गुज़रे हुए लम्हे – अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….     अध्याय 5 विवाह के बाद (ग्वालियर, ओबरा, कोरेगाँव दिसम्बर 1969 से 71)   विदाई के बाद ओबरा से बनारस तक टैक्सी से ही जाना था।  बनारस से ट्रेन लेनी थी फिर मानिकपुर और उसके बाद झाँसी पर बदलनी थी।  बारात की कोच पूर्ण रूप से आरक्षित थी जो अलग अलग ट्रेनों में कटकर लगनी थी, पर हम दोनों के लिये अलग प्रथम श्रेणी में आरक्षण था।  यहाँ से हमारी जान पहचान होनी शुरू हुई थी। सबसे पहले तो वह दुल्हन वाली पोशाक बदलकर दूसरे कपड़े पहने, ज़ेवर उतार कर रखे ।ट्रेन कुछ लेट थी, मानिकपुर पर दूसरी ट्रेन छूटने का डर था तो अरुण बहुत तेज़ी से पुल की तरफ चले बिना ये सोचे कि कोई और भी साथ है। कुली भी दौड़ा और मुझे भी दौड़ना पड़ा पर हमने ट्रेन पकड़ ली। बारात की कोच उस ट्रेन में लग नहीं पाई कुछ घंटों बाद किसी दूसरी ट्रेन में लगी थी। हम बारात से 5,6 घंटे पहले ग्वालियर पहुँच गये। मोबाइल क्या उस समय घरों में भी फोन होना बड़ी बात होती थी। स्टेशन मास्टर के कमरे से जाकर अरुण……….. नहीं अब मैं ‘इन्होंने’ कहूँगी क्योंकि उस समय पति का नाम लेने का रिवाज नहीं था न इसकी इजाजत थी !अब ये अब आदत बन चुकी है।वहाँ घर पर भी फोन नहीं था किसी पड़ौसी के यहाँ से संदेश भेजा कि हम पहुँच गये हैं अब क्या करें। कुछ समय में इनकी बहने  वहाँ स्टेशन आ गईं और वहाँ वेटिंग रूम में ही मैं वापिस दुल्हन के जोड़े में तैयार हुई और हम बहनों के साथ चले दिये । जहाँ हम पहुँचे थे वह पड़ौसी का घर था, ये मुझे कुछ देर बाद पता चला। मेरी सास जिन्हें सब चाची जी कहते हैं ,उन्होंने आदेश दिया था कि जब बारात वापिस आ जायेगी तभी बहू प्रवेश करेगी, हमें वहाँ शायद पाँच छ: घंटे तक तो रुकना पड़ा था, तब जाकर गृह प्रवेश हुआ।  हमारे यहाँ कोई पैर से चावल गिराने या रंगीन पानी में पैर रखकर गृह प्रवेश की प्रथा नहीं है, ये प्रथा पता नहीं कहाँ की है जो टीवी धारावाहिकों ने लोकप्रिय बनाई है। चाची जी ने आरती की मुंह मीठा कराया और प्रवेश हो गया।   हम दोनों की जान पहचान तो ट्रेन में ही हो गई थी ,अब दोस्ती की शुरुआत होनी थी, लेकिन उससे पहले बहुत सी रस्में निभानी थीं और परिवार के तौर तरीके समझने थे। वहाँ का वातावरण हमारे घर से बहुत अलग था, चाची जी(सास जी) कुछ मामलों में बहुत अलग थीं। वह घूँघट पल्ला वगैरह पर ध्यान देती थीं, टोकती थीं, तो बड़ी नंद भी कम नहीं थी,  बड़ों के बराबर नहीं बल्कि नीचे पीढ़े  पर बैठना चाहिये यह इशारा बार बार आता था, जो मुझे बहुत बुरा लगता था। कभी इशारा न समझ के मैं साथ में बैठ ही जाती थी। ऐसी परम्परायें हमारे भारतीय परिवारों में होती ही थी, लेकिन और कोई बात परेशानी वाली नहीं थी। हलवा  बनाने क रस्म भी प्रतीकात्मक ही थी, बस हाथ लगवा दिया न हलवा बना न नेग मिला।   पहले तो इन्होंने सोचा था कि ये मुझे अपने साथ छुट्टी खतम होने पर विजयवाड़ा ले जायेंगे परंतु  लम्बी छुट्टी लेते ही विजयवाड़ा से तबादला कोरेगाँव हो गया।  कोरेगाँव सतारा जिले का महाराष्ट्र में एक गाँव था।  छोटी लाइन से बड़ी लाइन का निर्माण चल रहा था, वहाँ एक डेढ़ साल काम चलना था और कोई सुविधा नहीं थी इस लिये मुझे लेकर नहीं जा सकते थे। वैसे भी एक बार ओबरा जाना ही था। आम तौर पर पहली बार ससुराल से लेने छोटे भाई जाते हैं पर मेरा कोई छोटा भाई नहीं था, भैया ही लेने आये।  मैं शायद एक डेढ़ महीने ओबरा  रही थी। कोरेगाँव जाना तो था ही ओबरा या ग्वालियर में बहुत समय तक तो नहीं रह सकती थी। ये ओबरा लेने आये फिर ग्वालियर कुछ दिन रुककर हम कोरेगाँव पहुँच गये।   उन दिनों हनीमून का तो रिवाज था नहीं ,यही हनीमून था।नई लाइन के लिये स्टेशन मास्टर के लिये जो घर बनाया गया था वह फिलहाल हमारा घर था।दो छोटे छोटे कमरे, न बिजली न पानी की व्यवस्था।काम करने के लिये दो तीन आदमी थे । सामने स्टेशन की बिल्डिंग में छोटा सा दफ्तर एक दो क्लर्क एक जीप और ड्राइवर थे। दफ्तर सामने था पर ये लगभग रोज़ ही लाइन का दौरा करने जाते थे । पास में नदी से पानी आता था। कपड़े एक आदमी नदी पर ही धोकर ले आता था।  दो लालटेन थीं, बाद में पैट्रोमैक्स भी आ गई थी, मौसम वहाँ हमेशा सुहावना रहता था इसलिये गर्मी कभी नहीं लगी, पंखे की कमी महसूस नहीं हुई।  बिजली नहीं थी पर फ़ोन था, बिना डायल वाला,जिसमें नम्बर बताने पर सामने वाला जुड़ता था।पानी नदी से आता था पर रसोई गैस थी, जिसका सिलेंडरसतारा से आता था। हमारी गृहस्थी की शुरुआत ख़ूबसूरत सी थी।  ये ज्यादा बात नहीं करते थे, शुरुआत मुझे ही करनी पड़ती थी। कभी सतारा जाकर पिक्चर देख आते थे। कभी कभीपूना जाते तो वहाँ भी कोई पिक्चर देख लेते थे। शाम के समय रमी खेलते या फिर ट्राँजिस्टर पर गाने सुनते थे। उन दिनों बिनाका गीत मालाऔर रेडियो सीलोन से और बी.बी सी. से समाचार सुनते थे।   कोरेगाँव के प्रवास में हमने करीब डेढ़ साल में तीन घर बदले। ज़िंदगी से ज़्यादा  उम्मीद नहीं की थी इसलिये सब अच्छा लग रहा था। एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। इनका स्वभाव शांत सा था,  कुछ ज़्यादा … Read more