अंधी मोहब्बत
“अंधी मोहब्बत” कहानी का शीर्षक ही अपने आप में किसी प्यार भरे अफ़साने की बात करता है l यूँ तो अंधी मुहब्बत उसे कहते हैं जब इंसान दिल के हाथों इतना मजबूर हो जाए कि दिमाग को ताक पर रख दे l परंतु ये कहानी शुरू होती है एक व्यक्ति की जिसके पति की तेराहवीं हुई है l लेकिन ये कहानी अतीत की ओर नहीं जाती, ये भविष्य की ओर चलती है l अशोक कुमार मतवाला जी व्यंगकार और कथाकार दोनों के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं l और उनके इन्हीं दोनों रूपों को मिलाते हुए कहानी का अंत व्यंग्य का पुट लिए हुए है l जहाँ गंभीर पाठक चौंकता है और फिर एक बार व्यंग्य को समझ मुसकुराता है l अंधी मोहब्बत सुनीता डयोढी में पड़ी चारपाई पर औंधी पड़ी थी। सोकर जब उठी तो उसने चारपाई पर पड़े दर्पण में खुद को निहारा. उसे अपनी आँखें लाल सुर्ख और थकी – हारी सी लगी। कुछ पल यूँही वह दर्पण को पथराई दृष्टि से तकती रही। मेहरा साहिब का तेरहवां पिछले बुध को था! पति का साथ छूटने के बाद उसके सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. अचानक ऐसा हादसा होने की संभावना तक नहीं थी, उसे! अब क्या होगा, कैसे संभाल पाऊंगी सब कुछ अकेले, मैं? मेहरा साहिब थे तो सब कुछ खुद ही संभालते थे. अनगिनत सवाल सुनीता के दिमाग को उथल – पुथल कर रहे थे. बेवश, फफक पड़ी वह! सहसा, बेटे प्रतीक की आवाज उसके कानों में पड़ी, मम्मा, उठो, कुछ खाने को दे दो, प्लीज़. जोरों से भूख लगी है…और खुद तुम भी कुछ खा लो…मम्मा, तुम सुबह कह तो रही थी खाऊंगी, मगर पता नही अभी तक तुमने कुछ खाया भी है या नहीं? तुम भीतर चलो, मैं मुंह धोकर आती हूं! निशा को भी खाने के लिए बुलाले, बेटा, खाने का टाइम तो हो गया है, वह भी गर्म – गर्म खा लेगी! अच्छा, मम्मा!कहकर प्रतीक भीतर आ गया! खाने के बाद, सुनीता ड्राइंग रूम में आई और प्रतीक को टीवी बंद करने का इशारा कर कहने लगी, बेटा, सुन, तूं जिद्द मत कर, अब जब भी तेरा जर्मनी जाने का वीज़ा लगता है, तूं बिना देर किए निशा और अपने बच्चों को लेकर चल… मैं भी इधर कुछ कामों को निपटाकर आती हूं! मैंने कहा है न मम्मा, मैं तुम्हे यहां अकेला छोड़कर जर्मनी नहीं जाऊंगा! तूं पागल मत बन, बेटा, तूं इतना स्याना होता तो अभी से अपनी नौकरी छोड़ कर घर बैठ नही जाता और निशा की भी नौकरी ना छुड़वाता. अब जब तक तेरा वीज़ा नही लगता, क्या करेगा खाली घर बैठ कर? मम्मा, मेरी जर्मनी जाने की बारी तो आई पड़ी थी लेकिन किसी कारणों से जर्मनी सरकार ने प्रवासियों के कोटा पर टेंपरेरी रोक लगा दी है! बेटा, तूने जर्मनी जाना है तो जा, मैने नही अब जाना, वहां! सुनीता अनमने से कहने लगी। “वह कयूं ?” “प्रतीक बेटा समझा कर, मैं और तेरे पापा अभी तो तुम्हारी बहिन सीमा के पास जर्मनी में चार महीने लगा कर आए हैं. बेटी सीमा की जगह अगर तुम वहां होते, बेटा, तो अलग बात थी लेकिन, बिटिया के घर में मेरा रहना ठीक नही। बेटा, सीमा के घर रहने वाली भी बात नहीं. सच कहूं तो जर्मनी में मेरा दिल नही लगा….वहां बहुत बर्फ और ठंड पड़ती है। बेटा, मेरे तो गोडे जुड़ जाते हैं…हाल ही में में जब वहां थी तो सीमा और तुम्हारे जीजा सोम तो अपने-अपने काम पर चले जाते थे और मैं या तो चूल्हे चौके में व्यस्त रहती या उनके बच्चों के सारा दिन डायपर बदलती! न बेटा न, मैं तो अपने घर ही अच्छी, यहां मेरा अपना घर है, घर में सब कुछ है…! जरूरत पड़ी तो काम के लिए मैं एक को भी रख सकती हूं.” “मम्मा, सुनो…तुमने सीमा के पास थोड़ा ही रहना है…तुम्हें तो मेरे पास रहना है….” “तुमने तो वही बात की बेटा जैसे कहावत है – शहर बसा नहीं और लुटेरे पहले आ गए. तूं अभी जर्मनी पहुंचा नही, नौकरी तेरे पास नही, तेरे अपने रहने का जर्मनी में कोई अता पता नही…आया बड़ा मुझे अपने पास रखने वाला!” “इसीलिए तो कहता हूं, मम्मा, तुम साथ चलो. मैं और निशा काम करेंगे और तुम अंशु बेटे और बिटिया सरिता का घर पर खयाल रखना…बहुत जल्दी ही हमारे पास अपने रहने का इंतजाम भी हो जायेगा…” बेटे का जवाब सुनकर सुनीता खामोश रही! देखा, तुम्हारा स्वार्थ तुम्हारे मुख पर आ ही गया कि तुम मुझे अपने पास अपने बच्चों की आया बनाकर रखोगे. मन ही मन यह कहकर सुनीता सुबक पड़ी! मैं आऊंगी बेटा तेरे पास. तूं खुद तो जर्मनी पहले पहुंच! कहकर सुनीता अपने सोने के कमरे की और बढ़ गई. कमरे में प्रवेश करने के बाद भीतर से उसने दरवाजे की चिटखनी लगा दी और सिरहाने में अपना मुंह छिपाकर फूट-फूट कर रोने लगी थी! सहसा, पास रखा फोन बज उठा. अपने आंसू पोंछते हुए सुनीता ने फोन उठाया. आनंद का कनेडा से फोन था! दोनों की अलग अलग शादियां हुई मगर दोनों एक दूसरे से ऐसे बिछड़े थे जैसे दो दोस्त बचपन में किसी मेले में कही गुम हो गए हों. खैर, विधाता ने सुनीता और आनंद को मिलाने का एक और तरीका निकाला। फेसबुक के जरिए एक बार फिर दोनो आपस में मिल गए थे! सैकड़ों मील दूर होने पर भी दोनों एक अच्छे मित्र की तरह एक-दूसरे के नजदीक बने रहे! समय बदलता गया…दोनो अपने अपने कर्म करते और भुगतते हुए जिंदगी के अपने अपने सफर पर आगे बढ़ रहे थे! सुनीता आनंद को अपने पति मिस्टर मेहरा से अपनी शादी के पहले से जानती थी. मां -बाप के स्तर पर एक गलतफहमी की वजह से दोनों की मंगनी होकर टूट गई थी! दोनों की राहें जुदा हो गई थीं। सुनीता को आज आनंद के फोन का भी इंतजार था! उन्होंने पहले से बात करने का समय तय कर रखा था! काफी देर तक दोनों बातचीत करते रहे थे! दुनियादारी के डर और घर में व्यस्क बच्चों की शर्म ने जैसे सुनीता की खवाइशों का गला घोट दिया हो. उसकी रूह तक कांप उठी थी। “नही, आनंद मुझसे अब यह … Read more