उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

पति द्वारा श्रापित अहिल्या वातभक्षा बन राम की प्रतीक्षा करती रहीं | और अंततः राम ने आकर उनका उद्धार किया | ना जाने इस विषय पर कितनी कहानियाँ पढ़ी, कितनी फिल्में देखीं जहाँ बिम्ब के रूप में ही सही तथाकथित वातभक्षा अहिल्या के उद्धार के लिए राम सा नायक आ कर खड़ा है | पर पद्मश्री उषाकिरण खान जी के नए उपन्यास “वातभक्षा” वीथिका को किसी राम की प्रतीक्षा नहीं है, उसके साथ स्त्रियाँ खड़ी हैं | चाहे वो निधि हो, यूथिका हो, रम्या इंदु हो या शम्पा | यहाँ स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, कला को समर्पित है, परिवार का भार उठाती है पर समाज का ताना -बाना अभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं है | तो उसके विरुद्ध कोई नारे बाजी नहीं है, एक सहज भाव है एक दूसरे का साथ देने का | एक सुंदर सहज पर मार्मिक कहानी में “स्त्री ही स्त्री की शक्ति का” का संदेश गूँथा हुआ है | जिसके ऊपर कोई व्याख्यान नहीं, कहीं उपदेशात्मक नहीं है पर ये संदेश कहानी की मूल कथा में उसकी आत्मा बन समाया हुआ है |

वातभक्षा -राम की प्रतीक्षा की जगह स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

उषा किरण खान

पद्मश्री -उषाकिरण खान

ये कहानी हम को उस दौर में ले जाती है जब आजादी मिले हुए 16, 17 वर्ष ही बीते थे | पर लड़कियाँ अपनी शिक्षा के लिए, आर्थिक स्वतंत्रता के लिए, और अधिकारों के लिए सचेत होने लगीं थी | समाज शास्त्र एक नए विषय के रूप में आया था जिसमें अपना भविष्य देखा था वीथिका और उसकी सहेली निधि ने | पिता जमीन जायदाद, भाई का ना होना या भाई को खो देना, दुख दोनों के जीवन की कथा रही पर चट्टान की तरह एक दूसरे के साथ वो खड़ी रहीं | यूँ तो दुख के बादल सभी के जीवन में आए किन्तु निधि और यूथिका को तो अंततः किनारा मिल गया पर वीथिका के जीवन में दुख ठहर गया |
जैसा की शम्पा एक जगह कहती है ..
‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है | हम कितने भी स्वतंत्र क्यों ना हों हमारी जड़े काट दे जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिए जाते हैं, हमारे फूल निष्फल हो जाते हैं |”
कहानी में एक तरफ जहाँ जंगल है, हवा है, प्रकृति है, अरब देश में तेल का अकूत भंडार पता चलने के बाद वहाँ बसी नई बस्तियां हैं तो वहीं समाज शास्त्र विषय होने के कारण जनजातियों के विषय में जानकारी है, सेमीनार हैं, आलेख तैयार करने के तरीके, हॉस्टल है स्त्री- स्त्री के रिश्तों की तरफ बढ़ी स्त्री की भी झलक है |
मुख्य कहानी है प्रो. शिवरंजन प्रसाद उनकी पत्नी रम्या इंदु और वीथिका की | रम्या इंदु एक प्रसिद्ध गायिका है , पर वो सुंदर नहीं हैं | प्रोफेसर साहब सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं | पर उनका प्रेम विवाह है | शुरू में बेमेल से लगती इस जोड़ी के सारे तीर और तरकश प्रोफेसर के हाथ में हैं | उनकी शोध छात्रा के रूप में निबंधित वीथिका उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण से अपने को मुक्त रखती पर एक समय ऐसा आता है जब ..
“यह मन ही मन विचार कर रही थी कि उनका स्पर्श उसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है |ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके कामी हैं ?
उपन्यास की सबसे खास बात है रम्या इंदु की सोच और उनका व्यवहार | अपने पति का स्वभाव जानते हुए वो दोष वीथिका को नहीं देती | “मेरा पति छीन लिया” का ड्रमैटिक वाक्य नहीं बोलती वरण उसका साथ देते हुए कहती हैं …
वीथिका मैं तुम्हें इतना बेवकूफ नहीं समझती थी | तुम इन पुरुषों के मुललमें में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था | वरना मैं तुम्हें समझा देती | मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब जानती हूँ |”
वीथिका, एक अनब्याही माँ, की पीड़ा से पाठक गहरे जुड़ता जाता है जो वायु की तरह अपने बेटे के आस -पास तो रहती है पर मौसी बन कर | समाज का तान बाना उसकी स्वीकारोक्ति में रुकावट है पर जीवन भर प्यासी रहने का चयन उसका है | उसके पास कई मौके आते है अपने जीवन को फिर से नए सिरे से सजाने सँवारने के पर उसके जीवन का केंद्र बिन्दु उसका पुत्र है .. जिसके होते हुए भी वो अकेली है |
“जिंदगी बार -बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओ लौटा लाती है |”
इस कहानी के समानांतर निधि और श्यामल की कथा है | जाति -पाती के बंधनों को तोड़ एक ब्राह्मण कन्या और हरिजन युवक का विवाह और सुखद दाम्पत्य है | बदलते समाज की आहट की है, जी सुखद लगती है |
अंत में मैं यही कहूँगी की आदरणीय उषा किरण खान दी की लेखनी अपने प्रवाह किस्सागोई और विषय में गहनता के कारण पाठकों को बांध लेती है | कहानी के साथ बहते हुए ये छोटा और कसा हुआ उपन्यास स्त्री के स्त्री के लिए खड़े होने को प्रेरित करता है |
वातभक्षा -उपन्यास
लेखिका – पद्मश्री उषा किरण खान
प्रकाशक – रूदरादित्य प्रकाशन
पेज -94
मूल्य – 195
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