखलाया
अब मैं भी मां
तुम जैसा बनना चाहती हूं
बेटियों को अपने
वही संस्कार देना चाहती हूं
मां…
तुम सदा यूं ही साथ रहना
जिंदगी के हर पङाव में
मेरा मार्ग दर्शन करना
क्यूंकि
वो तुम ही हो मां..
जिसपर मैं आज भी
आंख मूंद भरोसा करती हूं
और ये भी जानती हूं
इस प्यार का कोई मोल नही
दुनियां में मां जैसा रिश्ता
कोई अनमोल नही ।
अपने गर्भ में उमड़ती
अठखेलियों को
उसी क्षण से वो माँ होती जाती है
टाँकती है किलकारियाँ वो
अपने आने वाले रूप में
बुनती है तरंगों के ताने बाने
अपनी सौम्य रचना को
ज़्यादा मनोहारी बनाने में,
पिरो के उम्मीदों के धागे
काढ़ती है मन मानस को
और उकेर लेती है व्याख्या
अपनी नवाढ्य रचना के अस्तित्व की,
वो अब ख़ुद के लिये
शब्दों की ख़ुराक नहीं लेती
संयोजित करती है
उनको अपने अब तक के
साधने के लिये
उठता है उसका हर डग अब
अपने विन्यास को संरक्षित रखने के लिये
जिस क्षण से वो माँ होती है
तभी से
ब्रह्माण्ड की सबसे श्रेष्ठ
रचना वो …गढ़ डालती है
शबाना कलीम अव्वल
से बनाया गया पंखा)
अम्मा,
हर साल बनाती थी,
अनेकों बीजना – झालर वाले /
रंगीन / सींकों से बने ।
भरी दोपहर मे,
बीजना झलती रहती हम पर, जेठ की
गर्मियों मे ।
रात भर, हाथ चलता
रहता उनका,
और हम सोते रहते निश्चिंत – बिना
मच्छरों के ।
मच्छरों की बददुआएं अम्मा को लगती,
और अम्मा सूखती जाती साल दर साल / खून जो
न पीने देती उनको हमारा ।
—
अम्मा,
अब कूलर/ ए.सी. में रहती हैं,
गर्मियों मे,
पर चलता रहता है हाथ मे बीजना, रात भर,
उनको नींद जो न आती / बिना हाथ हिलाये ।
अब, मच्छरों की
बददुआएं भी अम्मा को नही लगती,
बल्कि, कूलर/ ए.सी.
को लगती हैं,
हर साल खराब जो होते हैं ।
—
अम्मा की जान है बीजनों मे ।
जब कोई बीजना टूटता है,
अम्मा टूटती है, और खिसकती
है मृत्यु की ओर ।
—
गर्मी आने वाली है,
कुछ बीजने खो गए हैं / कुछ टूट से रहे
हैं।
अम्मा भी अब,
मंद सी पड़ती जा रही है साल दर साल ।
मैं ढूंढ रहा हूँ बीजने,
घर के कोने कोने – ज्यादा से ज्यादा ।
हिमांशु निर्भय


********* माँ **********
कविता जैसी कोमल माँ,
माँ गंगाजल सी पावन है!
माँ ममता का गहरा सागर ,
प्यार भरा माँ का आँचल है!
गर्भ में पहली अनुभूति से,
जो संस्कारों से पोषित करती है!
गर्भ की पीडा सहकर भी जो,
संतान की खातिर खुश रहती है!
माँ की ममता इतनी गहरी,
कि सागर रीते पड जाते हैं!
माँ की ममता की छाँव तले,
नन्हें अंकुर वृक्ष बन लहलहाते हैं!
माँ ही गुरू है,माँ ही ईश्वर,
माँ में सारे वेद, समाहित हैं !
हर उपमा में ही है माँ,
नहीं माँं जैसा कोई ओर है!
अपने ही लहू से माँ देखो,
संतान को गर्भ में सिंचित करती है!
दुग्ध पान करा फिर वो,
अपनी संतान में बल भरती है!
माँ का आशीष जहाँ रहता है,
देखो बुरी बलायें नहीं आती हैं!
माँ संतान के भविष्य की खातिर,
सारी दुनियाँ से लड जाती हैं!
कितनी सुंदर कितनी भोली,
माँ सच्ची मित्र सहेली है!
संतान के हित की खातिर,
माँ ढाल तलवार के जैसी है!
धरा जैसी सहनशील माँ,
हर भूल माफ कर देती है!
बिगड न जाये कहीं बच्चा उसका,
उसे सीख प्यार से देती है!
डाँट में भी माँ की निहित,
सुख संतान का होता है!
नसीब वाले होते हैं, सिर जिनके,
माँ का आँचल होता है!
भूल से भी अपने बच्चों को,
माँ बद्दुआ नहीं देती हैं!
पर अति सहने कि हो,
नदी भी बाँध तोड देती है!
माँ फूलों की फुलवारी सी,
कदमों में माँ के जन्नत है!
माँ से ही त्यौहार हैं सारे,
माँ में समाहित सब तीरथ हैं!
“आशा” इस जीवन में देखो,
वो कभी नहीं सुख पाते हैं!
अपनी माँ की ममता को जो,
फ़र्ज़ का नाम दे जाते हैं!
किसी भी बच्चे के जीवन से, उसकी माँ का जाना एक एसी क्षति है जिसकी पूर्ती वक़्त भी नहीं कर पाता,जीवन के आखरी पल तक माँ की कमी रहती है,तो आओ सब माँ का सम्मान करें,माँ हर मज़हब जाति पाति से परे कुदरत की अनुपम रचना है,जिसकी गोद के लिये तो स्वंय देवता भी तरसते हैं,जो की समस्त सृष्टी के रचियता हैं!दुनियाँ की हर माँ को मेरा नमन !
...राधा श्रोत्रिय”आशा”
०४-०२-२०१५
मेरी ये रचना मेरी माँ श्रीमति मुन्नी देवी शर्मा को श्रद्धांजली है
देखा है एसा अनोखा रिश्ता
एक बछड़े का
शेरनी बछड़े के पीछे-पीछे
शायद खा जाएगी इसे मारकर
कर रही है उसकी
है
शिकार पर , चिंतित है , व्यथित है
जानवर इसे शिकार न बना ले
दो दिन , नहीं …. पूरे चौदह दिन
शेरनी को
अनभिग्य ख़तरे से
जंगल के नियम
शेरनी के पास
सहलाती है उसे
जाए वह
जागती है हर आहट से
रही है
शिकार उस बछङे का ,
निढाल,
ढलने लगा है उसका
शरीर
रही बछङे के साथ
कई दिनों से
आहट पे ,
डराने के लिए
कमजोर समझ न मार डाले बछङेको
करते आ गया चौदहवाँ दिन…..
पाएगी अब
के लिए ,
दे रही है अंतिम ममत्व, दुलार
हो कर भी जाग गया है उसका मातृत्व
एक
चेन्नई
सौभाग्यशाली है दुनिया में
जिसे माँ का आँचल मिला है
संकटमोचन देवी मिली
खुशियों का सब फूल खिला है
दुनिया में कोई दिल नहीं है
दे सके जो माँ का प्यार
सफलता की मिन्नतें करती माँ
भगवान की वह है अवतार
जीवन का सौभाग्य समझती
एक नारी जब बनती है माँ
वह बच्चा ही पूंजी होता है
वही होता जीवन जहां
हर भारतीय बच्चा भी यहाँ
प्रथम वचन माँ-माँ बोले
हर खुशी या कष्ट में मूँह से
अनायास माँ ही शब्द निकले
त्याग की मूर्ति होती माँ
वट वृक्ष बन देती चैन
जरा मलिनता देख मुख पर
बिता देती पलकों में रैन
उम्र बिकने की चीज होती
खुशियों की होती दुकान
माँ उसे जरुर खरिदती
चाहे किम्मत होती जान
कुबेर का खजाना एक ओर
साथ स्वर्ग की खुशियाँ सारी
दुसरी ओर माँ का आँचल तौलें
माँ का आँचल ही होगा भारी
एक अर्ज है इस आँचल को
कभी न गंदा करना
इतना ही तुम भी प्यार देकर
इसकी आँचल तल रहना
___दीपिका कुमारी दीप्ति
करहरा पालीगंज पटना
माँ को नहीं आता था मेहंदी मांडना,
वो हथेली में मेहंदी रख के कर लेती थी मुट्ठियाँ बंद,
मेरी तीज, मेरे त्यौहार,
सब माँ के हाथों में रच जाते थे इस तरह ………..
शगुन का यह खा ले,
शगुन का यह पहन ले,
माँ करा लेती थीं, न जाने कितने शगुन,
पीछे दौड़ भाग के…….
रचा देती थीं मेरे भी हाथों में मेहंदी,
चुपके से आधी रात को…….,
माँ,
मैंने नहीं सीखा तुम्हारे बिना, त्यौहार मनाना, ……
शगुन करना, मीठा बनाना, मेहंदी लगाना,
तुम डाँटोगी फिर भी…..
अब हर तीज, हर त्यौहार,
मैं जी रही हूँ तुम्हारा वैधव्य तुम्हारे साथ …………….
अपर्णा परवीन कुमार
एक माँ का पात्र आप सब के लिए
हाँ हाँ ,मैं आप सब से ही बोल रही हूँ
जिसको आप मेरी गोदी में
चिपका देख रहे है ना ——–
वो मेरा नन्हा सा अति प्यारा बेटा है
दादी बाबा का दुलारा ——-
घर के बाहर की दुनियाँ कैसी होगी
इस बात का तजुरवा कम है इसे
पर कोशिश करेगा
आप सभी पर विश्वास जमाने की
छोते है ना, उसकी आँखों के घेरे
उसके कोमल मन को ठेस ना लग जाए
क्योंकि इसी मन से तो संवारना है
इसको अपना संसार ————
आज स्कूल जाने से पहले घूमाने निकली हूँ
सोचा,परिचित करा दूँ आप सब से
शायद कभी वक्त पड़े तो पहचान सको
आज कक्षा में पहला दिन है
सर….. इसे… कई बार …
बोलने पर समझ आता है, हाँ इतना कह सकती हूँ
कि माँ कहना इसे अच्छे से आता है
अभी ————————
छोटे छोटे कंधों पर इतना बोझ
कैसे उठा पाएगा मेरा बच्चा ??
उसे इस बात का फर्क नहीं पड़ता
लेकिन मुझे पड़ता है———-
अब सारी शिक्षा तो स्कूल से ही लेना है
मैं ये नहीं कहती की आप शाबाशी दे
हो सके तो , हाथ भी ना झटकना
आप तो जानते है ना, कि गिरने के बाद उठना
कितना मुश्किल होता है
ए दुनियाँ वालो जीवन के सफर में अगर
कभी पैर फिसल जाए मेरे बच्चे का
तो मैं ये नहीं कहती कि झपट कर आप उसे उठा लेना
गर हो सके तो दबाना मत ——————-
उसकी घुटन मैं अभी महसूस कर सकती हूँ
और अगर पुरस्कार ना हो—————-
तो कोई बात नहीं,क्योंकि हर बात पर
पुरस्कृत तो भगवान करता है—— दुनिया नहीं
मैंने सिखाया है उसे ………ए दुनियाँ वालो आप से तो
बस यही गुजारिश है कि उसे तिरस्कार भी ना देना
नहीं तो उसके नन्हें मन से विश्वास उठ जाएगा
इस विशाल और सुंदर दुनियाँ से
फिर कैसे बना पाएगा इस जहां को—–
वो सुंदर अपने नन्हें मगर मजबूत कदमों
और कंधों से —————-
गीतिका ~
जग में आना चाहती हूँ
दे दो।
गर्भ में कत्ल,
के रंग दे दो।
सुन्दर और खूबसूरत है।
आँखों से
मूरत है।
लिंगभेद
ममत्व का कुछ अंश दे दो…………………मै जग में…………………..।
होकर भी
ज्यादा काम करुँगी।
खुशियों से आँगन,
नाम करुँगी।
सिद्ध करने को मुझको,
दिन चंद दे दो…………………मै जग में…………………………. ।
बन कर नील गगन में उड़ जाउंगी,
बदली तेरे घर में खुशियाँ बरसाऊँगी।
मुंडेर पर तेरे घर की,
मीठे बोल सुनाऊँगी।
तेरा आभार,
को भावना के पंख दे दो…………………मै जग में………………।
प्रसाद शर्मा
प्रस्तुत कर्ता -अटूट बंधन परिवार
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bahut sunder sankalan
बहुत सुन्दर संकलन है , मै तो निशब्द हु ,माँ के अनेको रूप व परिभाषा को देख कर …… "माँ तो बस माँ होती है , हकीकत में वो ही स्वास और आस होती है , क्या गंगा क्या यमुना, माँ शीतलता है हिम की, माँ रब है हर बच्चे की.. माँ के बिन जीवन न होता , न श्रिस्टी न ये वैभव होता …माँ का परिभाषा तो "माँ" होता है ।