जैसे-जैसे विकास हो रहा है, हरियाली और जंगल खत्म होते
जा रहे हैं। इसका असर पर्यावरण पर भी दिखने लगा है। इसके बावजूद हम पेड़-पौधों को
लेकर जागरूक नहीं हो रहे हैं। कुछ लोग पेड़-पौधे लगाने की बात तो करते हैं, ताकि पर्यावरण स्वच्छ रहे,
लेकिन जब बारी खुद
हो, तो पीछे हट जाते
हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो पर्यावरण को बचाने के लिए अलग-अलग तरीके से काम कर रहे
हैं। उन्हीं में से एक हैं शुभेंदू शर्मा। पेशे से इंजीनियर शुभेंदू एक कार कंपनी
में नौकरी करते थे, जहां उन्हें काफी अच्छी सैलेरी मिलती थी। लेकिन प्रकृति से लगाव की वजह से वे
ज्यादा दिन तक नौकरी नहीं कर पाए। उनकी जिद थी कि हर व्यक्ति प्रकृति का अनुभव ले
और हर ओर हरियाली हो, इस जिद में आकर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी।
जा रहे हैं। इसका असर पर्यावरण पर भी दिखने लगा है। इसके बावजूद हम पेड़-पौधों को
लेकर जागरूक नहीं हो रहे हैं। कुछ लोग पेड़-पौधे लगाने की बात तो करते हैं, ताकि पर्यावरण स्वच्छ रहे,
लेकिन जब बारी खुद
हो, तो पीछे हट जाते
हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो पर्यावरण को बचाने के लिए अलग-अलग तरीके से काम कर रहे
हैं। उन्हीं में से एक हैं शुभेंदू शर्मा। पेशे से इंजीनियर शुभेंदू एक कार कंपनी
में नौकरी करते थे, जहां उन्हें काफी अच्छी सैलेरी मिलती थी। लेकिन प्रकृति से लगाव की वजह से वे
ज्यादा दिन तक नौकरी नहीं कर पाए। उनकी जिद थी कि हर व्यक्ति प्रकृति का अनुभव ले
और हर ओर हरियाली हो, इस जिद में आकर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी।
इंजीनियर शुभेंदू शर्मा की अफोरेसटेशन की नयी पहल – बसाते हैं शहर – शहर जंगल
शुभेंदू शर्मा बताते हैं कि एक बार उन्होंने एक
जंगल देखा, जिसे जापान की एक डाॅक्टर अकिरा मियावकी ने डिजाइन किया था। उन्हें वह तरीका
काफी पसंद आया, क्योंकि उससे पहले वह जमीन बेकार पड़ी थी। उन्हें यह देखकर काफी अच्छा लगा कि
हम एक जमीन को उस लायक बना सकते हैं कि वह हमारे और हमारे पर्यावरण के काम आ सके।
शुभेंदू शर्मा कहते हैं, ‘उत्तराखंड का होने से मेरे अंदर शुरू से ही प्रकृति के लिए काफी लगाव था,
क्योंकि जहां मेरा
बचपन बीता, उस जगह सिर्फ हरियाली ही हरियाली थी। काफी सोचने के बाद, मैंने निर्णय लिया कि मैं अब
अपने आगे की जिंदगी पेड़-पौधे लगाने में बिताऊंगा। फैसला काफी कठिन था, क्योंकि मैं एक अच्छी नौकरी
कर रहा था, जहां मुझे काफी अच्छी सैलरी मिल रही थी।
जंगल देखा, जिसे जापान की एक डाॅक्टर अकिरा मियावकी ने डिजाइन किया था। उन्हें वह तरीका
काफी पसंद आया, क्योंकि उससे पहले वह जमीन बेकार पड़ी थी। उन्हें यह देखकर काफी अच्छा लगा कि
हम एक जमीन को उस लायक बना सकते हैं कि वह हमारे और हमारे पर्यावरण के काम आ सके।
शुभेंदू शर्मा कहते हैं, ‘उत्तराखंड का होने से मेरे अंदर शुरू से ही प्रकृति के लिए काफी लगाव था,
क्योंकि जहां मेरा
बचपन बीता, उस जगह सिर्फ हरियाली ही हरियाली थी। काफी सोचने के बाद, मैंने निर्णय लिया कि मैं अब
अपने आगे की जिंदगी पेड़-पौधे लगाने में बिताऊंगा। फैसला काफी कठिन था, क्योंकि मैं एक अच्छी नौकरी
कर रहा था, जहां मुझे काफी अच्छी सैलरी मिल रही थी।
आसान नहीं था फैसला
मुझे याद है जब मैंने यह फैसला लिया, तब मेरे घरवाले मेरे इस
फैसले से काफी नाराज थे। सबको मनाना और फिर खुद को भरोसा देने के लिए, मैंने काफी मेहनत की। मैंने
डाॅक्टर अकिरा मियावकी से बात की, क्या मैं उन्हें असिस्ट कर सकता हूं। डाॅक्टर अकिरा ने ‘हाँ’ कर दिया और मैंने फिर उन्हीं
से सारा काम सिखा। उसके बाद मैंने 2011 में खुद अफोरेस्ट नाम की एक संस्था खोल ली,
जिसमें हम बेकार
खाली पड़ी जमीन को ठीक करते हैं और उसे हरा भरा बनाते हैं। उस पार्क की खास बात यह
होती है कि उनमें लगे पड़े-पौधों पर किसी भी तरह के केमिकल का प्रयोग नहीं होता है।
यानी पर्यावरण की सुरक्षा का हम पूरा ध्यान रखते हैं। भारत में हर घर के पीछे एक
पार्क हो, ताकि लोग शुद्ध हवा लेकर अपना जीवन पूरा स्वस्थ तरीके से बिता सकंे, अब यही मेरी जिंदगी का
उद्देश्य रह गया है।’
फैसले से काफी नाराज थे। सबको मनाना और फिर खुद को भरोसा देने के लिए, मैंने काफी मेहनत की। मैंने
डाॅक्टर अकिरा मियावकी से बात की, क्या मैं उन्हें असिस्ट कर सकता हूं। डाॅक्टर अकिरा ने ‘हाँ’ कर दिया और मैंने फिर उन्हीं
से सारा काम सिखा। उसके बाद मैंने 2011 में खुद अफोरेस्ट नाम की एक संस्था खोल ली,
जिसमें हम बेकार
खाली पड़ी जमीन को ठीक करते हैं और उसे हरा भरा बनाते हैं। उस पार्क की खास बात यह
होती है कि उनमें लगे पड़े-पौधों पर किसी भी तरह के केमिकल का प्रयोग नहीं होता है।
यानी पर्यावरण की सुरक्षा का हम पूरा ध्यान रखते हैं। भारत में हर घर के पीछे एक
पार्क हो, ताकि लोग शुद्ध हवा लेकर अपना जीवन पूरा स्वस्थ तरीके से बिता सकंे, अब यही मेरी जिंदगी का
उद्देश्य रह गया है।’
बढ़ने लगा काफिला
आगे शुभेंदू बताते हैं कि जब मैंने अफोरेस्ट ( aforest ) की
शुरूआत की, तो काफी दिक्कतें आई थीं, क्योंकि मैं अकेला था और कोई ग्राहक भी नहीं मिलता था।
लेकिन एक बार मुझे जर्मन कंपनी से 10 हजार पेड़ लगाने का आॅर्डर मिला। तब से लेकर आज तक
हमारे पास तकरीबन 50 से ऊपर क्लाइंट हैं, जो हमें पेड़ लगाने का आॅर्डर देते हैं। अगर किसी को अपने घर के बाहर पार्क
एरिया बनवाना है, तो उन्हें हमें कम-से-कम 1000 स्क्वायर फीट जमीन देनी होगी। लगभग 20 महीने में हम उन्हें
खूबसूरत पार्क बनाकर दे देते हैं। मैं तो चाहता हूं कि भारत में हर घर के पीछे एक
पार्क हो, ताकि लोगों को शुद्ध हवा मिले और वे स्वस्थ जिंदगी जी सकें।
शुरूआत की, तो काफी दिक्कतें आई थीं, क्योंकि मैं अकेला था और कोई ग्राहक भी नहीं मिलता था।
लेकिन एक बार मुझे जर्मन कंपनी से 10 हजार पेड़ लगाने का आॅर्डर मिला। तब से लेकर आज तक
हमारे पास तकरीबन 50 से ऊपर क्लाइंट हैं, जो हमें पेड़ लगाने का आॅर्डर देते हैं। अगर किसी को अपने घर के बाहर पार्क
एरिया बनवाना है, तो उन्हें हमें कम-से-कम 1000 स्क्वायर फीट जमीन देनी होगी। लगभग 20 महीने में हम उन्हें
खूबसूरत पार्क बनाकर दे देते हैं। मैं तो चाहता हूं कि भारत में हर घर के पीछे एक
पार्क हो, ताकि लोगों को शुद्ध हवा मिले और वे स्वस्थ जिंदगी जी सकें।
संकलन – प्रदीप कुमार सिंह
साभार – अमर उजाला
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filed under:Afforestation, Environment, World Environment day
सार्थक कार्य और पोस्ट भी….
धन्यवाद वाणी जी
सार्थक पोस्ट। मेरी कॉम्प्लेक्स के पास बहुत बड़ी जगह ऐसे ही पड़ी है। पाँच साल से तो मैं उसे देख रही हूँ। बरसात में जंगली पौधे उग आते हैं फिर खुद ही सूख जाते हैं। एक कोने में लोग अक्सर कचरा फेंककर चले जाते हैं। ऐसी जमीनें हमारे देश में जगह जगह मिलेंगी जहाँ कोई खुद भी पेड़ पौधे नहीं लगाते और दूसरों को लगाने भी नहीं देते।