यूँ तो स्त्री स्वयं में एक कविता है , जिसमें अनगिनत भावनाएं प्रवाहित होती रहती हैं | जो उसके दर्द ,प्रेम , सपने, जीने की आकांक्षा आदि अनेकों भावों को व्यक्त करती हैं | जब कविता स्वयं ही कविता लिखे तो उसमें भावों की प्रचुरता होना स्वाभाविक ही है | आज हम लाये हैं स्त्री के मन की तहों को खोलती कविता विकास जी कवितायें … आइये पढ़ें
कविता विकास जी की स्त्री विषयक कवितायें
स्त्री
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जीने का सलीका सीखने वाली
परिवार की धुरी बन जिलाने वाली
स्त्री ,कितने रूपों में
तुमने जीया है ?
तुमने जीया है ?
बेटी बन कर बाबुल की गोद में फुदकती
घर – आँगन की शोभा तुमसे सजती
तुम सौभाग्य का प्रतीक बन जाती
और एक दिन अपने ही चौखट के लिए
परायी बन जाती
फिर आरम्भ होता तुम्हारा नवावतार
चुटकी भर सिंदुर की गरिमा में
बलिदान कर देती अपना अस्तित्व
अन्नपूर्णा बन बृहद हो जाता व्यक्तित्व
दुःख की बदली में तुम सूर्य बन जाती
हर प्रहार की ढाल बन जाती
और जिस दिन वंश तुमसे बढ़ता
तुम स्त्रीत्व की पूर्णता को पाती
माँ की संज्ञा पाते ही वृक्ष सा झुक जाती
ममता ,माया ,दुलार एक सूत्र
में पिरोती
में पिरोती
तुम ही लक्ष्मी ,तुम ही सरस्वती
होती
होती
बेटी ,पत्नी और माँ को जीते – जीते
तुम जगदम्बा बन जाती
इतने रूपों में भला कोई ढल पाया है ?
एक ही शरीर में इतनी आत्माओं को
केवल
तुमने ही जीया है ।
तुमने ही जीया है ।
पर कितनी शर्मनाक बात है ,
अपनी
ही कोख में तुम मार दी जाती हो !!!
ही कोख में तुम मार दी जाती हो !!!
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No. 2
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मैं विश्वम्भरा हूँ
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अंतर्मन में दुंदुभी बजती है
वाद – प्रतिवाद में खूब ठनती है
निःशब्द युध्म महा विध्वंशक होता है
मन का तार – तार छलनी करता है ।
खोलना चाहा जब मन का गिरह
झटक दिया तुमने कह मुझे निरीह
पग-पग पर बिछाया काँटों की सेज
जब की बराबरी ,करना चाहा
निस्तेज ।
निस्तेज ।
रे पुरुष ,अब न सहूँगी ,
मैंने
ठान लिया
मैंने
ठान लिया
स्त्री की अस्मिता आखिर तुमने मान लिया
युगांतर में विलम्ब नहीं ,मैं विश्वम्भरा
हूँ
हूँ
अंतर्भूत है ज्वाला और ज्वार की उफान हूँ ।
सूर्यमान सी दीपित होती जाऊँगी
प्रबल प्रवाह सी बहती जाऊँगी
आये जो तिमिर की सघनता
या शिलाखंड की बाधा अनंता ।
दीप्तमान रहना है ,न लौटूँ हो
निराश
निराश
अजेय रहना है ,काल का तोड़ पाश
म्रियमाण नहीं ,साक्षात देवी
अवतार
अवतार
दिविज
हूँ ,शक्ति मुझमे अपरम्पार ।
हूँ ,शक्ति मुझमे अपरम्पार ।
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No. 3
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लड़की
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पिता की अंगुली पकड़ कर चलने वाली लड़की
देखते – देखते सयानी हो जाती है
अपने निवाला का फ़िक्र छोड़कर
पिता की दवाई का खर्च उठाने लगती है ।
माँ ने जब से बिस्तर पकड़ा है
रसोई को करीने से सजाने की जिम्मेवारी
भी वह उठाने लगी है
अपना सोलहवां वसंत देखने से पहले ही
वह बड़ी हो जाती है ।
घर के पुराने सामान जैसे बिकते हैं
वह भी एक दिन बेच दी जाती है ।
पति की छाया बन कर चलने वाली लड़की
अपने सुगढ़ स्पर्श से
एक मकान को घर बना देती है
रोटी की सौंधी खुशबू से लेकर
बैठक में रखे रजनीगंधा की तरह
वह महकती
रहती है।
रहती है।
सुबह की शुरुवात उससे होती है
दिन भर चक्कर घुरनी की तरह घुमती
रात को बिस्तर पे जाने वाली
वह अंतिम प्राणी होती है
एक लड़की कहाँ नहीं बसती है ?
कमरे
के कोने – कोने से लेकर
के कोने – कोने से लेकर
फिजाओं में जहां तक नज़र जाए
वह ही वह होती है ।
अपने बच्चों में जान बसाने वाली लड़की
एक दिन उसके रहमो करम की मोहताज़ हो जाती है ।
अपनी सुध गवां कर
बेटे – बहू की सेवा में
अहर्निश जुड़ी रहती है
तब घर की रानी सबसे संकीर्ण
कमरे में ठेल दी जाती है
उसी एक पुराने सामान की तरह
जो अपनी अहमियत खो बैठा है ।
जिम्मेदारियों तले पिस – पिस कर
जीने वाली लड़की
जानती है कि
वह है ,तो घर है ।
वह है ,तो घर है ।
काश ऐसी पहचान उन सबमें होती
जिनसे वह बेटी ,पत्नी और माँ
के रूपों में जुड़ी होती है ।
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No. 4
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फिर उगना आ गया है
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लगाकर
रखा था बरसों तक पहरा
हमें घर से निकलना अब आ गया है।
छाया था काले धुएँ सा कुहरा
हमें सूरज सा निकलना आ गया है।
जीवन के टेढ़े – मेढ़े रास्तों, संभल जाओ
हमें राह बदलना आ गया है।
हाथ की
रेखाओं ज़रा बदल जाओ
रेखाओं ज़रा बदल जाओ
हमें किस्मत गढ़ना आ गया है।
कमर कस
लिया हुनर हज़ार सीखने को
लिया हुनर हज़ार सीखने को
हमें हर
हार को जीतना आ गया है।
हार को जीतना आ गया है।
बिस्तर
की फ़िक्र है नींद वालों को
की फ़िक्र है नींद वालों को
हमें करवटों में रात गुज़ारना आ गया है।
मेरे परवाज़ को उठती हज़ारों दुआएँ
हमें तुम्हारा कद्र करना आ गया है।
ठान लिया , आँधियों का रुख़ मोड़ते जाएँ
हमें ढल
कर फिर उगना आ गया है।
कर फिर उगना आ गया है।
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No. 5
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इंतज़ार
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तुम्हें पता है न ,इंतज़ार का आलम
अगन – कुंड में जलने जैसा होता है
वह आग
जिस पर पानी भी
जिस पर पानी भी
नहीं डाला जा सकता है
किसी की दुआ और सहानुभूति
कारगार नही होती है
हर आहट पर चौंक कर पलटना
हर ध्वनि पे उस पहचानी सी आवाज़ को तलाशना
बिन पलकें झपकाए हर अपरिचित साए को भाँपना
बेचैनी के साथ शर्मिंदगी भरा भी होता है
और वह बेरहम पल जो आगे बढ़ता ही नहीं
मानो
समय नहीं ,युग बीत रहा हो
समय नहीं ,युग बीत रहा हो
जज़्बातों की दौड़ इस होड़ में कि
पहले मैं
निकलूं ,पहले मैं
निकलूं ,पहले मैं
शिराओं की तंग
नलियों में उत्पात
नलियों में उत्पात
मचाने लगती है
चेहरे की लालिमा एक अज्ञात भय से
नीली – काली होने लगती है
कभी सीढियां ,कभी बालकोनी ,कभी
खिड़की
खिड़की
शायद
ही कोई जगह हो जहाँ
ही कोई जगह हो जहाँ
पैर न खींचे चले जाते हों
और जब इंतज़ार की घड़ियाँ ख़त्म होती हैं
तब मानों लावा बिखेर कर
ज्वालामुखी शांत हो गया हो
न कोई शब्द फूटते ,न बोली
केवल आँखें बोलती हैं
कुछ शिकायतें ,कुछ इनायतें
ख़ामोशी से मुखर पड़ते हैं
घड़ी की सुइयों की रफ़्तार तो देखो
बिन हाँफे दौड़ती जाती हैं
जुदाई की बेला चौखट पर आ खड़ी होती है
तुम्हे साथ ले जाने को
और मुझे एक नए इंतज़ार में छोड़ जाने को ।
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कविता विकास
परिचय –
नाम – कविता विकास ( वरिष्ठ शिक्षिका और लेखिका )
शिक्षा – एम.ए.
(अंग्रेजी ,अर्थशास्त्र ),बी.
एड.,पी.जी.डी.(पत्रकारिता)
(अंग्रेजी ,अर्थशास्त्र ),बी.
एड.,पी.जी.डी.(पत्रकारिता)
ई मेल– kavitavikas 28@gmail.com
कृतियाँ – दो काव्य संग्रह (लक्ष्य और कहीं कुछ रिक्त है )प्रकाशित । साझा
काव्य संग्रह (हृदय तारों
का स्पंदन ) ,(खामोश ,ख़ामोशी और हम ), (शब्दों की चहलकदमी) और (सृजक )प्रकाशित ।
काव्य संग्रह (हृदय तारों
का स्पंदन ) ,(खामोश ,ख़ामोशी और हम ), (शब्दों की चहलकदमी) और (सृजक )प्रकाशित ।
प्रकाशित रचनाएँ -दैनिक समाचार पत्र – पत्रिकाओं
,साहित्यिक
पत्रिकाओं व लघु पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लेख और विचार
प्रकाशित ।ई –पत्रिकाओं में
नियमित लेखन ।इंक़लाब ,दृष्टिपात
,शब्ददूत,उत्कर्ष मेल, सम्यक भारत , वुमेन ऑन टॉप
, शब्दिता ,हिंदी चेतना ,वटवृक्ष , माटी ,नव्या ,लोकसत्य,आज का अर्जुन ,मेट्रो उजाला
, लोकजंग ,सद्भावना सन्देश ,वाकधारा,
अभिनव मीमांसा ,यादें, युग गरिमा
, सृजनलोक
,अभिनव इमरोज़ , एक और अंतरीप ,हमारा तिस्ता – हिमालय , वार्तालोक ,अभिनव प्रयास ,नयी
धारा , भव्य
भास्कर, स्कैनर ,सन्मार्ग ,संवृद्ध सुखी परिवार ,संगम
, अन्वेषी , प्रतिमान , अंजुम
,आधुनिक साहित्य ,सर्वप्रथम ,पूरी दुनिया ,
नए हस्ताक्षर, जागरण
सखी , गृहलक्ष्मी ,मेरी सजनी ,वनिता, बिंदिया, दमखम , आधी आबादी , हिमतरु ,समकालीन स्पंदन ,जनसंदेश
टाइम्स ,नव निकष ,इंडियन हेल्पलाइन ,बालहंस ,जनसत्ता , हरिभूमि
,साहित्य यात्रा ,कादम्बिनी, अक्षर पर्व, परिकथा ,परिंदे , हिंदुस्तान, दैनिक जागरण ,अमर
उजाला ,प्रभात
खबर ,दैनिक भास्कर
और अन्य पत्रिकाओं
में लेख और रचनाएं प्रकाशित ।
,साहित्यिक
पत्रिकाओं व लघु पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लेख और विचार
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सम्मान – विशिष्ट हिंदी
सेवी सम्मान ,भारत गौरव सम्मान – २०१२,रंजन कलश
शिव सम्मान ,नारायणी साहित्य अकादमी
अवार्ड– 2012, राजीव गाँधी एक्सीलेंसी एवार्ड 2013, प्रभात
खबर प्रतिभा सम्मान 2014
सेवी सम्मान ,भारत गौरव सम्मान – २०१२,रंजन कलश
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filed under: women, poetry, hindi poetry, kavita
बहुत सुंदर कविताएँ👌👌
बहुत लाजवाब रचनाएं … स्त्री के हर रूप को अलग आयाम दिया है इन रचनाओं में …
बहुत खूब …