| झुलनी मेरे मन पर काबिज थी | इसलिए तुरंत मैं कोई गंभीर कृति नहीं पढना चाहती थी
| कुछ हल्का –फुल्का, मजेदार पढने के उद्देश्य से मैंने भगवंत अनमोल जी का राजपाल
प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘बाली उमर’ उठाया | जैसा की कवर पेज देख कर और कुछ
चर्चा में सुन –पढ़कर लगा रहा था कि बच्चों
की मासूम शरारतों के ऊपर होगा | लिहाजा मुझे अपना चयन उचित ही लगा | जिन्होंने
भगवंत अनमोल जी के जिन्दगी 50-50 पढ़ा है , यहाँ उन्हें वो बिलकुल अलग शैली में ही
नज़र आयेंगे |
थोड़ी ख़ुशी बढ़ गयी | पुराना नवाबगंज याद आने लगा | नवागंज से हम लोगों की पहचान
चिड़ियाघर यानि की Zoo के साथ जुडी थी | जिनको नहीं पता उनको बता दूं कि कानपुर का
चिड़ियाघर 76.55 एकड़ में फैला नार्थ इण्डिया का सबसे बड़ा Zoo है | आंकड़े तो खैर बाद
में पता चले पर अनुभव ये था कि हम लोग के घर के बड़े चलते –चलते थक जाते थे और एक
जगह बैठ जाते थे और हम बच्चों को बड़ों की डांट के बिना मुक्त विचरण का सुअवसर
मिलता था | तब कौन जानता था कि नवाबगंज के किसी दौलतगंज मुहल्ले में लेखक की
कल्पना का गाँव होगा जहाँ उसके अनुभव व् कल्पना का गठजोड़ बच्चों के संसार में जाकर
किसी “बाली उमर “ को लिखेगा |
बड़ों को बचपन की उम्र में ले जाने के लिए हैं | हालांकि जब मैंने ये उपन्यास शुरू
किया तो मैं इससे बहुत कनेक्ट नहीं कर पायी |
लेकिन जैसे –जैसे “पागल है” का चरित्र आगे बढ़ता गया मेरे पाठक मन पर
उपन्यास अपना शिकंजा कसता गया | अब क्यों कनेक्ट नहीं कर पायी और फिर क्यों उपन्यास ने प्रभावित किया इसके बारे में बताती हूँ |उसी
तरीके से जैसी छूट लेखक ने ली है , कुछ आगे का पीछे और पीछे का हिस्सा आगे करने की
शैली के साथ |
बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर
चारों मुख्य पात्र बच्चे हैं | लेखक एक-एक
पात्र की विशेषता बताते हुए आगे बढ़ते हैं | ये चार पात्र हैं | पोस्टमैन, खबरी लाल
, गदहा और आशिक और इनके बीच में “पागल है
“ का किरदार | जिसकी चर्चा बाद में | तो पोस्टमैन वो बच्चा है जो किशोर और युवा प्रेमियों
के खत इधर –उधर पहुँचाने का काम करता है |
हर मौहल्ले में ऐसे कुछ बच्चे होते है जो
इस नेक काम के स्वयंसेवक होते हैं | अब क्योंकि वह चिट्ठियाँ इधर –उधर पहुचाने के
दौरान उन्हें पढ़ भी लिया करता था इसलिए उसका ज्ञान दूसरे बच्चों से ज्यादा हो गया
था था | जिसके कारण वो अपनी मंडली का सबसे योग्य सदस्य समझा जाता था |
के पिता दुदहा थे | यानि गाँव भर से दूध इकट्ठा कर शहर में बेचा करते थे |
खबरीलाल इसमें अपने पिता का हाथ बँटाता था
| गाँव भर के घरों में जाने के कारण उसे हर
घर की खबर रहती थी | आप उसे पत्रकार की श्रेणी में रख सकते हैं | खबरों को वो अपने दोस्तों से साझा कर बिना खरीदे खबर देने का अपना पत्रकारिता धर्म निभाता था |
जो बच्चे पढने में अच्छे होते थे वो या तो फ़ौज में जाते थे या लेखपाल हो जाते थे |
गदहा भी पढने में होशियार था और उम्मीद थी कि वो भी अपने पिता के नक़्शे –कदम पर चल
कर फ़ौज में जाएगा | गदहा की खास बात थी की
वो बहुत प्रश्न पूछता था | वो पढने से भी ज्यादा सोचता था | ऐसे बच्चों को शहर में
लोग साइंटिस्ट की उपाधि देते पर गाँव में उसको इसी वजह से गदहा की उपाधि मिली |
होता है जो बचपन से ही आशिक गिरी को बखूबी
संभाल लेता है | उसे आशिकी के ज्ञान की भी
अधिक जरूरत नहीं होती | ऐसा लगता है कि ये
जन्म से ही आशिक पैदा हुआ है और पैदा होते ही गोविंदा का रक्त उसके सारे शरीर
में बहने लगा |
और आशिक गोरे थे | आशिक कक्षा दो में और
गदहा एक में पढता है | कहानी बच्चों की छोटी –मोटी जिज्ञासाओं के साथ शुरू होती है | गदहा के लिए
बड़ा कठिन प्रश्न है ये जानना कि पृथ्वी गोल है या चपटी | पोस्टमैन उसकी इस
जिज्ञासा को कई प्रयोग करके ये सिद्धकर देते हैं कि पृथ्वी चपटी है | इस तरह के कई
मनोरंजक किस्से हैं | मुझे प्रतीक्षा थी बचपन के ऐसे ही अनेकों मासूमियत भरे
किस्सों की लेकिन कहानी का एक बड़ा हिस्सा
बच्चों के स्त्री –पुरुष संबंधों के प्रति कौतुहल, फिर उसको गन्दी बात समझ कर मन
हटाने की कोशिश और फिर उसको स्वाभाविक समझ
जाने पर है | हालांकि भगवंत जी ने बहुत पहलें एक इंटरव्यू में इस विषय के बाबत पूछे जाने पर कहा था कि,
“जब कहीं बच्चों के उपन्यास या कहानियाँ पड़ता हूँ तो उसमें नैतिक शिक्षा कूट -कूट कर भरी होती है | लेकिन जब कभी मुझे अपना या अपने आस -पास का बचपन याद आता है तो मैं ये कह सकता हूँ कि उस बाहरी नैतिक शिक्षा के भीतरी मन में कई व्यस्क सवाल और ख्याल चल रहे होते थे | दुनिया को जानने की जिज्ञासा होती थी खासकर उन चीजों को जानने की ज्यादा जिज्ञासा होती थी जो हमसे छिपाई जाती थी |”
हों या शहर के | आज यौन शिक्षा पर जोर दिया जाता है पर कहानी 1995 के नौ से बारह –चौदह
साल के गाँव के बच्चों की है |तो हमें उस समय में जाना पड़ता है | मुझे एक अंग्रेजी नॉवेल याद आ
रहा है , “Anne of green Gabies” जिसे Lucy Maud Montgomery ने लिखा है | लड़कियों
के लिए ये समय कठिन होता है | ११ , १२ साल की उम्र में उन पर पाबंदियां लगने लगती
हैं भय बिठाया जाने लगता है | इसमें माँ बच्ची को लड़कों से दूर रहने की हिदायत
देती हुई कहती हैं, “कि लड़कों को छूना मत, लड़कों को छूने से लडकियाँ प्रेगनेंट हो
जाती हैं | स्कूल में बॉल डांस हो रहा है
| वो लड़की कोशिश करती है कि वो डांस ना करे | क्योंकि उसे डर है कि वो लड़के का हाथ
पकड़ लेगी तो गर्भवती हो जायेगी | बाद में उसकी सहेलियां पूछती हैं कि कि तुमने
डांस क्यों नहीं किया | जब वो कारण बताती है तो सभी लडकियां घबरा जाती हैं | एक
बच्ची जिसने अपने दोनों हाथों से लड़कों के हाथ पकड़े थे वो रोने लगती है, “मेरे
बच्चे का पिता कौन होगा ?” ये अंग्रेजी नॉवेल काफी समय पहले लिखा गया था |
लेकिन जब इन्टरनेट नहीं था, शिक्षा नहीं थी तो गाँव की लड़कियों में उस प्रकार की
भयग्रस्त मासूमियत थी |
हैं पर जैसे-जैसे उस पात्र का चरित्र विस्तार लेता जाता है कहानी संजीदा होती जाती
है | दरअसल भगवंत जी ने ‘पागल है’ के माध्यम से बहुत सारी सामाजिक विद्रूपताओं को
चित्रांकन किया है | ‘पागल है’ एक सामान्य से कम बुद्धि का बच्चा है | जो सुदूर
कर्नाटक में अपने माता –पिता, चाचा व् परिवार के साथ
रहता था | किसी आपसी रंजिश के कारण उसके चाचा उसे मेला घुमाने के बहाने ले जाते हैं | वहाँ नशे वाली इडली सांभर खिला कर उसे
बेहोश कर देते हैं | अपने दोस्त के ट्रक के सहारे वो उसे हजारों मील दूर नवाबगंज
इलाके में छोड़ आते हैं | भूखा –प्यासा बारह साल का बच्चा जो भटकता –भटकाता दौलतगंज
पहुँच जाता है | उसे सिर्फ कन्नड़ बोलनी
आती है | गाँव वाले उसकी भाषा नहीं समझ पाते हैं , ना ही वो गाँव वालों की भाषा
समझ पाता है | और जैसा कि आम तौर पर होता
है कि जब हम किसी की भाषा नहीं समझ पाते हैं तो उसे समझने की कोशिश ना करके बस उसे
‘पागल है’ कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं | उसके
साथ भी यही हुआ | पूरा गाँव उसे पागल है के नाम से ही जानने लगा | गाँव के मुखिया
ने उसे अपने तबेले में शरण और दो वक्त की सूखी रोटी तो दी पर बदले में गाय –भैसों
के ढेर सारे काम भी लाद दिए | काम ठीक ना
होने पर उसे बुरी तरह पिटाई भी झेलनी पड़ती | जब कोई बच्चा अपने घर –परिवार से बिछड़
कर भावनात्मक द्वन्द को झेल रहा हो उसके लिए जीवन जैसे बस जो है उसे स्वीकार कर लो
जैसा हो जाता है | धीरे –धीरे कुछ –कुछ हिंदी के वाक्य समझने के बाद भी उसने हिंदी
सीखने में रूचि नहीं ली |
के कहानी संग्रह ‘इश्क के रंग हज़ार’ में शामिल है में भी गुमशुदा बच्चे की पीड़ा
दिखाई गयी है | मुझे एक अन्य उपन्यास याद आ रहा है जिसमें लेखक ने अपने निजी जीवन
पर लिखा है | मैं बात कर रही हूँ Saroo Birerley के उपन्यास A Long Way Home की | पर
‘पागल है ‘ का चरित्र उनसे जुदा है | एक तो उन्हें संरक्षक मिले इसे स्वामी दूसरे यहाँ
अपने ही देश में वो अपनी बात किसी से नहीं कह पा रहा है , ना कोई उसकी बात समझ पा
रहा है | कितनी विडंबना है कि हम एक देश के निवासी होकर भी दूसरी भाषाओँ वहां की क्षेत्रीय पहचान के बारे में कितने
अनजान है | कितने बच्चे ‘पागल है’ की तरह हमारे आस –पास किसी ढाबे में , किसी मिल
में कारखाने में दिन रात काम कर बदले में केवल सूखी रोटी खा कर गुज़ारा कर रहे हैं
|”पागल है’ ने भी तो किसी तरह अपने मन को समझाया था |
‘उसने देखा, दो बछड़ों को बढ़िया करके बैल बनाया जा रहा था | यह देख कर
उसकी रूह काँप गयी | उसके मन में विचार आया कि इन बैलों को कितने क्रूर तरीके से
बैल बनाया जा रहा है | अब ये अपनी इच्छाओं का दमन करके अपने मालिक के अनुसार जीवन
जीने को विवश होंगे | ईश्वर ने उनकी जिन्दगी ऐसी ही लिखी है | हो सकता है इश्वर ने
उसे भी ऐसे ही जीने के लिए भेजा हो हो |”
अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं | वो स्वयं उसके बारे में ‘पागल है’ की हवा
को बहाए रखते हैं ताकि किसी के मन में प्रश्न ही ना उठे | पर प्रश्न उठते हैं उसी
गदहा के मन में जिसे प्रश्न पूछने की आदत थी | वो प्रश्न भी तब उठे जब बम्बई से
आया एक बच्चा जिसे दो चार कन्नड़ के वाक्य आते थे उन्हें बताता है कि ये कर्नाटक का
है और पागल नहीं है | फिर शुरू होती है उसके मन की बात जानने की कोशिश | ये सारा काम चोरी छिपे होता है ताकि मुखिया को भनक ना पड़े | बच्चों की
मुश्किल छोटी नहीं थी | एक तरफ कम बुद्धि के बच्चे को साथ देना तो दूसरी तरफ
मुखिया के विरुद्ध गाँव वालों के सामने इस बात को सिद्ध करना कि वो पागल नहीं है |
ताकि उसे वापस उसके परिवार के पास भेजा जा सकें | मुहल्ले के बदमाश शैतान बच्चे जो सारा समय बेकार की शरारतों में बर्बाद
करते थे अचानक से एक बड़े मिशन को सँभालने में लग गए | अब बच्चों ने उसका साथ कैसे दिया | ये मिशन क्या था और इसका
परिणाम क्या रहा ये तो आप कहानी पढ़ कर ही जान पायेंगे | परन्तु मासूम बच्चों का ये
साझा प्रयास बहुत प्रभावित करता है | कह सकते हैं कि ये उपन्यास की जान है |
परिवेश के अनुकूल है | हालाँकि कानपुर के आस –पास बसे गाँवों की भाषा में थोडा –थोडा
फर्क है | एक कहावत है कि “कोस –कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी |” भाषा का ये जो
थोडा बहुत फर्क है ये गाँव विशेष की पहचान होती है | उसी भाषा का प्रयोग उस
क्षेत्र से कहानी को जोड़ने की दिशा में किया गया सराहनीय प्रयास है | दूसरी बात
जिसका जिक्र खास तौर पर करना चाहूंगी कि कहानी अपने समय को रेखांकित करती है | कई
बार उस समय की राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियाँ कहानी में दृष्टिगोचर होती हैं | जैसे जब पोखरण विस्फोट होने वाला था, इन्टरनेट आया, टी.वी आया ,आदि आदि | एक दृश्य देखिये …
“अमावस्या की रात को ड्रामा था अभी कुछ दिन पहले ही यानि २६ जनवरी 2001 को रेडियों की एक खबर ने पूरे गाँव को सकते में डाल दिया था | भुज में आया भूकंप हजारों लोगों को लील गया था | हजारों के घर तबाह हो गए थे |”
कौतुहल है, जिज्ञासाएं है और फिर संजीदा हो जाना भी है | ‘पागल है’ के साथ इमोशंस
भी हैं | आज कल के युवा पाठकों के लिए लिख रहे हैं | उनकी भाषा क्लिष्ट नहीं होती ना ही वो भूमिका में लम्बे -लम्बे प्रकृति वर्णन बांधते हैं | ऐसा नहीं है कि उसमें कोई सरोकार नहीं होते | लेकिन ये सरोकारों के लिए न लिख कर एक रोचक कहानी में कोई संदेश गूथ देते हैं | जैसा की इस कहानी में भाषा की समस्या को दिखाया गया है | बच्चों में सकारात्मक कामों के प्रति रुझान को बढ़ावा देने का संदेश है |
अगर आप कुछ हल्का -फुल्का यानि ऐसा पढना चाह्ते हैं जो गंभीर ना होते हुए भी आपकी भाव नदी के
जल में एक कंकण फेंक कर भंवर उत्पन्न कर
दे तो ये संग्रह आपके लिए मुफीद है |
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