दरवाजा खुला है

दरवाजा खुला है .. दरवाजा खुला रखना आसान नहीं होता ,खासकर उसके लिए जिसने आपकी जिंदगी को छिन्न -भिन्न कर दिया हो | स्त्री जीवन के त्याग  की कथाएँ अनगिनत है पर ऐसा नहीं है कि पुरुष त्याग नहीं करते .. परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का पालन नहीं करते और सब कुछ भूल कर , क्षमा कर पुन : एक नई शुरुआत नहीं करते .. आइए पढ़ें आशा सिंह जी की कहानी

दरवाजा खुला है 

मां के साथ रात को टहलने निकली। सरकारी कालोनी,साफ सुथरी सड़क,दोनो तरफ कर्मचारियों के बंगले। अचानक एक महिला जो गेटपर खड़ी थीं, हमें देखकर अंदर चली गई।
मैंने चौंक कर मां से पूछा-‘काकीमां?‘
हां।
मैं आसमान से गिरी। फैक्ट्री में कार्यरत सब एक दूसरे से परिचित हैं।सारी संस्कृतियां एकाकार हो गई है।खाने की तश्तरी बराबर घूमती रहती। बंगाल से पंजाब काश्मीर से केरल बीच में यू पी बिहार।
बगल में बंग परिवार था।काकी के दोनों पुत्र थे,तपन सपन सरकार।लिहाजा उनका प्रेम मुझ पर बरसता। अक्सर बालों में तेल लगाती।मां कहती-‘कितनी कोशिश कर लो,मे के बाल बंगालियों की तरह नहीं होंगे।‘
तपन कुढ़ता-‘मैं खींच कर चूल लंबा कर देता हूं।‘
मैं चिढाती- बोका
शाम को बैर भुलाकर पार्क में खेलते।
सरकार मोशाय बहुत ही सीधे सादे व्यक्ति थे। सुबह सायकिल पर टिफिन बांधकर फैक्ट्री निकलते,शाम को लौटते हुए सब्जी माछ ले आते।
आराम कुर्सी पर बैठ तपन सपन को पढ़ाते,बीच बीच में डांटने की आवाज सुनाई देती।
मां कुढ़ती रहती क्योंकि पिता जी फैक्ट्री से लौटकर चाय पीने के बाद क्लब निकल जाते,ब्रिज खेलते।रात को जब तक वापस आते,हम लोग सो चुके होते।
मां खाना परोसती जाती , बड़बड़ाती जाती-‘कभी बच्चों की पढ़ाई भी देख लिया करो।‘
पिता जी बात को हंसी में उड़ा देते-‘कौन फेल हो गया।‘
काकी को गाने का बहुत शौक था।काका ने हारु मास्टर जी को संगीत शिक्षा के लिए नियुक्त किया।हारु मास्टर भी साथ में काम करते थे। संध्या को रियाज होता। दुर्गा पूजा में अपने मधुर कंठ से गीत गाया, लोगों ने बहुत प्रशंसा की।
कालोनी के बाहर के भी क्रार्यक्रम होने लगे।स्टेज पर काकी बिल्कुल मीरा जैसी तन्मय दिखती।
कुछ लोगों के पेट में दर्द उठने लगा।काका को समझाने लगे।काका ने ध्यान नहीं दिया। समाज के ठेकेदारों ने महाप्रबंधक से कहकर हारु मास्टर का तबादला कलकत्ता करवा दिया।
पता नहीं प्रेम का बंधन था या संगीत का।काकी अपने बेटों और पति को छोड़ कलकत्ता चली गई।
बेचारे काका सबके जहरीले बाण झेलते।पर उनका रूटीन नहीं बदला।शाम सब्जी भाजी लाते, बच्चों को पढ़ने को कह रसोई संभालते।
स्कूल में जब बच्चे चिढ़ाते, मैं मोर्चा लेती-‘काकी रविन्द्र संगीत सीखने कलकत्ता गई है।‘
काका की गंभीरता देख लोगों के मुंह बंद हो गए। रेडियो पर जब काकी का स्वर गूंजता तन्मयता से सुनते।
मां से कहा-‘बऊ दी मैं उसके लायक नहीं था।‘
दस साल बीत गए,तपन सपन ने बिना मां के रहना सीख लिया। घर के काम में पिता की मदद करते उन्हीं की तरह गंभीर हो गए।
सपन क्रिकेट का अच्छा खिलाड़ी था,बाल पर इतनी ज़ोर से शाट लगाता,मानो किसी से बदला ले रहा है।
तपन ने बागवानी का शौक अपना लिया।जब काकी रेडियो सुनते,वह बाहर निकल कर बागवानी में जुट जाता।ख़त खच कर कैंची से सूखे पत्ते काटता।
अचानक कलकत्ता से खबर आई कि हारु मास्टर नहीं रहे।
पूरी कालोनी में सुगबुगाहट शुरू हो गई।
एक दिन काकी वापस आ गई।
काका ने इतना कहा-‘दरवाजा खुला है।‘
आशा सिंह
आशा सिंह
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2 thoughts on “दरवाजा खुला है”

  1. आशा जी की कहानियां कभी अचंभित करती हैं कभी भावुक…
    बहुत कुछ पीछे छोड़ कर दिल की देहरी पर बैठ जाती हैं ऐसी कहानियाँ!
    साझा करने के लिए अटूट बंधन को भी साधुवाद 😊😊

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