हम सब अपनी पहचान इस स्थूल शरीर से करते हैं | जब की इसके अन्दर अनित्य अविनाशी आत्मा का निवास होता है | इस आत्म स्वरुप को जानना ही आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है | जिसके बाद सारे बंधन ढीले पड़ जाते हैं | इसको जानने का एक तरीका ध्यान या meditation भी है | ये ध्यान कई तरीके से किया जा सकता है | विपश्यना भी उसी का एक तरीका है | जो केवल साक्षी भाव से देखना समझना है | यहीं सेखुलते हैं बंधन और होता है आत्मविस्तार | कैसे ?आइये जानते हैं…
जन्म-मरण की पीड़ा से मुक्त हो जाने का मार्ग है- विपश्यना
राजकुमार सिद्धार्थ गौतम का बुद्ध हो जाने की यात्रा बिहार आकर ही पूरी हुई। मात्र 35 वर्ष के ही वय में उन्हें सत्य का ज्ञान हो गया। जिसे उन्होंने धम्म कहा।धम्म यानि जिसे धारण करते हैं। धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो धारण करने योग्य है। वही धर्म है। धर्म (संस्कृत) और धम्म (पालि)। गौतम बुद्ध ने इसके लिए आष्टांगिक मार्ग दिखाया-
सम्यक दृष्टि : चार आर्य सत्यों को मानना, जीव हिंसा नहीं करना, चोरी नहीं करना, व्यभिचार नहीं करना( ये शारीरिक सदाचरण हैं। )
सम्यक संकल्प,
सम्यक वाणी ,
सम्यक कर्म,
सम्यक आजीविका ,
सम्यक व्यायाम ,
सम्यक स्मृति,
सम्यक समाधि।
सदाचरण को ही उन्होंने धम्म कहा। जो आज के धर्म से बिल्कुल भिन्न है।यहाँ आत्मा-परमात्मा, आस्तिक-नास्तिक, किसी प्रकार की आकृति, मंत्र, रंग किसी भी तरह की कल्पना का सहारा नहीं। किस भी प्रकार की बहस बाजी नहीं है। कोई बौद्दिक –विलास नहीं।किसी प्रकार की ईश्वरीय कल्पना नहीं, कोई कर्मकांड नहीं। सिर्फ अपनी सांसो और शरीर के प्रत्येक अंग में उठनेवाली संवेगों को देखना है।
धम्म हमें बर्हिमुखी से अंतर्मुखी होना सिखाता है। गौतम बुद्ध को बुद्दत्व या बोधि की प्राप्ति के पश्चात उन्हें संज्ञान हुआ कि सत्यमार्ग को विश्वजन तक ले जाना होगा। ताकि हर मनुष्य अपने दुख-संताप की सच्चाई से अवगत हो और इस जनम-मरण की पीड़ा से उठकर जीवन को भोगे नहीं स्वीकार कर इनसे तटस्थ रहने की कला को जाने। और उस विशेष प्रकार की दृष्टि को उन्होंने विपश्यना(संस्कृत), विपस्सना(पालि) साधना कहा।
क्या है विपश्यना
विपश्यना का अर्थ है विशेष प्रकार से देखना। विपश्यना जीने का अभ्यास है इसके लिए जरुरी नहीं की कोई भिक्षु/ भिक्षुणी का जीवन चुने। गृहस्थ भी भली-भाती इसका पालन कर अपने सुख-दुख को सम्यक दृष्टि से देखने का अभ्यास करते रहें । और इसे किसी भी सम्प्रदाय, जाति व देश का व्यक्ति सीख सकता है। विपश्यना हमें सम्यक दृष्टि, सम्यक वाणी के साथ सत्याचारण के लिए प्रेरित करता है। विपश्यना में सिखाया जाता है – सब अनित्य है। जो भी अंदर घट रहा है- क्रोध, रोग, शोक, राग, द्वेष की अनुभूति उनमें बहने की बजाए उन्हें दृष्टा की तरह देखो। सुख की अनुभूति है –वह भी जाएगा। दुख है वह भी टिकेगा नहीं।सब अनित्य है। कुछ भी नित्य नहीं। उन्हें बस अपने भीतर सांसो के आने-जाने की क्रिया के साथ घटते हुए देखते रहो।
बर्मा से हुई वापसी
कहा जाता है कि कई वर्षो के कठिन तप के बाद भी सिद्धार्थ गौतम को सत्य की प्राप्ति नहीं हो रही थी। फिर उन्होंने विपश्यना के द्वारा सत्य के मार्ग को ढूंढ निकाला। ऐसा नहीं था कि विपश्यना की खोज सिद्धार्थ गौतम ने किया था। इस विशेष प्रकार की साधना या कहें दृष्टि के बारे में गीता, वेदो और उपनिषदों में भी कहा गया है।पर इसे जन-जन तक गौतम बुद्ध ने ही पहुँचाया।और इसके लिए उन्होंने संस्कृत नहीं जन की भाषा मागधी जिसे अब हम पालि भाषा कहते हैं में दिया।
बर्मा ने संरक्षित किया मूल धम्म
माना जाता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के 500 वर्षो के बाद ही भारतवासी अपने असली धम्म/ धर्म को भूल बैठे। और कई प्रकार के अंधविश्वासों और कर्मकांडों में लिप्त हो कर , सम्प्रदायों में बंटकर सही जीवन दृष्टि को खो बैठे। किंतु बौद्ध भिक्षुओं द्वारा बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में विशुद्द धर्म/ धम्म के प्रति सर्मपित आचार्यों ने इसे शुद्द रुप में संरक्षित रखा।और पीढ़ी दर पीढ़ी अपने शिष्यों को हस्तांरित करते गए।
सयाजी उबा खिन
बर्मा के अचार्य सयाजी उबा खिन आजीवन लोगों को शुद्ध धम्म से परिचय कराते रहे। उन्हें इस बात की हमेशा चिंता रही कि जिस शुद्ध धम्म को हमें भारत ने दिया आज वही भूला बैठा है । कैसे पुन: भारत में इसे पहुँचाया जाए। जब बर्मा के ही प्रतिष्ठित हिंदू व्यवसायी श्री सत्यनारायण गोयनका अपने शारिरिक कष्ट को दूर करने उनके पास गये। और जब उन्हें विपश्यना से लाभ हुआ। तो उनके शिष्य बन गए। करीब पंद्रह वर्षों की साधना करते हुए, वे अपने गुरु की पीड़ा को आत्मसात किया। औऱ संकल्प लिया गुरु दक्षिणा मेरी यही होगी कि भारत जा कर विपश्यना से सबको फिर से परिचय करवाउं। सत्यनारायण गोयनका ने नासिक के पास इगतपूरी(1976) में विपश्यना धाम की स्थापना की।उसके बाद देश-विदेश में इस तरह के कई विपश्यना केंद्र खोले। जहाँ निशुल्क 10 दिवसीय विपश्यना साधना का प्रशिक्षण दिया जाता है।
इस दौरान सन 1983 किरण बेदी के कार्यकाल में तिहाड़ जेल में खुंखार कैदियों को 10 दिवसीय विपश्यना साधना सिखाई। उसके बाद लगातार कई शिविर लगाकर कैदियों की जीवन दृष्टि ही बदल दी।इस सफलता से प्रभावित होकर सरकार ने तिहाड़ जेल में स्थाई विपश्यना शिविर की स्थापना करने की इजाजत दे दी ।
10 दिवसीय विपश्यना प्रशिक्षण शिविर
हर महीने भारत और दुनिया भर के विपश्यना धाम केंद्रो में 10 दिन के दो निशुल्क शिविर लगते हैं। रहना-खाना सभी इसमें शामिल है। जिनमें करीब 70 के आस-पास प्रशिक्षु ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन द्वारा लिए जाते हैं। जिनमें हर आयु , वर्ग के स्त्री-पुरुष शामिल होते हैं। शुरुआत में यह शिविर सवा महिने का होता था। किंतु प्रशिक्षुओं को इतने दिन अपनी शिक्षा, व्यवसाय, गृहस्थी और नौकरी छोड़ कर शिविर में रहना मुश्किल होता था।
आर्य मौन साधना
आर्य मौन यानि शरीर, वाणी एवं मन का मौन।करीब दस दिनों तक 10 घंटे की मौन साधना चलती है। इस दौरान और उसके बाद भी प्रशिक्षुओं /साधकों आपस में आँखों से भी कुछ इशारा नहीं कर सकते। अगर कोई परेशानी हो रही है या कुछ जानना है तो सहायक अचार्य से इस बारें निर्धारित समय पर चर्चा कर सकते हैं। इन दस दिनों में परिवार और दुनिया से कोई सम्पर्क साधक नहीं रख सकते। ना ही शिविर छोड़ कर जा सकते हैं। कोई शारीरिक परेशानी आ गई तो डॉक्टर शिविर में ही आ कर देख जाते हैं। मोबाईल आदि पहले दिन ही लेकर लॉक अप में रखवा दिया जाता है।
आनापानसति साधना
प्रशिक्षण के तीन दिन आनापान साधना सिखाई जाती है।10 घंटे की नियमावली होती। जो प्रात: 4 बजे से शुरु होकर रात्रि के 9:30 तक चलती है।
पालि भाषा में ‘आन’ का अर्थ है श्वांस लेना, ‘अपान’ का अर्थ है श्वांस छोड़ना, ‘सति’ का अर्थ है के साथ मिलकर रहना।
आनापान साधना में श्वांसों के प्रति सजगता का अभ्यास करवाया जाता है। दृष्टा भाव से आँखे बंद कर भी सजगता के साथ नासिका केंद्रो के अग्र भाग पर बहुत ही ध्यानपूर्वक श्वासों को आते-जाते महसूस करना होता है।सांसे गहरी हैं या धीरे चल रही हैं। दाई नासिका चल रही है या बाई या फिर दोनों एक साथ। उन्हें बस महसूस करते रहना उनको योग क्रिया की तरह किसी प्रकार की कंट्रोल या छेड़-छाड़ या प्रशिक्षित नहीं करना होता । वह जैसी है वैसी ही बने रहने देना है। इसके अभ्यास के फलस्वरुप साधक अपने मन को नियंत्रित करना सीखने लगता है। मन शांत और स्थिर रहने लगता है। अनावश्यक सोच , तनाव और चिंता से मुक्त होने लगता है।
विपश्यना साधना
आनापानसति साधना में साधक पाँच शीलों का साधना करते हुए समाधि की अवस्था में पहूँचता है।प्रशिक्षण के चौथे दिन विपश्यना क्या है?विपश्यना के लाभ आदि के बारें बताने के बाद। इसे करने की विधि बताई जाती है। विपश्यना द्वारा वह इन शीलों का पालन करते हुए प्रज्ञा के क्षेत्र में उतरता है।
विपश्यना में शील, समाधि के अभ्यास के बाद प्रज्ञा की ओर निरंतर बढ़ने का प्रशिक्षण मिलता है।बार-बार अभ्यास कर साधक को सूक्ष्मता से सूक्ष्मतम की ओर बढ़ना होता है। विपश्यना में आँखें बंद कर सिर से पांव तक और पांव से सिर तक लगातार यात्रा करते हुए, अपने चित से विकार निकालता है। और प्रज्ञा जगाता है। शरीर के सभी अंगों पर होनेवाले संवेगो को अनुभव कर स्थिर चित रखना होता है। किसी अंग में दर्द हो रहा है तो उसे भी दृष्टा की तरह ही देखना होता है। किसी अंग में स्फुरण या हृदय में प्रसन्नता की अनुभूति हुई उसे भी दृष्टा की तरह ही देखना है।योग की भाषा में कहें तो इस साधना में आँखे बंद कर माथे के बीच जिसे क्राउन चक्र कहते हैं से शुरु कर नीचे मुलाधार तक देखते जाना है फिर मुलाधार से क्राउन चक्र तक लौट कर आना। इसी क्रिया को बार-बार दोहराना होता है।
मंगल मैत्री साधना
साधना के 10 वें दिन मंगल मैत्री भाव रख के विश्व के कल्याण की प्रार्थना सिखायी जाती है । जिसमें सर्व मंगल भवतु का भाव विकसित होता है। आचार्य सत्यनारायण गोयना जी पालि में सबके मंगल की प्रार्थना तो प्रतिदिन साधना के प्रत्येक बैठकी में करते ही हैं। 10 वें दिन मंगल मैत्री साधना के बाद साधको को मौन तोड़ आपस में परिचय और बातचित करने का मौका दिया जाता है। शाम चार बजे सभी के लैपटॉप, मोबाइल इत्यादि वापस कर दिये जाते हैं। और 11 वें दिन साधना के बाद प्रतिदिन सुबह-शाम अभ्यास करने के लिए हिदायत देने के पश्चात प्रात: 9 बजे शिविर समाप्त हो जाता है। वर्ष में दो से तीन बार साधक इस शिविर में शामिल हो सकते हैं।
- महिमा श्री
लेखिका -महिमा श्री
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