गुमनाम गांव से संसद तक तक सफर – फावजिया कूफी, मानव अधिकार कार्यकर्ता



संकलन: प्रदीप कुमार सिंह
            फावजिया का जन्म अफगानिस्तान के एक सियासी परिवार
में हुआ।
उनके पिता की सात पत्नियां थी। परिवार में पहले से
18 बच्चे थे। मगर पिता संतुष्ट
नहीं थे। वह चाहते थे कि घर में एक और बेटा पैदा हो। इस बीच फावजिया का जन्म हुआ।
वह
19वीं संतान थीं। मां को जब पता चला कि उन्होंने बेटी को जन्म दिया है, तो वह डर गई। उन्हें लगा कि
उनके शौहर को यह पसंद नहीं आएगा। इसलिए नवजात बच्ची को घर के बाहर चिलचिलाती धूप
में मरने के लिए छोड़ दिया। मगर अल्लाह को कुछ और मंजूर था। कुछ घंटों के बाद देखा
गया
, तो बच्ची जिंदा थी। मां का दिल पिघल गया। उसे गले लगाते हुए तय किया कि चाहे
जो हो जाए
, वह बच्ची को पालेंगीं।

            उनका परिवार बदख्शां प्रांत के एक छोटे से गांव में
रहता था। पिता सांसद थे। इलाके में उनका खास रूतबा था। अक्सर सियासत के कामकाज के
लिए गांव से बाहर जाना होता था। नन्ही फावजिया को कभी पिता के करीब जाने या उनके
बात करने का मौका नहीं मिला। उन दिनों रूढ़िवादी अफगान परिवारों में बेटियों को
दुलार करने का रिवाज नहीं था। घर की सभी महिलाएं
, चाहे वे किसी भी उम्र की हों, परदे में ही रहती थीं।
बेटियां स्कूल नहीं जाती थीं। होश संभालते ही उनका निकाह करा दिया जाता था।
फावजिया बताती हैं
, अब्बू ने गांव में एक स्कूल खुलवाया। वह हमारे गांव का पहला स्कूल था। लेकिन
उस स्कूल में केवल लड़कों को पढ़ने की इजाजत थी। यहां तक कि उन्होंने अपने घर की
बेटियों को भी स्कूल जाने का मौका नहीं दिया
, क्योंकि बेटियों का घर से बाहर निकलना बहुत खराब
माना जाता था।

            उनके अब्बू 25 साल तक सांसद रहे। यह 80 के दशक की बात है। मुल्क के
घरेलू हालात बहुत खराब हो चुके थे। अफगान जंग के दौरान मुजाहिद्दीन ने उनकी हत्या
कर दी। अब्बू की मौत के बाद परिवार बिखर गया। मां ने बच्चों के संग गांव छोड़कर
राजधानी काबुल जाने का फैसला किया। शहर का माहौल गांव से काफी अलग था। काबुल में
स्कूल और अस्पताल थे। फावजिया तब
10 साल की थीं मां ने उन्हंे स्कूल भेजने का फैसला किया। यह
सुनते ही परिवार के लोग चैंक गए। यहां तक कि फावजिया के भाई भी यह नहीं चाहते थे
कि वह स्कूल जाए। सवाल था कि जब आज तक खानदान की कोई बेटी स्कूल नहीं गई
, तो भला फावजिया को यह मौका
क्यों मिले
? मगर मां के आगे किसी की नहीं चली।

            कुछ समय तो ठीक चला, लेकिन बाद में काबुल के हालात भी खराब होने लगे।
तालिबान की दखल बढ़ने लगी। घर के बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं था। कहीं भी किसी
वक्त अचानक गोलियां चलने लगती थीं। पर स्कूल जाना जारी रहा। जब तक वह स्कूल से घर
नहीं लौट आतीं
, मां दरवाजे पर खड़े रहकर उनका इंतजार करती रहतीं। फावजिया बताती हैं, हमारे गांव में महिलाओं को
डाॅक्टर के पास जाने तक की इजाजत नहीं थी। लोग कहते थे कि भला एक महिला कैसे किसी
मर्द डाॅक्टर से अपना इलाज करा सकती है
? इसलिए मैंने डाॅक्टर बनने का फैसला किया। मगर यह
सपना टूट गया।

            उन दिनों वह डाॅक्टरी पढ़ रही थीं। तालिबान ने काबुल
पर धावा बोल दिया। उनके मेडिकल काॅलेज पर भी हमला किया गया। काबुल छोड़कर भागना
पड़ा। परिवार के संग फावजिया वापस गांव आ गईं। उन्होंने गांव आकर स्कूल खोला और
लड़कियों को पढ़ाने लगीं। यह बात तालिबान को अच्छी नहीं लगी। इस बीच उनकी शादी हो
गई। पति रसायनशास्त्र के टीचर थे। मगर मुश्किलों का पहाड़ टूटना अभी बाकी था। शादी
के दस दिनों बाद ही उनके पति को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। फावजिया बताती हैं
,
मेरे हाथों की
मेंहदी भी नहीं छूटी थी कि तालिबान ने मेरे शौहर को पकड़कर जेल भेज दिया। उनका
अपराध सिर्फ यह था कि उन्होंने मुझसे शादी की थी। जेल में उन्हें खूब प्रताड़ित
किया गया। वहां उन्हें टीबी की बीमारी हो गई। कुछ समय बाद वह घर लौटे
, मगर तब तक बीमारी गंभीर हो
चुकी थी। कुछ दिनों के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
            पति की मौत से फावजिया को गहरा झटका लगा, पर अब उनके इरादे और मजबूत
हो चुके थे। तय किया कि वह तालिबानी जुल्म बर्दाश्त नहीं करेंगी।
साल
2001 में उन्होंने लड़कियों को
स्कूल भेजने का अभियान
बैक टु स्कूलचलाया। अभियान से अफगान महिलाओं को नई ताकत मिली। वर्ष 2005 में उन्होंने पहली बार
चुनाव लड़ा। 

वह अफगानिस्तान की पहली महिला स्पीकर बनीं। फावजिया बताती हैं, मैंने चुनाव लड़ने का फैसला
किया
, ताकि लोगों को न्याय दिला सकंू। मैं जानती थी कि बिना सत्ता में आए, मैं समाज के लिए कुछ नहीं कर
पाऊंगी।
2010 में लोगों ने उन्हें दोबारा चुना। 2009 में उन्होंने महिला हिंसा को रोकने के लिए एक बिल
तैयार करवाया
, पर मर्द सांसदों ने बिल को पास नहीं होने दिया। हालांकि बाद में सभी प्रांतों
ने उसे लागू कर दिया। इस बीच कई बार उन्हंे जान से मारने की नाकाम कोशिशें हुई।
साल
2014 में वह तीसरी बाद सांसद चुनी गईं। फिलहाल वह अफगानिस्तान वुमन, सिविल सोसाइटी और ह्नयूमन
राइट्स की अध्यक्ष हैं।

प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी

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