एक दिन अचानक उनका स्कूल जाना बंद करवा दिया गया। कहा गया, पढ़कर क्या करोगी? अब तुम घर के काम-काज सीखो।
शादी के बाद घर ही तो संभालना है तुम्हें। उनका परिवार संपन्न था। पिताजी का बिहार
के चंपारण शहर में अपना फलता-फूलता कारोबार था। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।
परिवार में सबका मानना था कि महिलाओं को घर संभालने चाहिए और मर्दों को व्यापार।
इसीलिए बेटियों को पढ़ने का रिवाज नहीं था। उन्हें बस इतना ही पढ़ाया जाता कि वे
किताब पढ़ सकें और खत लिख सकें। 14-15 साल की उम्र में लड़कियों की शादी करा दी जाती थी।
सी साड़ी थमाते हुए कहा- ‘आज तुम्हें कुछ लोग देखने आ रहे हैं। इस पहनकर तैयार हो जाओ।’ आशा हैरान थीं। कौन आ रहा है
घर में ? पूछने पर पता चला कि परिवार ने उनकी शादी का फैसला किया था। वह आगे पढ़ना चाहती
थीं, पर किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। आशा चुपचाप सज-धजकर ड्राइंग रूप में बैठ गई।
लड़के वाले आए, उन्हें पसंद किया और शादी पक्की हो गई। परिवार में सब खुश थे। खासकर मां।
उन्होंने चहककर बताया- ‘तेरा होने वाला दूल्हा मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है। कुछ दिनों में वह डाॅक्टर बन
जाएगा और तू डाॅक्टरनी।’ मगर आशा बिल्कुल खुश नहीं थीं। ससुराल जाने के ख्याल से खूब रोईं। मां ने
समझाया, ‘तेरे ससुराल वाले बहुत अच्छे हैं। सुखी रहेगी तू वहां।’
बहुत अच्छा माहौल मिला। पति को पढ़ने का बड़ा शौक था। वह चाहते थे कि उनकी पत्नी भी
पढ़ी-लिखी हो। उन्होंने पत्नी को आगे पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। इस बीच आशा तीन
बच्चों की मां बनीं। आशा बताती हैं- ‘21 साल की उम्र में मैं पहले बच्चे की मां बनी। अगले
तीन साल में दो और बच्चे हुए। इस तरह 24 साल में मैं तीन बच्चों की मां बन गई। एक साथ तीन
छोटे बच्चों को संभालना मुश्किल था। मगर इस दौरान परिवार के लोगों ने मेरा बहुत
साथ दिया।’
सर्जन की नौकरी मिल गई। शुरूआत में आशा विदेश जाने के ख्याल से बहुत उत्साहित नहीं
थीं। मगर पति के करियर का सवाल था, इसलिए राजी हो गईं। ब्रिटेन में पति बकिंघम अस्पताल में
बतौर आॅर्थोपेडिक सर्जन नौकरी करने लगे। अब आशा को अंग्रेजी का बिल्कुल ज्ञान नहीं
था। वह अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं समझती थीं। जबकि पति फराटेदार अंग्रेजी में
बातें किया करते। जल्द ही आशा को एहसास हुआ कि ब्रिटेन में सबके साथ घुलने-मिलने के
लिए अंग्रेजी सीखना जरूरी है।
पति ने उन्हें अंग्रेजी के टीवी शो देखने की सलाह
दी। उनके अंदर अंग्रेजी सीखने की लगन बढ़ती गई। फिर उन्होंने दोबारा पढ़ाई शुरू करने
की इच्छा जताई। हालांकि मन में हिचक थी कि पता नहीं, ब्रिटेन की पढ़ाई समझ में आएगी या नहीं? 12वीं तो वह पहले की पास कर
चुकी थीं। कार्डिफ यूनिवर्सिटी में स्नातक में दाखिला लिया। आत्म-विश्वास बढ़ता
गया। ताज्जुब की बात यह थी कि हिंदी मीडियम से पढ़ी होने के बावजूद उन्हें अंग्रेजी
माध्यम के कोर्स समझने में कोई खास दिक्कत नहीं आई। परिवार के लोग उनका हौसला देखकर
दंग थे। आशा बताती हैं- ‘यह सब आसान नहीं था, पर मेरे पति ने बहुत सहयोग किया। उन्होंने न केवल मेरा उत्साह बढ़ाया, बल्कि हर कदम पर मेरी मदद भी
की। उनके बिना मैं यह मुकाम कभी हासिल नहीं कर पाती।’
पढ़ाने लगीं। अपने छात्रों के लिए वह आदर्श टीचर थीं। एक ऐसी टीचर, जो बच्चों को अतिरिक्त समय
देकर उनकी मदद करने को हर पल तैयार रहती। वर्ष 2006 में वह वेस्ट नाॅटिघम काॅलेज की प्रिंसिपल बनीं।
यह काॅलेज इंग्लैंड के सबसे बड़े काॅलेजों में एक है। उनके नेतृत्व में काॅलेज ने
कामयाबी की नई दास्तान लिखी। उनकी मेहनत की वजह से काॅलेज ब्रिटेन के सर्वाधिक
प्रतिष्ठित काॅेलेजों में शुमार होने लगा।
सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘डेम कमांडर आॅफ आॅर्डर आॅफ द ब्रिटिश एम्पायर’
से सम्मानित किया
गया। आशा इस सम्मान को पाने वाली दूसरी भारतीय महिला हैं। इससे पहले धार की
महारानी लक्ष्मी देवी को 1931 में यह सम्मान मिला था। आशा एक चैरिटेबल ट्रस्ट ‘द इंस्पायर एंेड अचीव
फाउंडेशन’ भी चलाती हैं। इस फाउंडेशन का मकसद 16 से 24 साल के युवाओं को शिक्षा और रोजगार में मदद करना
है।
गया। आशा कहती हैं- ‘मैं बहुत खुश हूं कि ब्रिटेन में मुझे आगे बढ़ने और कुछ कर दिखाने का मौका
मिला। मगर मैं अपनी जड़ों को कभी नहीं भूल सकती। मैं बिहार की रहने वाली हूं और
मुझे इस बात पर गर्व है।’
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