आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |
अब आगे ….
अध्याय 5
विवाह के बाद
(ग्वालियर, ओबरा, कोरेगाँव दिसम्बर 1969 से 71)
विदाई के बाद ओबरा से बनारस तक टैक्सी से ही जाना था। बनारस से ट्रेन लेनी थी फिर मानिकपुर और उसके बाद झाँसी पर बदलनी थी। बारात की कोच पूर्ण रूप से आरक्षित थी जो अलग अलग ट्रेनों में कटकर लगनी थी, पर हम दोनों के लिये अलग प्रथम श्रेणी में आरक्षण था। यहाँ से हमारी जान पहचान होनी शुरू हुई थी। सबसे पहले तो वह दुल्हन वाली पोशाक बदलकर दूसरे कपड़े पहने, ज़ेवर उतार कर रखे ।ट्रेन कुछ लेट थी, मानिकपुर पर दूसरी ट्रेन छूटने का डर था तो अरुण बहुत तेज़ी से पुल की तरफ चले बिना ये सोचे कि कोई और भी साथ है। कुली भी दौड़ा और मुझे भी दौड़ना पड़ा पर हमने ट्रेन पकड़ ली। बारात की कोच उस ट्रेन में लग नहीं पाई कुछ घंटों बाद किसी दूसरी ट्रेन में लगी थी। हम बारात से 5,6 घंटे पहले ग्वालियर पहुँच गये। मोबाइल क्या उस समय घरों में भी फोन होना बड़ी बात होती थी। स्टेशन मास्टर के कमरे से जाकर अरुण……….. नहीं अब मैं ‘इन्होंने’ कहूँगी क्योंकि उस समय पति का नाम लेने का रिवाज नहीं था न इसकी इजाजत थी !अब ये अब आदत बन चुकी है।वहाँ घर पर भी फोन नहीं था किसी पड़ौसी के यहाँ से संदेश भेजा कि हम पहुँच गये हैं अब क्या करें। कुछ समय में इनकी बहने वहाँ स्टेशन आ गईं और वहाँ वेटिंग रूम में ही मैं वापिस दुल्हन के जोड़े में तैयार हुई और हम बहनों के साथ चले दिये । जहाँ हम पहुँचे थे वह पड़ौसी का घर था, ये मुझे कुछ देर बाद पता चला। मेरी सास जिन्हें सब चाची जी कहते हैं ,उन्होंने आदेश दिया था कि जब बारात वापिस आ जायेगी तभी बहू प्रवेश करेगी, हमें वहाँ शायद पाँच छ: घंटे तक तो रुकना पड़ा था, तब जाकर गृह प्रवेश हुआ। हमारे यहाँ कोई पैर से चावल गिराने या रंगीन पानी में पैर रखकर गृह प्रवेश की प्रथा नहीं है, ये प्रथा पता नहीं कहाँ की है जो टीवी धारावाहिकों ने लोकप्रिय बनाई है। चाची जी ने आरती की मुंह मीठा कराया और प्रवेश हो गया।
हम दोनों की जान पहचान तो ट्रेन में ही हो गई थी ,अब दोस्ती की शुरुआत होनी थी, लेकिन उससे पहले बहुत सी रस्में निभानी थीं और परिवार के तौर तरीके समझने थे। वहाँ का वातावरण हमारे घर से बहुत अलग था, चाची जी(सास जी) कुछ मामलों में बहुत अलग थीं। वह घूँघट पल्ला वगैरह पर ध्यान देती थीं, टोकती थीं, तो बड़ी नंद भी कम नहीं थी, बड़ों के बराबर नहीं बल्कि नीचे पीढ़े पर बैठना चाहिये यह इशारा बार बार आता था, जो मुझे बहुत बुरा लगता था। कभी इशारा न समझ के मैं साथ में बैठ ही जाती थी। ऐसी परम्परायें हमारे भारतीय परिवारों में होती ही थी, लेकिन और कोई बात परेशानी वाली नहीं थी। हलवा बनाने क रस्म भी प्रतीकात्मक ही थी, बस हाथ लगवा दिया न हलवा बना न नेग मिला।
पहले तो इन्होंने सोचा था कि ये मुझे अपने साथ छुट्टी खतम होने पर विजयवाड़ा ले जायेंगे परंतु लम्बी छुट्टी लेते ही विजयवाड़ा से तबादला कोरेगाँव हो गया। कोरेगाँव सतारा जिले का महाराष्ट्र में एक गाँव था। छोटी लाइन से बड़ी लाइन का निर्माण चल रहा था, वहाँ एक डेढ़ साल काम चलना था और कोई सुविधा नहीं थी इस लिये मुझे लेकर नहीं जा सकते थे। वैसे भी एक बार ओबरा जाना ही था। आम तौर पर पहली बार ससुराल से लेने छोटे भाई जाते हैं पर मेरा कोई छोटा भाई नहीं था, भैया ही लेने आये। मैं शायद एक डेढ़ महीने ओबरा रही थी। कोरेगाँव जाना तो था ही ओबरा या ग्वालियर में बहुत समय तक तो नहीं रह सकती थी। ये ओबरा लेने आये फिर ग्वालियर कुछ दिन रुककर हम कोरेगाँव पहुँच गये।
उन दिनों हनीमून का तो रिवाज था नहीं ,यही हनीमून था।नई लाइन के लिये स्टेशन मास्टर के लिये जो घर बनाया गया था वह फिलहाल हमारा घर था।दो छोटे छोटे कमरे, न बिजली न पानी की व्यवस्था।काम करने के लिये दो तीन आदमी थे । सामने स्टेशन की बिल्डिंग में छोटा सा दफ्तर एक दो क्लर्क एक जीप और ड्राइवर थे। दफ्तर सामने था पर ये लगभग रोज़ ही लाइन का दौरा करने जाते थे । पास में नदी से पानी आता था। कपड़े एक आदमी नदी पर ही धोकर ले आता था। दो लालटेन थीं, बाद में पैट्रोमैक्स भी आ गई थी, मौसम वहाँ हमेशा सुहावना रहता था इसलिये गर्मी कभी नहीं लगी, पंखे की कमी महसूस नहीं हुई। बिजली नहीं थी पर फ़ोन था, बिना डायल वाला,जिसमें नम्बर बताने पर सामने वाला जुड़ता था।पानी नदी से आता था पर रसोई गैस थी, जिसका सिलेंडरसतारा से आता था। हमारी गृहस्थी की शुरुआत ख़ूबसूरत सी थी। ये ज्यादा बात नहीं करते थे, शुरुआत मुझे ही करनी पड़ती थी। कभी सतारा जाकर पिक्चर देख आते थे। कभी कभीपूना जाते तो वहाँ भी कोई पिक्चर
देख लेते थे। शाम के समय रमी खेलते या फिर ट्राँजिस्टर पर गाने सुनते थे। उन दिनों बिनाका गीत मालाऔर रेडियो सीलोन से और बी.बी सी. से समाचार सुनते थे।
कोरेगाँव के प्रवास में हमने करीब डेढ़ साल में तीन घर बदले। ज़िंदगी से ज़्यादा उम्मीद नहीं की थी इसलिये सब अच्छा लग रहा था। एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। इनका स्वभाव शांत सा था, कुछ ज़्यादा ही शांत, किसी बात में न रोकने टोकने की आदत थी न तारीफ़ करने की। कोरेगाँव में एक बार मम्मी आईं थी उनके स्वभाव से तो वे आश्वस्त रहीं पर घर देखकर उन्हे कुछ निराशा तो ज़रूर हुई थी। मैंने उन्हें समझा दिया था कि ऐसा हमेशा नहीं रहेगा, उनके ताऊजी जिन्हें सब बाबू जी कहते थे वह भी कुछ दिन आकर रह गये थे। जब मैं गर्भवती हुई तब मेरी तबीयत ठीक न रहने का कारण बाबूजी समझ गये और उन्होंने ग्वालियर जाकर सब को बता भी दिया था। जब यह सुनिश्चित हो गया कि मैं माँ बनने वाली हूँ तो इन्होंने मुझे जल्दी से जल्दी ग्वालियर छोड़कर आने का मन बना लिया। जहाँ तक मुझे याद है ये पाँचवें या छटे महीने में मुझे ग्वालियर छोड़कर कोरेगाँव वापस चले गये थे। ग्वालियर में कई महीने गुज़रना, वह भी उनके बिना बहुत मुश्किल था। किसी का व्यवहार मेरे साथ बुरा नहीं था बस उपेक्षाओं के द्वंद थे। न मैं उनकी अपेक्षा पर खरी उतर रही थी और न वह मेरी। वहाँ का वातावरण तौर तरीके अलग थे सिर ढकना क्या लगभग घूँघट करना पड़ता था, पीठ पर साड़ी का पल्ला रखना ज़रूरी था, इसमें ज़रा सी चूक हुई तो चाची जी(सास जी) की नज़र भेद डालती थी। मुझे क्या चाहिये मेरे बदलते मानसिक व शारीरिक परिवर्तनों के कारण उठी तकलीफ़ों से कोई सरोकार नहीं था। बस सुबह एक गिलास दूध देकर अपेक्षा की जाती थी कि मैं सात आठ लोगों की रसोई संभालूँ । मैंने लगकर घर के काम किए नहीं थे, इस स्थिति में तो बिलकुल नहीं कर पा रही थी, तो पीठ पीछे काफ़ी कुछ चरचरायें होती थीं जो सुनाई पड़ जाती थीं। दरअसल इन चर्चाओं को उद्देश्य मुझसे छिपाना होता भी नहीं था, बल्कि अपनी बात मुझ तक पहुँचाना होता था, बात पहुँचती भी थी, पर मुझे ख़ुद को साबित करने के लिये सारे काम सिर पर उठाने का कतई शौक नहीं था। मैं समझ गई थी कि यहाँ मुझे अपना ख़याल खुद रखना है । मुझे ही डाक्टर के पास जाने, दवाइयाँ मंगवाने का ख़याल रखना पड़ता था। कभी किसी ने नहीं पूछा कि तुम्हें कुछ चाहिये तो नहीं ! कोई चीज़ मँगवाने के लिये पैसे देने के बाद भी कई कई दिन तक वह वस्तु नहीं आ पाती थी, तो झुंझलाहट होती थी । ग्वालियर मेरा शहर नहीं था कि मैं ख़ुद अपनी ज़रूरत का सामान लेने निकल पड़ूँ। इनके बिना कई महीने ग्वालियर में गुज़ारना आसान नहीं था। मेरे देवर वहाँ पढ़ रहे थे वहीं सरकारी मैडिकलकॉलिज में मुझे दिखाया जाता रहा । ये तो पूरी ज़िम्मेदारी छोड़कर चले गये थे बस पत्र व्यवहार था। कैसे न कैसे समय बीत ही रहा था, मुझे पूरी उम्मीद थी कि बच्चे के जन्म के समय तो ये आयेंगे पर नहीं, ये आये पर दीवाली मनाने।वह तो बच्चे का जन्म एक सप्ताह टल गया था, जन्म के तीन चार दिन बाद ये वहाँ पहुँचे थे।मैं दुखी भी थी और क्रोधित भी पर उस समय चुप रहना ही सही लगा था।
11 अक्तूबर को तनु का जन्म काफ़ी मुश्किल से हुआ दो रात दर्द में प्रसूति कक्ष के बाहर गलियारे में बिताईं कमरा नहीं मिला था, घर जा नहीं सकती थी। मैं कुछ कहने या करने की स्थितिमें नहीं थी। चाची जी ने उस दिन अहोई अष्टमी का व्रत करवा दिया था।उनकी बात का किसी ने विरोध नहीं किया। खाने पीने के भी पारम्परिक तरीके अपनायेगयेथे। तनु के जन्म से पहले भी और बाद में भी वे तो डॉक्टरों की बात न सुनने की कसम खाकर बैठी थी। जिस दिन अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी उस दिन भी ये लेने नहीं आये, जबकि ग्वालियर पहुँच चुके थे। मुझे बहुत गुस्सा आया। अस्पताल से मेरे देवर घर लेकर आये थे। परंपरागत तरीके से मालिश वाली का प्रबंध हो गया था। चालीस दिन तक कमरे में ही रहना था। मेरे पास मेरी कोई ननद सो जाती थी। इनसे बात तक करने का मौक़ा नहीं दिया जाता था। उनका कहना था 40 दिन अलग रहना है, अलग रहने का ये मतलब तो नहीं कि हमें बात तक करने का मौक़ा न दिया जाये। कोरेगाँव वाले और ग्वालियर वाले अरुण में ज़मीन आसमान का अंतर था। मैं काफ़ी परेशान थी घुटन होती थी। मम्मी भी बच्चे के साथ बुलाना चाह रहीं थी। ये वापस जा चुके थे। भैया ने चोखा महाराज के भतीजे को लेने ग्वालिय़र भेजा था। चोखा महाराज के भतीजे कांति को भैया ने वहाँ नौकरी लगवा दी थी और वह चोखा महाराज के साथ रहता था। ओबरा करीब एक महीने रहकर ये मुझे लेने ओबरा आये। मम्मी ने परंपरागत तरीके से सब ससुराल वालों के लिये कपड़े देकर विदा कियाथा। मुझे और तनु को तो सब कुछ दिया था। मम्मी ने बड़े शौक से तनु के कपड़े और स्वेटर भी ख़ुद बनाये थे। मम्मी ने मुझे पढ़ाने या शादी के खर्चो या बाद में देने लेने के लिये भैया पर कभी दबाव नहीं डाला। पिताजी के न होने पर भी अपनी सब ज़िम्मेदारियाँ अपने दम पर पूरी की थीं।
बीनू भटनागर
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