बदल दें

किरण आचार्य

क्या इतिहास को बदला जा सकता है | हालांकि ये ये संभव नहीं है फिर भी कवी मन ऐतिहासिक पात्रों से गुहार लगा उठता है कि वो अपने निर्णयों को बदल दें | खासकर तब जब उनके निर्णय की अग्नि में स्त्री का अतीत और वर्तमान झुलस रहा हो | क्योंकि इतिहास की कोख से ही भविष्य जन्म लेता है | तो क्या संभव है कि हम उन निर्णयों को बदल दें | आइये पढ़ें किरण आचे जी की खूबसूरत कविता … बदल दें  समुद्र तट पर अग्नि परीक्षा के लिए चढ़ रही चिता पर वह समुद्र भी नहीं लाता कोई लहर चिता बुझाने को मौन सब नहीं करता कोई विरोध वह स्वयं भी नहीं रूको देवी …… देवी की तरह नहीं मनुष्य की भाँति करो व्यवहार कहो ,तट पर खड़े हर एक बुद्धिमना से मेरे हृदय के सत्य को ठुकरा कर ले रहे हो देह की परीक्षा हृदय तो जल चुका अविश्वास के ताप में पलट जाओ उतर आओ उल्टे पैर नहीं तो युगों तक हर एक नारी से माँगी जाएँगी ये परीक्षा तुम्हारा नाम ले कर कड़ा करो मन को कहो कि मेरी पवित्रता है मेरे शब्दों में नहीं जो हूँ स्वीकार तो वन में जा रहूँगी वैसे भी अंत में है यही मेरी नियति भरी उस सभा में थामती तुम चीर अपना हर किसी से माँगती न्याय की दुहाई किससे गूँगों की भीड़ से रूको देवी जो खींचते घसीटते तुम्हें लाए हैं निर्ल्लजता से तनिक वो देखो खड्ग उठा कर काट दो वो हाथ और फिर ग्रीवा रोक दो ये अट्टाहस सिंहनी बन होना है इसी क्षण हो जाए महाभारत क्यों वर्षों तक उलझे केश तेरे करे लहू स्नान  की प्रतीक्षा बढ़ो आगे बढ़ो नहीं तो युगों तक बना रहेगा इनका रहेगा पशु व्यवहार क्या पता उन निर्णयों की गूँज नारी को बल दे यूँ पूछ रहा है मन कहाँ बुना जाता है समय का ताना बाना कहाँ रखा जाता है अतीत के पन्नों को पात्रों को वहीं ले चलो उस काल की कुछ घटनाओं को बदल दें २ एक इच्छा अनकही सी आज फिर गली से निकला ऊन की फेरी वाला सुहानें रंगों के गठ्ठर से चुन ली है मैनें कुछ रंगों की लच्छियाँ एक रंग वो भी तुम्हारी पसंद का तुम पर खूब फबता है जो बैठ कर धूप में पड़ोसन से बतियाते हुए भी तुम्हारे विचारों में रत अपने घुटनों पर टिका हल्के हाथ से हथेली पर लपेट हुनर से अपनी हथेलियों की गरमी देकर बना लिए हैं गोले फंदे फंदे में बुन दिया नेह तुम्हारी पसंद के रंग का स्वेटर टोकरी में मेरी पसंद के रंग का गोला पड़ा बाट देखता है अपनी बारी की और मैं सोचती हूँ अपनी ही पसंद का क्या बुनूँ कोई नहीं रोकेगा कोई कुछ नहीं कहेगा पर खुद के लिए ही खुद ही,,, एक हिचक सी पर मन करता है कभी तो कोई बुने मेरी पसंद के रंग के गोले लो फिर डाल दिए है नए रंग के फंदे टोकरी में सबसे नीचे अब भी पड़ा हैं मेरी पसंद के रंग का गोला लेखिका किरन आचार्य आक्समिक उद्घोषक आकाशवाणी चित्तौड़गढ मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “बदल दें “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-poem, hindi poem, history, sita, draupdi