बाजा-बजन्तर

बाजा-बजन्तर

अगर आप संगीत के शौक़ीन हैं तो आप के यहाँ भी बाजा बजता ही होगा | कई बार ये शौक आपको वोल्यूम के बटन को प्लस पर दबाने को विवश भी कर देता होगा जिससे आपके साथ -साथ आपके पडोसी भी  आपके उन पसंदीदा गानों का लुत्फ़ ले सकें और अगर वो उनके पसंदीदा  गाने न हो तो  उन्हें भुगत सकें | जो भी हो किसी के घर से आने वाली संगीत की ये स्वरलहरियाँ उसके संगीत प्रेमी होने का ऐलान तो कर ही देती हैं | पर क्या आप जानते हैं कि कई बार बजते हुए बाजे की मनभावन धुनों के पीछे कुछ अलग ही कारण छुपे  होते हैं …. क्या आप सुनना चाहेंगे ?

बाजा-बजन्तर



बाजा अब बजा कि बजा दोपहर
में|

नयी किराएदारिन को देखते ही
मैं और छुटकू उछंग लेते हैं|

वह किसी स्कूल में काम करती
है और सुबह उसके घर छोड़ते ही बाजा बंद हो जाता है और इस समय दोपहर में उसके घर में
घुसते ही बाजा शुरू| छुट्टी वाले दिन तो, खैर, वह दिन भर बजता ही रहता है|

गली के इस आखिरी छोर पर बनी
हमारी झोपड़ी की बगल में खड़ी हमारी यह गुमटी इन लोगों के घर के ऐन सामने पड़ती है|
जभी जब इनका बाजा हवा में अपनी उमड़-घुमड़ उछालता है तो हम दोनों भी उसके साथ-साथ
बजने लगते हैं; कभी ऊँचे तो कभी धीमे, कभी ठुमकते हुए तो कभी ठिठकते हुए| अम्मा जो
धमकाती रहती है, “चौभड़ फोड़ दूँगी जो फिर ऐसे उलटे सीधे बखान ज़ुबान पर लाए| घरमें दांत
कुरेदने, को तिनका नाहीं और चले गल गांजने…..”

“आप बाजा नहीं सुनते?” नए
किराएदार से पूछ चुके हैं हम| हमारीगुमटीपर सिगरेट लेने वह रोज़ ही आता है|

“बाजा? हमारा सवाल उसे ज़रूर
अटपटा लगे रहा? ‘क्यों? कैसे?”

“घर में आपका बाजा जभी बजता
है जब आपकी बबुआइन घर में होती है, वरना नाहीं…..”
“हाँ…..आं…..हाँ…..आं|
बाजा वही बजाती है| वही सुनती है…..”

“आप कहीं काम पर नहीं जाते?”
हमयह भी पूछ चुकेहैं| इन लोग को इधर आए महीना होने को आए रहा लेकिन इस बाबू को गली
छोड़ते हुए हम ने एक्को बार नाहीं देखा है|
“मैं घर से काम करता हूँ…..”

“कम्प्यूटर है का?” “जिन
चार दफ्तरों में अम्मा झाड़ू पोंछा करती है सभी में दिन भर कम्प्यूटर चला करते हैं|
यूँ तो इन लोग के आने पर अम्मा भी इनके घर काम पकड़ने गयी रही लेकिन इस बाबू ने उसे
बाहर ही से टरका दिया रहाकाम हमारे यहाँ कोई नहीं| इधर दो ही जन रहते हैं|”

“हाँ…..आं…..हाँ…..आं…..
कम्प्यूटर है, कम्प्यूटर है| लेकिन एक बात तुम बताओ, तुम मुझे हमेशा बैठी ही क्यों
मिलती हो?”

“बचपनमें इसके दोनों पैर एक
मोटर गाड़ी के नीचे कुचले गए थे, मेरी जगह छुटकू जवाब दिए रहा|”

“बचपन में?” “झप से वह हसे
रहा, ‘तो बचपन पार हो गया? क्या उम्र होगी इस की? ज़्यादा से ज़्यादा दस? या फिर उस
से भी कम?”

“अम्मा कहती हैं मैं, तेरह
की हूँ और छुटकू बारह का…..”

“मालूम है? झड़ाझड़ उसकीहँसी
बिखरती गयी रही, मैं जब ग्यारह साल का था तो मेरा भी एक पैर कुचल गया रहा| लेकिन
हाथ है कि दोनों सलामत हैं| और सच पूछो तो पैर केमुकाबले हमारे हाथ बड़ी नेमत हैं|
हमारे ज़्यादा काम आते हैं| पानी पीना हो हाथ उलीच लो, बन गया कटोरा| चीज़ कोई भारी
पकड़नी हो, उंगलियाँ सभी साथ, गूंथ लो, बन गयी टोकरी…..”

“मगर आप लंगड़ाते तो हो
नहीं?” पूछे ही रही मैं भी|

“हाँ…..आं…..हाँ…..आं…..लंगड़ाता
मैं इसलिए नहीं क्योंकि मेरा नकली पैर मेरे असली पैर से भी ज़्यादा मजबूत है| और
मालूम? तुम भी चाहो तो अपने लिए पैर बनवा सकती हो| कई अस्पताल ऐसे हैं, जहाँ खैरात
में पैर बनाए जाते हैं…..”

“सच क्या?” मेरी आँखों में
एक नया सपना जागा रहा| अपनी पूरी ज़िन्दगी में बीड़ी-सिगरेट और ज़रदा-मसाला बेचती हुई
नहीं ही काटना चाहती| यों भी अपने पैरों से अपनी ज़मीन मापना चाहती हूँ| घुटनों के
बल घिरनी खाती हुई नहीं|

सच, बिल्कुल सच| एकदम सच, वह
फिर हंसे रहा, और मालूम? मेरा तो एक गुर्दा भी मांगे का है, दिल में मेरे पेसमेकर
नाम की मशीन टिक
-टिक करती है और मेरे मुँह के तीन दांत सोने के हैं…..”

“दिखाइए,” “छुटकूउनके रहा,
‘हम ने सोना कहीं देखा नाहीं…..”
“सोने वाले दांत अन्दर के
दांत हैं, दिखाने मुश्किल हैं…..”

“नकली पैर के लिए कहाँ जाना
होगा?” अपने घुटनों पर नए जोड़ बैठाने को मेरी उतावली मुझे सनसनाए
रही|

“पता लगाना पड़ेगा| मेरा
नकली पैर पुराना है| तीस साल पुराना…..”

“दो पैकिट सिगरेट चाहिए,” अपनी बबुआइन
के स्कूल के समय वह आया है, लेकिन उधार…..

उसके हाथ में एक छोटा बक्सा
है|
“बाहर जा रहे हैं?” छुटकू
पूछता है|
“हाँ, मैं बच्चों के पास जा
रहा हूँ|”
“वे आप के साथ नहीं रहते?”

“नहीं| उधरकस्बापुर में उन
के नाना नानी का घर है| वहीं पढ़ते हैं| वहीं रहते हैं…..”
“ऊँची जमात में पढ़ते हैं?”

“हाँ| बड़ा बारहवीं में है
और छोटा सातवीं में| इधर कैसे पढ़ते? इधर तो हम दो जन उन की माँ की नौकरी की ख़ातिर
आए हैं| सरकारी नौकरी है| सरकार कहीं भी फेंक दे| चाहे तो वीरमार्ग पर और चाहे तो,
ऐसे उजाड़ में”

“उजाड़ तो यह है ही” मैं
कहती हूँ, “वरना म्युनिसिपैलटी हमें उखाड़ न देती? यह गुमटी भी और यह झोपड़ी भी|”

“सड़क पार वह एक स्कूल है और
इधर सभी दफ्तर ही दफ्तर,” वह सिर हिलाता है|

“उधार चुकाएँगे कब?” छुटकू
दो पैकेट सिगरेट हाथ में थमा देता है|

“परसों शाम तक,” वह ठहाका
लगाता है, “इधर इन दो डिबिया में कितनी सिगरेट है? बीस| लेकिन मेरे लिए बीस से ऊपर
है| मालूम है? एक दिन में मैं छः सिगरेट खरीद पीता हूँ और सातवीं अपनी कर बनायी हुई|
छः सिगरेटों के बचे हुए टर्रों को जोड़कर|”

“उधरकस्बापुर में नकली पैर
वाला अस्पताल है|” पैर का लोभ मेरे अन्दर लगातार जुगाली करता है| अम्मा की शह पर,
“जयपुर नाम का पैर मिलता है| ताक में हूँ जैसे ही कोई तरकीब भिड़ेगी, तेरे घाव
पुरेंगे| ज़रूर पुरेंगे|”

“कस्बापुर में? नाहीं…..
नाहीं….. कस्बापुर कौन बड़ी जगह है?”

“आज बाजा नहीं बज रहा?”
छुटकू धीर खो रहा है| बबुआइन को अपने स्कूल से लौटते हुए हम देखे तो रहे|

“जा कर पूछेगा?” मैं हँसती
हूँ|
बबुआइन से हम भय तो खाते ही
हैं|

बाजा-बजन्तर
फोटो क्रेडिट –विकिपीडिया ऑर्ग 


सुबह स्कूल जाते समय बंद
दरवाज़ा खोलती है और एकदिश धारा की मानिन्द नाक अपनी सीध पर लम्बे-लम्बे डग भर कर
गली से ओझल हो लेती है| इसी तरह दोपहर में दौड़ती हाँफती हुई बंद अपने दरवाज़े पर
अपने कदम रोकतीहै और दरवाज़ा खुलते फिर ओझल हो जाती है| अपने से उसने कभी हमें पास
बुलाए तोरहा नहीं और फिर जितना उसे दूर ही से देखा पहचाना है उसी से उस पर भरोसा
तो नहीं ही जागता है|

“हो,” छुटकू चुटकी बजाता
है, “सिगरेट का उधार माँगने के बहाने से जा तो सकता हूँ…..”
छुटकू के साथ वह भी हमारी
गुमटी पर चली आती है|
“सिगरेट किस से ली थी?”
उसकी आवाज़ में ऐंठ है, ठसकहै|

“मुझ से,” मैं कहती हूँ|
“यहाँ कोई और भी तो बैठता
होगा? यह गुमटी है किस की?”
“हमारी है-”
“लेकिन इसे चलाता कौन है?”
“हमीं तो चलातो हैं-”
“मतलब? तुम्हारे साथ और कोई
नहीं?”
“नहीं,” उसकी बेचैनी बढ़ते
देख करमुझे ठिठोली सूझती है|

“यह कैसे हो सकता है?” अपनी
खीझ वह दबा नहीं पा रही, “मुझे तो लगता है, इधर जब भी मेरी नज़र पड़ी है मुझे तुम
अकेले तो कभी दिखाई नहीं ही दिए हो…..”

“वे सब हमारे ग्राहक होते
हैं,” उसे खिजाने में मुझे मज़ा आ रहा है|
“और उनमें से कोई तुम्हें
धोखा नहीं दे जाता? ज़ोर-ज़बरदस्ती या चकमे से सामान उठा नहीं ले जाता?”
“नाहीं…..कभी नाहीं…..”

“ज़रूर तुम झूठ बोल रही हो|
अच्छा, यहबताओ, तुम्हारी माँ कहाँ है? पिता कहाँ है?”

“हमारा बाप हमें छोड़ भागा
है, यकायक बप्पा और उसका रिक्शा मेरी आँखों के सामने चला आता है| रिक्शे में बप्पा
की नयी घरवाली और दूसरे बच्चे बैठे हैं|

“ओह|” उसकी तेज़ आवाज़ मंदपड़
रही है,” और तुम्हारी माँ?”
“माँ है, “मैं अब रोआंसी हो
चली हूँ,” माँ ही अब सब कुछ है…..”
“ओह!” वह और नरम पड़ जाती
है|
“आज बाजा नहीं बज रहा?”
छुटकू मौके का फायदा उठाता है|
“बाजा?”
“हाँ, बाजा| आप का बाजा|”
“बाजा? ओह, बाजा| बाजा
सुनने के मेरे पति शौक़ीन हैं, मैं नहीं…..”

“लेकिन आप शौक़ीन नहीं तो
फिर आप इतना बजाती क्यों हो?”

“मैं कहाँ बजाती हूँ? वही
बजाते हैं-” फिर खट से पलट कर पूछती है,- “अच्छा एक बात बताओ| बाजा जभी बजता है
जिस समय मैं घर पर नहीं रहती? मेरे पीछे क्या 
वे बिल्कुल नहीं बजाते?”

“नाहीं| बिल्कुल नाहीं,”
छुटकू हँस पड़ता है “आप इधर होती हैं, बाजा जभी बजता है…..”

“ओह|” “उसकी ऐंठ, उसकी ठसक
गायब हो रही है|”
“अच्छा, आप हमें बतइयो,” मेरीज़ुबान से मेरे
सवाल टपक रहे हैं, “आप के बाबू का एक पैर नकली हैका? एक गुर्दा मांगे का है का?
दिल में मशीन फिट है का? तीन दांत सोने के हैं का?”
“मैं नहीं जानती,” वह ठिरा
गयी है|

सिगरेट के पैसे दिए बिना ही
अपने घर की दिशा में लपक ली है|
“फकड़ी है वह बाबू?” छुटकू
से कम, अपने से ज्यादा पूछती हूँ, उस का पैर एक नकली नाहीं?”

“फकड़ीतो वह है ही,” छुटकू
कहता है, तू यह सोच उस का नकली पैर अगर तीस साल पुराना है तो फिर उस के दूसरे के
बराबर कैसे है?”

तीसरे दिन, दोपहर के समय
बाबू हमें गली में दिखाई देता है|
ज़रूर वह लोकल से सड़क पर ही
उतर लिया होगा|
इस बार उसके दोनों हाथ भरे
हैं| पहले वाले छोटे बक्से के इलावा एक झोला भी पकड़े हैं|
सीधे वह हमारी गुमटी में
आया है|

“सिगरेट है?” खरीदारी उसकी
ऐसे ही शुरू हुआ करती है|

“अभी तो उधार भी है,” मेरा
गुस्सा छलका जा रहा है| क्यों छकाए रहा यह मुझे?

“उसी उधार में यह डिबिया भी
जोड़ लेना,” अपना झोला वह हमारी गुमटी में टिका रहा है, “इसे उधर अन्दर अभी नहीं ले
जाऊँगा| बाद में यहीं से उठा लूँगा…..”
“इसमें क्या है?” छुटकू
पूछता है|

“मेरे महीने का राशन…..”

“बबुआइन यहाँ आयी थी,” उसका
कूट खोलने की मुझे बेचैनी है|

“मेरीसिगरेटका नामे खाता
बंद कराने? मेरी हर ख़ुशी की तान तोड़ना उसे बहुत ज़रूरी लगता है|”
“उसने बताया आप के पास कोई
कम्प्यूटर नहीं है,” अटकल पच्चू में तीर छोड़ती हूँ|

“यह नहीं बताया, अपनी नौकरी
मैंने छोड़ी नहीं थी, मेरी नौकरी ने मुझे छोड़ा था| मेरे साथ और भी कितने लोगों की नौकरियाँगयी
थीं| जिसटी.वी. कम्पनी में हम काम करते थे, वहीबंद कर दी गयी थी| हमारे काम में
थोड़े न कोई कमी थी| बल्कि मुझे तो अपने काम में ऐसा कमाल हासिल था कि कंपनी की जिस
भी टी.वी. मेंकैसी भी खराबी क्यों न होती, मैं फ़ौरन जान जाता था और सही भी कर देता
था|
  कम्पनी के एम.डी. कम्पनी के चेयरमैन
सभी अफसर मुझे मेरे नाम से जानते थे| टी.वी. में कोई भी शिकायत होती, मेरे ही नाम
की डिमांड आती, लालता प्रसादही को भेजना, वह अच्छा कारीगर है…..”

“बबुआइन ने बताया, बाजा आप
बजाते हो, आप सुनते हो, छुटकू ने बाजे की कमी बहुत महसूस की है, पिछले पूरे दो दिन
पूरा सन्नाटा रहा है| बाजा एकदम बज ही नहीं रहा|”

बजा -बजंतर



“बजेगा| बाजा अब बजेगा|
भलामानुस हूँ इसलिए बाजा ही बजाता हूँ| कोई दूसरा होता तो उस औरत की कुड
-कुड बंदकरनेके वास्ते उस की
गरदन मरोड़ देता| ऐसी बेरहम औरत है, जब से मेरी नौकरी गयी है उसकी कुड
-कुड ऐसीशुरू हुई हैकि बस एकदम
बरदाश्त के बाहर है…..”

बाबू के जाने के बाद हम
झोला खोलते हैं| झोले में शराब की कई बोतलें हैं|
बाजा बज रहा है|

लेकिन अब बाजा पकड़ने की
बजाए मेरे कान बंद दरवाजे के पीछे की कुड
-कुड आवाज़ पकड़ना चाहते हैं|

दीपक शर्मा 

लेखिका


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दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो  उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com

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2 thoughts on “बाजा-बजन्तर”

  1. बेकार, निठल्ले, झूठे, बातूनी, दोगले……- सब के पास नारी उत्पीडन का क्रूर हथियार है और एक मूक दर्शक संवेदनशील बच्चा।

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