कविता -बदनाम औरतेँ

कविता -बदनाम औरतेँ . . . . .
बदनाम औरतें मात्र एक कविता नहीं है | ये दर्द है उन औरतों का जो समाज
की मुख्यधारा से कट कर पुरुषों की गन्दी नीयत का अभिशाप झेलने को विवश है | ऐसे
संवेदनशील विषय पर बहुत कम लोगों ने अपनी कलम उठाई है | साहित्यिक त्रैमासिक
पत्रिका गाथांतर  की संपादक सोनी पाण्डेय
जी बधाई की पात्र है जिन्होंने उन महिलाओं के लिए आवाज़ उठाई है , जिनके बारे में सभी
घरों में बात करना भी गुनाह है | 

प्रस्तुत है हृदयस्पर्शी कविता बदनाम औरतें


1

माँ
ने सख्त हिदायत देते हुए

कहा
था

उस
दिन

उस
तरफ कभी मत जाना

वो
बदनाम औरतोँ का मुहल्ला है ।

और
तभी से तलाशने लगीँ आँखेँ

बदनाम
औरतोँ का सच

कैसी
होती हैँ ये औरतेँ

क्या
ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैँ

क्या
इनका कुल – गोत्र भिन्न होता है

क्या
ये प्रसव वेदना के बिना आती हैँ या मनुष्य होती ही नहीँ

ये
औरतेँ मेरी कल्पना का नया आयाम हुआ करतीँ थीँ उन दिनोँ

जब
मैँ बड़ी हो रही थी ।

समझ
रही थी बारीकी से

औरत
और मर्द के बीच की दूरी को

एक
बड़ी लकीर खिँची गयी थी

जिसका
प्रहरी पुरुष था

छोटी
लकीर पाँव तले औरत थी ।

2

बदनाम
औरतोँ को पढते हुए जाना

कि
इनका कोई  मुहल्ला होता ही नहीँ

यह
पृथ्वी की परिधि के भीतर बिकता हुआ सामान हैँ

जो
सभ्यता के हाट मेँ सजायी जाती हैँ

इनके
लिए न पूरब है न पश्चिम


उत्तर है न दक्खिन


धरती है न आकाश

ये
औरतेँ जिस बाजार मेँ बिकता हुआ सामान हैँ

वह
घोषित है प्रहरियोँ द्वारा

 
रेड लाईट ऐरिया “
प्रवेस
निषेध के साथ ।

किन्तु
ये
बाजार तब वर्जित हो जाता है

सभी
निषेधोँ से

जब
सभ्यता का सूर्य ढल जाता है

ये
रात के अन्धेरे मेँ रौनक होता है

सज
जाता है रूप का बाजार

और
समाज के सभ्य प्रहरी

आँखोँ
पर महानता का चश्मा पहन करते हैँ

गुलजार
इस मुहल्ले को

बदनाम
औरतोँ के गर्भ से

जन्म
लेने वालीँ सन्तानेँ सभ्य संस्कृति के उजालोँ की देन होतीँ हैँ

जिन्हेँ
जन्म लेते ही

असभ्य
करार दिया जाता है ।

ये
औरतेँ जश्न मनातीँ हैँ बेटियोँ के जन्म पर

मातम
बेटोँ का

शायद
ये जानती हैँ

कि
बेटियाँ कभी बदनाम होती ही नहीँ

बेटे
ही बनाते हैँ इन्हेँ बदनाम औरतेँ ।





3

ये
बदनाम औरतेँ ब्याहता न होते हुए भी ब्याहता हैँ

मैँ
साक्षी हूँ

पंचतत्व
 दिक् – दिगन्त साक्षी हैँ
देखा
था उस दिन मन्दिर मेँ

ढ़ोल –
ताशे
 गाजे – बाजे
लक –
धक
 सज – धज के साथ
नाचते
गाते आयी थीं

मन्दिर
मेँ बदनाम औरतेँ

बीच
मेँ मासूम सी लगभग सोलहसाला लडकी

पियरी
. चुनरी मेँ सकुचाई
 लजाई सी चली आ रही थी
गठजोड
किये पचाससाला मर्द के साथ ।

सिमट
गया था सभ्य समाज

खाली
हो गया था प्रांगढ़

अपने
पूरे जोश मेँ भेरवी सम नाच रही थी लडकी की माँ

लगा
बस तीसरी आँख खुलने ही वाली है ।

पुजारी
ने झटपट मन्दिर के मंगलथाल से

 
थोड़ा सा पीला सिन्दूर माँ
के आँचल मेँ डाला था

भरी
गयी लडकी की माँग ।

अजीब
दृश्य था मेरे लिए

पूछा
था माँ से

ये
क्या हो रहा है ब्याह

मासूम
लडकी अधेड से ब्याही जा रही है

अम्मा
! ये तो अपराध है

माँ
ने हाथ दबाते हुए कहा था

ये
शादी नहीँ
 इनके समाज मे
नथ
उतरायी की रस्म है “

और
छोड दिया था अनुत्तरित मेरे सैकड़ोँ प्रश्नोँ को

समझने
के लिए समझ के साथ ।

हम
लौट रहे थे अपनी सभ्ता की गलियोँ मेँ

एक
किनारे कसाई की दुकान पर

बँधे
बकरे को देखकर

माँ
बड़बड़ायी थी

 
बकरे की माँ कब तक खैर
मनाऐगी “

और
मैँ समझ के साथ – साथ

जीती
रही मासूम लड़की के जीवन यथार्थ को

तब तक
 जब तक समझ न सकी
कि उस
दिन
 बनने जा रही थी सभ्यता के
स्याह बाजार मेँ

मासूम
लड़की

बदनाम
औरत ।





एक बडा सवाल गुँजता रहा
तब से लेकर आज तक कानोँ
मेँ

कि  जब बनायी जा रही थी समाज व्यवस्था
क्योँ बनाया गया ऐसा
बाजार

क्योँ बैठाया गया औरत
को उपभोग की वस्तु बना बाजार मेँ

औरत देह ही क्योँ रही
पुरुष को जन कर

 
मथता है प्रश्न बार –
बार मुझे

देवोँ ! तुम्हारे
सभ्यता के इतिहास मेँ पढा है मैँने

जब – जब तुम हारे
औरत शक्ति हो गयी
धारण करती रही नौ रुप
और बचाती रही तुम्हेँ ।
फिर क्योँ बनाया तुमने
बदनाम औरतोँ का मुहल्ला

क्या पुरुष बदनाम नहीँ
होते

फिर क्योँ नहीँ बनाया
बदनाम पुरुषोँ का मुहल्ला
अपनी सामाजिक व्यवस्था मेँ
मैँ जानती हूँ तुम
नैतिकता
 संस्कार और संस्कृति के नाम पर
जीते रहे हो दोहरी
मानसिकता का जीवन .

सदियोँ से।
देखते आ रहे हो औरत को
बाजार की दृष्टि से
 
आज तय कर लो
प्रार्थना है . . . .
कि बन्द करना है ऐसे
बाजार को

जहाँ औरत बिकाऊ सामान
है

जोड़ना है इन्हेँ भी
समाज की मुख्यधारा से
आओ  थामलेँ एक – दूसरे का हाथ
बनालेँ एक वृत्त
इसी वृत्त के घेरे मेँ
नदी  पहाड़  पशु – पक्षी
औरत – मर्द
सभी चलते आरहेँ हैँ
सदियोँ से

और बन जाता है ये वृत्त
धरती

और धरती को घर बनाती है
औरत
तुम रोपते हो जीवन
बस यही सभ्यता का
उत्कर्ष है ।

हाँ मैँ चाहती हूँ
ये वृत्त कायम रहे
इस लिए मिटाना चाहती
हूँ

इस वृत्त के घेरे से
” बदनाम औरतोँ का मुहल्ले” का अस्तित्व

क्योँ की औरते कभी
बदनाम होती ही नहीँ

बदनाम होती है दृष्टि ।
डा. सोनी पाण्डेय

लेखिका


संक्षिप्त परिचय
नाम- डा. सोनी पाण्डेय
पति का नाम – सतीश चन्द्र पाण्डेय
शिक्षा – एम .ए. हिन्दी
बी.एड. पी .एच. डी
कथक डांस डिप्लोमा  बाम्बे आर्ट
अभिरुचि – लेखन  चित्रकला
साहित्यिक पुस्तकेँ
पढना

सम्प्रति – अध्यापन
संपादन  गाथांतर हिन्दी त्रैमासिक
विभन्न पत्र पत्रिकाओँ
मेँ कविता कहानी
 लेख का प्रकाशन


ये कविता ” अटूट बंधन ” मासिक पत्रिका नवम्बर २०१४ के ” में प्रकशित हो चुकी है | 


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