डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी
जिंदगी क्या है ? पाप और पुण्य का लेखा -जोखा, चित्रगुप्त की वो डायरी जिसके अनुसार हमें स्वर्ग -नर्क या अगला जन्म मिलता है | या डाटा फ्लो डायग्राम – जिसमें हम बार- बार ऐसे निर्णायक मोड पर खड़े होते हैं | जहाँ हम एक फैसले से अपनी आगे की जिंदगी की दिशा तय करते हैं | स्टीव जॉब्स ने एक बार कहा था कि अगर आप अपनी जिंदगी के चित्र को पीछे की डॉटस मिलाते हुए बनाएंगे तो आप को पता चल जाएगा कि आज आप जहाँ हैं वो क्या -क्या करने या नहीं करने के कारण हैं | ये कहानी पाप -पुण्य की अवधारणा को इसी जन्म में किये गए कामों का फल बताती है | बिलकुल क्रिया की प्रतिक्रिया की तरह | जहाँ हम मुख्य घटनाओं को नहीं उनके परिणामों को बदल सकते हैं | आइए पढ़ें सशक्त रचनाकार श्रद्धा थवाईत की आध्यात्मिक टच लिए बेहतरीन कहानी …. डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी कितनी सुन्दर है ये सड़क! सड़क के दोनों ओर गुलमोहर छाये हुए हैं। नीचे काली सड़क पर बिछी गुलमोहर की लाल पंखुडियां और ऊपर गुलमोहर का हरा-लाल शामियाना। मन को एक सुकून सा मिलता है, इस सड़क पर सैर से। दिन भर की दौड़-भाग भरी पुलिस की नौकरी में यह सुकून ही मेरी नियमित सैर का राज है। इस पर चलते हुए मैं अक्सर अपनी जिंदगी का सिंहावलोकन करने लगता हूँ। कल ऑफिस में मुझसे मिलने निखिल आये थे। उनसे मिलने के बाद से मेरा मन कई प्रश्नों से मुठभेड़ में लगा हुआ है। ‘हमारी जिंदगी कौन बनाता है?’ रगों में बहती बात तो यही है, ईश्वर सबकी जिंदगी की स्क्रिप्ट पहले से लिख कर रखते हैं। यदि हां तो फिर ये क्यों कहते हैं, कि मरने के बाद कोई चित्रगुप्त हैं, जो जिंदगी में किये कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं, और इन्हीं कर्मों के आधार पर लोगों को स्वर्ग या नरक में भेजते हैं। कुछ अजीब नहीं है यह? जिंदगी की कहानी लिखी भी ईश्वर ने, फिर अपने ही एजेंट से इसकी एकाउंटिंग भी करा दी, और फिर ऑडिट भी, जबकि सब कुछ पहले से तय है, तो क्या स्वर्ग और नर्क के लिए फिक्सिंग है नहीं है ये? अच्छा तब क्या, जब कोई ना माने कि ईश्वर होता है तो? तो कौन कहता है यह कहानी? कौन लाता है निर्णय की परिस्थिति? रगों में बहती बात छोड़ दूँ तो मेरे तार्किक दिमाग के आधार पर हम जिंदगी मेहनत और कर्मों के तानों-बानों से खुद बुनते हैं। तो सच क्या है? पहले जिंदगी की कहानी लिखी गई, या पहले जिंदगी जी गई, कि किश्तों में लिखी जाती है जिंदगी की कहानी. इस हरियाले शामियाने में मन के प्रश्नों के इस ऑक्सीजन सिलेंडर ने मुझे यादों के सागर में गहरे उतार दिया है। निखिल से जुडी यादें जेहन में कौंध रही हैं। जिनके साथ मैं अपने इन प्रश्नों के, किसी नायाब मोती से उत्तर की खोज में गोते लगाये जा रहा हूँ। तब मैं बिलासपुर में पुलिस अधीक्षक था। नयी-नयी नौकरी थी। दुनिया बदल देने का, समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जूनून था। मैं हर सप्ताह सोमवार को पुलिस ग्राउंड में, कभी शामियाना लगाकर, तो कभी नीम के पेड़ के नीचे, अपनी टेबल-कुर्सी लगवा कर बैठ जाता। ये मेरा जनता दरबार होता। जिसमें हर वो आम आदमी जो मुझसे मिलना चाहता हो, आकर मिल सकता था। कार्यालय के औपचारिक माहौल से दूर होने के कारण शायद बाकी दिनों की अपेक्षा सोमवार को मिलने वालों की भीड़ बहुत ज्यादा होती। वे ठण्ड के दिन थे, जब नीम के नीचे मेरा जनता दरबार सजा हुआ था. उस सोमवार वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उम्र ज्यादा नहीं थी, लेकिन वह सिर्फ हड्डियों का ढांचा भर था; जैसे किसी ने उसकी त्वचा के नीचे सक्शन पम्प लगा कर सारी चर्बी निकाल ली हो। सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी बची रह गई हो। मैंने एक नजर में उसे स्कैन कर लिया। स्कैनिंग जो हमारे प्रशिक्षण का हिस्सा होती है, जो हमारी रग-रग में बसी होती है। किसी आदमी को देख कर ही मैं बता सकता हूँ कि इस धरती पुत्र के पेट में बारूदी सुरंगें दबी हुई हैं या नहीं। खैर उस दिन दिनेश कुछ तुड़ा-मुड़ा सा कागज पकड़े हुए था। उसने आकर हिचकते हुए दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और कहा, “साहेब एक अर्जी हे साहेब।” “हां कहो।” मैंने मेरी आवाज का हिस्सा बन चुकी रौबीली संवेदनशीलता से कहा, “साहेब! मोर संपत्ति कुरुक हो गिस हे। साहेब! आप ले बिनती हे, के आप ओला छुड़ा देवा, साहेब! हमर करा रहे बर भी जघा नई हे।” उसकी आवाज में कातरता थी. “क्यों कुर्क हो गया ही तुम्हारा घर? कुछ कागज है तुम्हारे पास? दिखाओ।” मैंने पूरा मामला समझने के लिए अभिलेख देखने चाहे। उस हड्डी के ढांचे में हरकत हुई। तुड़े-मुड़े दो पर्चे अब मेरे हाथ में थे। एक पर्चे पर दिनेश का कुर्की ख़त्म करने आवेदन था, तो एक में कोर्ट का कुर्की का आदेश। आदेश को मैंने ध्यान से देखा। कोर्ट के आदेश पर ही कुर्की हुई थी। “ये कुर्की क्यों हुई है?” “साहेब में एक बरस तक घर के भाड़ा नई दे सकें, एकरे बर मकान मालिक ह मोर सम्पति कुरुक करा दिस।” उसकी आवाज में सच्चाई थी। उसने किराया जमा नहीं किया था। कोर्ट के आदेश से कुर्की हुई थी। इसमें सब कुछ नियमानुसार ही था, इसलिए इसमें मेरे करने लायक कुछ नहीं था. मैंने यह बताते हुए उसे जाने का इशारा कर दिया, लेकिन वह जर्जर ढांचा कहता रहा, “साहेब! बिनती हे साहब! मोर संपति ले कुरुकी के आदेश हटवा देवा साहेब। ईसवर आपके भला करही साहेब। बिनती हे साहेब!” मैंने एक सिपाही को उसे सारी बात समझा देने के लिए कहा। सिपाही उसे समझाने के लिये दूर ले जाने लगा, लेकिन वह मुड़ मुड़ कर मुझ से कहने लगा, “साहेब! बिनती हे, आप बस पांच मिनिट मोर बात सुन लेवा.” उसकी आवाज में दीनता थी, जिससे मेरा मन कुछ पिघल सा गया. मैंने कहा, “पांच मिनट क्या, तुम दस मिनट अपनी बात कहो; कहो क्या कहना है?” उसने भीड़ की तरफ देख किसी को पास आने का इशारा किया। एक मुंह बाँधी हुई वृद्धा और एक … Read more