डॉग शो

कहानी -डॉग शो

यूँ तो शहरों में डॉग शो आयोजित होते रहते हैं , पर ये डॉग शो कुछ अलहदा था , यहाँ पर बात सिर्फ उस डॉग शो की नहीं हो रही है जो प्रतियोगिता में विजयी हुआ था ….असली डॉग शो तो प्रतियोगिता के बाद शुरू हुआ , जानिये कैसे ….

कहानी -डॉग शो 

चन्द्ररूपिणी को
उसके माता-पिता के साथ उसके नाना हमारे घर लाए थे|


सन् १९६८ में|


हमारी छत के एकल
कमरे में उन्हें ठहराने|


हमारे दादा और उसके
नाना एक ही राजनैतिक पार्टी के सदस्य थे और अच्छे मित्र भी| हमारे दादा उन दिनों
सन् सड़सठ की लोकसभा के निर्वाचित सदस्य थे और उसके नाना हमारे प्रदेश की विधान-सभा
के मनोनीत सदस्य|


“मेरी यह इकलौती बेटी
मेरी दूसरी पत्नी की सौतेली है और ऊपर से रुग्णा भी,” चन्द्ररूपिणी के नाना ने
ब्यौरा दिया था, “अपने जीते-जी अपनी पत्नी के हाथों बेटी की दुर्गति मुझ से देखे
नहीं बनती…..”


कहानी -डॉग शो




चन्द्ररूपिणी ने
हमें अधिक जानने में उत्सुकता दिखायी थी|
कह नहीं सकते उसे
हमारे पास खींच लाने में किस कारक की भूमिका ज़्यादा बड़ी रही थी…..


ग्यारह-ग्यारह वर्ष
का हमारा बालपन और पन्द्रह-वर्षीया उसकी किशोरावस्था?



अथवा हम दोनों
भाइयों के एकरूप जुड़वां होने की विलक्षणता? और हमें एक दूसरे से अलग चिन्हित करने
की जिज्ञासा?


या छत का वह एकल
कमरा और उसमें बिछे तख़्त पर चौबीसों घंटे विराजमान उसकी माँ? जो उस समय तक असाध्य
माने जाने वाले अपलास्टिक एनीमिया के अन्तर्गत कभी अपने नाक से रिस रहे खून को
सम्भाल रही होतीं तो कभी अपने मसूड़ों से रिस रहे खून को? और ऊबती-घबराती चन्द्ररूपिणी
वहां रुकना न चाहती? नीचे भाग आती?


या फिर उसके पिता की
नौकरी? जो उन्हें दिन भर परिवार से दूर रखा करती? चन्द्ररूपिणी को ढेर सा खाली समय
देती हुई? उसके पिता दिन भर की रसोई निपटा कर मुंह अंधेरे जो अपनी साइकल से पैंतीस
मील दूर बसे कस्बापुर के एक इंटर कॉलेज में भौतिक विज्ञान तथा उसके प्रैक्टिकल की
शिक्षा देने निकलते तो दोपहर बाद ही लौट पाते| चन्द्ररूपिणी के नाना ने क्या जान बूझकर
ऐसा दामाद चुना था जिसे रईसी ने शुरू ही से किनारे रखे रहा था?


या फिर हमारे पप्स
की नवीनता? जिन में मिस्टी स्याह काला था- कोयली काला- औरटफ़्फ़ी के शरीर के ऊपर के
बाल काले थे और नीचे के लाल? और जो दोनों ही उन दिनों अपने दांत निकाल रहे थे?
औरजिन का डॉग हाउस हमारे पिछवाड़े के उसी आँगन में स्थित था जहाँ चन्द्ररूपिणी अपनी
साइकल टिकाया करती? वह दसवीं में पढ़ती थी और अपने स्कूल साइकल से आती जाती थी|


मैस्टिफ़ नस्ल की एक झोल
में से अभी चार माह पहले हमारे दादा के एक मित्र ने हमें ये दो पप्स दिए थे| अपनी
आँखें उन्होंने यहीं हमारे सामने खोली थीं| नवें-दसवें दिन| और अपने कान,
पन्द्रहवें-सोलहवें दिन|


जब तक अपने पाँचवें
महीने में उन दोनों ने अपने अपने बयालीस के बयालीस दांत निकाले, चन्द्ररूपिणी पूरी
तरह से उन के संग घुल-मिल चुकी थी| वे दोनों उसे देखते ही अपनी पूँछ हिलाने लगते
और अपने टहलुवे किशोरीलाल से भोजन ग्रहण करते समय उस के हाथ से भी खाद्य पदार्थ
स्वीकार कर लेते|

“देखो तो,” फिर
चन्द्ररूपिणी ही ने कुछ माह बाद अखबार का एक विज्ञापन हमारे सामने ला रखा, “अगले
महीने एक डॉग शो होने जा रहा है| क्यों न हम इस दूसरे वर्ग के लिए अपने पप्स को
उसमें भाग दिलाएँ?”
विज्ञापन पढ़ कर हम
दोनों भी एक साथ उछल पड़े|
अमरीकन कैनल क्लब द्वारा
निर्धारित नियमों के आधार पर उस वर्ग में ६ और बारह महीनों के बीच की आयु के पप्स की
नस्ल और बाज़ीगरी परखी जानी थी|

“ये ज़रूर तुम भाइयों
के लिए ट्रॉफ़ी जीत लाएँगे,” हमारी माँ भी हमारे साथ उत्साहित हो लीं, “इन के वज़न
और ऊँचाई तो अमरीकन पैरामीटर्स के अपेक्षित ही है…..”

अपने उस ग्यारहवें
महीने में मिस्टी और टिफ़्फ़ी सत्तावन-सत्तावन किलो वज़न तथा अढ़ाई-अढ़ाई फुट ऊँचाई पा
चुके थे|
पप्स-विषयक एक किताब
माँ के पास रहती थी जो सचित्र भी थी| उसीमें से माँ ने पप्स को सधाने व हाँकने के
सूत्र भी हमें उपलब्ध करा दिए|
 

हमारे पिता की तुलना
में हमारी माँ हमारे पप्स से अधिक जुड़ी थीं| दोनों के स्नान व भोजन वह अपनी
निगरानी में करवाती ही थीं, साथ ही उन्हें खूब दुलारतीं व पुचकारती भी रहतीं|
किताब के उन सूत्रों को वेग दे रही चन्द्ररूपिणीको भी यदा-कदा सराह दिया करतीं|


चन्द्ररूपिणी को
सराहते तो हमारे पिता भी थे| सच पूछें तो हमारे पप्स की दीक्षा से अधिक उन्हें
चन्द्ररूपिणी में अधिक रूचि थी| उसे सामने पाते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दिया करते,
उस का स्कूल कैसा था? उसकी कक्षा में और कितनी लड़कियाँ थीं? वह उन्हें इधर घर पर
क्यों नहीं लाती थी? क्या वे भी उस की तरह सुन्दर थीं? नाज़ुक थीं? लजीली थीं?
बल्कि चन्द्ररूपिणी उन से घबराने भी लगी थी| वह घर पर होते तो वह हमारे कमरे में नहीं ही आती|
हमारा कमरा उसी पिछवाड़े वाले आँगन के साथ सटा था और उस की खिड़कियाँ आँगन ही में खुलती थीं|
चन्द्ररूपिणी हमें वहीं खिड़की से संकेत देती और आँगन से भी लोप हो जाती|




तथपि हमारा वह पूरा महीना चन्द्ररूपिणी की संगति मेंअपने पप्स के शारीरिक प्रशिक्षण में बीता|
औरअन्ततःदोनोंजान गए, हमारे किस आदेश पर उन्हें भौंकना था, किस पर हम से हाथ मिलाना था,
किस पर ज़मीन पर लोटना था, किस परदूर फेंके गए गेंद को हमारे पास लाना था, फिरक ना था
या फिर अपनी पिछली टांगों पर खड़े होना था…..


प्रतियोगिता के दिन
तक वे खूब तगड़े भी हो लिए थे- पुष्ट टॉपलाइन, ठोस, दबीज़ हड्डी तथा दूर तक भरी घनी
छाती से युक्त|


डॉगशो का समय नौ बजे
सुबह से था किन्तु हमारे पिता ने अपनी मोटर सात बजे ही पोर्च में ला खड़ी की थी|


उस समय हमारे घर पर
दो मोटरें थीं किन्तु घर की दूसरी मोटर हमारे दादा के अनन्य प्रयोग के लिए आरक्षित
रखी जाती थी| और उसे उनके ड्राइवर के अतिरिक्त कोई और नहीं छूता था|
अपनी इस मोटर पर
हमारे पिता का आधिपत्य था और हमारी माँ उस में बहुत कम बैठती थीं| कारण, उसे हमारे
पिता ही चलाते थे और हमारे माता-पिता शुरू से ही एक चुम्बक के प्रतिमुख छोर रहे|
लेकिन ठीक आठ बजे उस दिन माँ अगली सीट पर हमारे पिता की बगल में जा बैठीं, अपनी
बगल में चन्द्ररूपिणी को सहेजे|
पिछली सीट पर हम
दोनों भाई, हमारे मिस्टी और टिफ़्फ़ी तथा उन के सामान के साथ उन का टहलूवा,
किशोरीलाल बैठ लिए|
प्रतियोगिता के स्थल
पर पहुँच कर चन्द्ररूपिणीने दर्शकों की पंडाल में हमारे माता-पिता के साथ अपना आसन
ग्रहण नहीं किया|
हमारे साथ सीधी उस
स्थान पर जा खड़ी हुई जहाँ कुत्ते व उनके संरक्षक जमा थे| उस जमाव में स्त्रियाँ और
लड़कियाँ बहुत कम थीं फिर भी चन्द्ररूपिणी निस्संकोच हमारे साथ बनी रही|
भाग लेने वालों में
उन दिनों के जिलाधीश का चुस्त-दुरुस्त कौमोन-डोर भी था किन्तु उसके कर्णधार दो
अधेड़ चपरासी रहे थे| हमारी चन्द्ररूपिणी जैसी दक्षता व तत्परता उन में न थी|


मिस्टी और टिफ़्फ़ी ने
अपनी पारी के सभी करतब चन्द्ररूपिणी की अगुवाई में जिस सिद्धता तथा फ़ुरतीलेपन से
निबाहे उसे देखते हुए निर्णायक-गण के लिए उन्हें विजयी घोषित करना अनिवार्य हो गया|
वंश की विशुद्धता
तथा कद-काठी के मानक पर वर्ग दो के प्रतियोगियों में हमारा मिस्टी ट्रॉफ़ी अपने नाम
कर गया|


कहानी -डॉग शो


“भाई-बहन?” पुरस्कार
वितरण कर रही ज़िलाधीश की पत्नी ने हम तीनों को कप व ट्रॉफ़ी लेने के लिए एक साथ बढ़ते
हुए देखा तो पूछ बैठीं|
“बहन नहीं, मित्र,”
चन्द्ररूपिणीने तपाक से उत्तर दिया|


“हमारी रिंगलीडर,”
अभिभूत हो कर हम दोनों भाई भी बोल पड़े|


“गुड, वेरी गुड,”
वहमुस्कुरायीं और बारी-बारी से हम तीनों की गाल थपथपा दीं|


अपने माता-पिता के
पास लौटते समय हम भाइयों के हाथों में कप रहे और चन्द्ररूपिणी के हाथ में ट्रॉफ़ी|
वह कप से ज़्यादा भारी भी थी|


मोटर में बैठे तो
हमारे फूले हुए दम के संग अपना दम चढ़ाती हुई चन्द्ररूपिणी उल्लास-भरे स्वर में माँ
से बोली, “आंटी जीआप की बात सच निकली| ट्रॉफ़ी हमीं ने जीती| कप हमीं ने जीते…..”
“हमीं? हमीं कहा
तुमने? हमीं?” चोचलाए स्वर में माँ ने खींच कर कहा|
हमीं ही तो कहेगी?”
हमारे पिता ने दांत निपोड़े, “तुम्हारे बेटों की मित्र है| वे उसे अपना रिंगलीडर
मानते हैं| सोचते हैं वह कप, वह ट्रॉफ़ी उसी ने उन्हें दिलायी है…..”
“दिलायी है? या झपटी
है?” माँ तीखी हो लीं, “बेटे तो दोनों मूर्ख हैं| भोले हैं| भूल जाते हैं पप्स हम
पाले हैं| उन्हें खिलाते-पिलाते हम हैं| नहलाते-धुलाते हम हैं| उनके कप और ट्रॉफ़ी
पर हमारा हक बनता है, सिर्फ़ हमारा| किसी दूसरे का नहीं|”
“आप ठीक कह रही हैं,
आंटी जी,” चन्द्ररूपिणी का उल्लास दूर जा छिटका, “मुझ से भूल हुई| मैं भूल गयी टिफ़्फ़ी
और मिस्टी आप के हैं, मेरे नहीं…..”
“यह बात तुम्हें उस
समय भी ध्यान में रखनी चाहिए थी जब विजेताओं को मंच पर बुलाया जा रहा था,” माँ
कड़कीं, “मगर नहीं| तुम्हें लोभ था| लोभ| चर्चा में आने का लोभ| अखबार में अपनी
तस्वीर देखने का लोभ….. अपने को उनकी मालकिन दिखाने का लोभ…..”


“नहीं आंटी जी,”
चन्द्ररूपिणी के बोल रुंध चले, “मुझे ऐसा लोभ कतई नहीं था…..”
“नहीं, माँ,” हम ने
माँ को टोकना चाहा|


“तुम दोनों चुप रहो,”
माँ चिल्लायीं,


“तुम दोनों भोले हो|
बहुत भोले| इसकी चतुराई तुम्हारी समझ से बाहर है….. तुम दोनों भोले हो अभी…..”
“भोली तो यह नहीं ही
है…..” हमारे पिता के स्वर की गम्भीरता संदिग्ध रही, “समझती सब है…..”
दिल मसोस कर चुप बने
रहने के सिवा हम भाइयों के पास कोई रास्ता न था|

हमें अपने माता-पिता
से दुलार कम मिला, दुराग्रह ज़्यादा| दोनों ही को अपनी मनमानी बोलने और चलाने की
पूरी छूट थी| वह हमें कितना भी डपटते हम अपना मुंह खोलते नहीं, थामे रखते|
मोटरसे उतरते ही
चन्द्ररूपिणी ने अपनी छत की सीध बाँधी|


न हमारी ओर देखा न
हमारे मिस्टी व टिफ़्फ़ी की ओर|

“बड़ी बदतमीज़ लड़की
है,” हमारी माँ हम से बोलीं, “खबरदार जो तुम बच्चों ने इस से कभी बात की या इसे
अपने या अपने पप्स के पास फटकने दिया|”
ट्रॉफ़ी और कप जीत लाने
का हमारा विजयोल्लास ओला हो गया|


कहानी -डॉग शो




उस पर पत्थर पड़ने
अभी बाकी थे| जो उसी दिन की दोपहर ढलते ढलते हम पर बरसा गयी|
हमारी दोपहर की नींद
उस समय तक पूरी भी न हुई थी कि हमें मिस्टी व टिफ़्फ़ी की संयुक्त भौंक के बीच अपने
पिता का चीत्कार सुनाई दिया| हम भाइयों को बारी बारी से पुकारने के साथ साथ|


हम दोनों तत्काल
आँगन में निकल आए|


देखा, हमारे पिता
औंधे मुंह ज़मीन पर लोट रहे थे और मिस्टी व टिफ़्फ़ी उन्हें घेरे थे| मिस्टी उनकी बाँहों
को दबोच रहा था और टिफ़्फ़ी उन के घुटनों को|


उन्हें फटकारते हुए
हम अपने पिता की ओर लपक लिए|


उन्हें छुड़ाने|

ज़मीन से ऊपर खड़ा
करने|
“यह हुल्लड़ कैसा है?”
जब तक माँ भी आँगन में चली आयीं|


“यह पिल्ले पगला गए
हैं,” हमारे पिता तमके, “इनका घर पर बने रहना अब खतरे से खाली नहीं…..
इन्हें यहाँ से हटवाना ही पड़ेगा…..”


जभी मिस्टी व टिफ़्फ़ी
अपनी भौंक छोड़कर उस साइकल के चक्कर काटते हुए रिरियाने लगे जो हमारे पिता की बगल
में गिरी पड़ी थी|


साइकल चन्द्ररूपिणी
की थी|
“यह साइकल यहाँ गिरी
क्यों पड़ी है? और ये पप्स इस के गिर्द यह कैसा विलाप कर रहे हैं?”
“साइकल इन्हीं पागल
कुत्तों ने इधर लुढ़कायी है| मैं बता रहा हूँ यह पागल हैं| इन्हें यहाँ से भेजना ही पड़ेगा| आज ही|
अभी…..” हमारे पिता ने हठ पकड़ लिया, “पुलिस एनिमल कंट्रोल यूनिट को अ
भी बुलवाता
हूँ…..”
“नहीं माँ,” हम ने
माँ से विनती की, “इन्हें मत जाने देना| ये पागल नहीं हैं…..”
“मैं जानती हूँ| ये
पागल नहीं हैं| पगलाया कोई और है| ये पूरे होशमन्द हैं| होश खोया कोई और है,” माँ
ने व्यंग्य कसा|
“सम्भल कर बात करो,”
हमारे पिता गरजे, “वरना तुम भी पागल करार कर दी जाओगी…..”
हमारे पिता हमारे
दादा की इकलौती सन्तान थे और उन का कोई भी कहा वह बेकहा नहीं जाने देते थे|
पुलिस के पशु
नियन्त्रण विभाग को हमारे दादा ने यकायक अपने स्टाफ़ से फ़ोन करवाया और एक घंटे केभीतर
एक पुलिस जीप हमारे घर के फ़ाटक पर आन पहुँची|
पुलिस विभाग के पशु
नियन्त्रण यूनिट के सदस्य लिए|
उन्हें आँगन का
रास्ता दिखाने से पहले हम भाइयों को हमारे कमरे में बंद कर दिया गया| हमारेपिता के
शब्दों के साथ, “मैं नहीं चाहता बाहरी वे लोग मेरे बेटों को गोहार मारते सुनें या
देखें…..”
हमारी खिड़कियों ही ने
हमें दिखाया….. पुलिसकर्मियों द्वारा मिस्टी व टिफ़्फ़ी को सी. ई. मिक्सचर, क्लोरो-फॉर्म
व ईथर सुंघाते हुए…..


मिस्टी व टिफ़्फ़ी को
अचेत होते हुए…..


पुलिसकर्मियों
द्वारा उनकी अचेतावस्था की पुष्टि करते हुए…..
अन्ततः उन्हें उठा
कर अपनेसाथ ले जाते हुए…..
अगली दोपहर हमारेलिए
दूसरा आघात लायी|
स्कूल से लौटे तो छत
की ओरजा रही सीढ़ियों के पास एक ठेले को खड़े पाया| उस में चन्द्ररूपिणीके परिवार का
सामान लादा जा रहा था| उस के पिता की निगरानी में|
अपने बस्तों समेत हम
ने उन के पैर जा छुए|


“खुश रहो,” उन्होंने
हमें आशीर्वाद दिया| सहज भाव से| कटुता से रिक्त स्वर में|


‘चन्द्ररूपिणी के
बगैर?’ मन में उठ रहे संदेह को हम ने गले में दबा दिया|


सीढ़ियों का रुख किया
और चन्द्ररूपिणी के कमरे में जा पहुँचे|


वह अपनी माँ के साथ
तख़्त पर बैठी थी : भौचक्की व आतंकित|


हमें देखते ही रो
पड़ी|


हम भी अपनी रुलाई
रोक नहीं पाए|



लेखिका -दीपक शर्मा 

लेखिका -दीपक शर्मा


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