बचपन ………… एक ऐसा शब्द जिसे बोलते ही मिश्री की सी मिठास मुँह में घुल जाती है ,याद आने लगती है वो कागज़ की नाव ,वो बारिश का पानी,वो मिटटी से सने कपडे ,और वो नानी की कहानियाँ। बचपन……. यानी उम्र का सबसे खूबसूरत दौर ………माता –पिता का भरपूर प्यार ,न कमाने की चिंता न खाने की ,दिन भर खेलकूद …विष –अमृत ,पो शम्पा , छुआ –छुआई ,छुपन –छुपाई।या यूँ कह सकते हैं…… बचपन है सूरज की वो पहली किरण जो धूप बनेगी ,या वो कली जिसे पत्तियों ने ढककर रखा है प्रतीक्षारत है फूल बन कर खिलने की ,या समय की मुट्ठी में बंद एक नन्हा सा दीप जिसे जगमग करना है कल। कवि कल्पनाओं से इतर…… बच्चे जो भले ही बड़ों का छोटा प्रतिरूप लगते हों पर उन पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है क्योकि वो ही बीज है सामाजिक परिवर्तन के, कर्णधार है देश के भविष्य के।
क्यों बदल रहे हैं आज के बच्चे ?
वैसे परिवर्तन समाज का नियम है…जो कल था आज नहीं है जोआज है कल नहीं होगा और हमारे बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। परिवर्तन सकारात्मक भी होते हैं नकारात्मक भी। इधर हाल के वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के असर ,भौतिकतावादी दृष्टिकोण ,तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवेश के चलते बच्चों के सोच -विचार ,भाषा ,मनोविज्ञान आदि में वांछित -अवांछित अनेकों बदलाव हुए हैं। जहाँ बच्चों के सामान्य ज्ञान में वृद्धि हुई है वही मासूमियत में कमी हुई है। अगर मैं आज के बच्चों की तुलना आज से बीस -पच्चीस साल पहले के बच्चों से करती हूँ तो पाती हूँ की आज के बच्चों में तनाव , निराशा अवसाद के लक्षण ज्यादा हैं ,जो एक चिंता का विषय है। दूसरी तरफ मोटापा ,डायबिटीस ,उच्च रक्तचाप जैसी तथाकथित बड़ों की बीमारियाँ बचपन में अपने पाँव पसार रहीं हैं। साथ ही साथ बच्चों में हिंसात्मक प्रवत्ति बढ़ रही है।
यह निर्विवाद सत्य है की बचपन में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। जहाँ शिक्षित माता -पिता ,एक -दो बच्चों पर सीमित रह कर अपने बच्चों को पहले से ज्यादा सुविधायें ,उच्च शिक्षा आदि देने में समर्थ हुए हैं वहीँ बहुत कुछ पाने की होड़ में कुछ छूट रहा है ,कुछ ऐसा जिसे संरक्षित किया जाना आवश्यक है। क्योकि बच्चे ही कल का भविष्य है ,हमारी सोच ,सभ्यता व् संस्कृति के वाहक हैं ,इसलिए यह एक गंभीर विवेचना का विषय है। तो आइये इसके एक -एक पहलू पर विचार करे………………. सच ही कहा गया है “बच्चों को समझना कोई बच्चों का खेल नहीं है “
ठहरिये मम्मी ! रोबोट नहीं हैं बच्चे……….
पार्क में ,गली मुहल्लों में अडोस -पड़ोस में अक्सर आप को छोटे बच्चों की माताएं बात करती हुई मिल जाएँगी………… ‘”मेरा बेटा तो ६ महीनें में बैठने लगा था ,आपकी बिटिया तो शायद सात महीने की हो गयी ,अभी बैठती नहीं “……. आप डॉक्टर को दिखा लो क्या पता कुछ समस्या हो। बस हो गयी मम्मी तनावग्रस्त ………… दादी ,नानी के समझाने से समझने वाली नहीं, …………. हर बच्चे का विकास का एक अपना ही क्रम होता है ,कोई बैठना पहले सीखता है कोई चलना। शुरू हो जाते है डॉक्टरों के यहाँ के चक्कर पर चक्कर। धीरे -धीरे वो अपना यह तनाव दूध के साथ बच्चों को पिला देती हैं…………… शायद यहीं से शुरू होता बच्चों के रक्त में बहने वाले तनाव और उससे उन की मनोदशाओं पर असर।
अकेला हूँ मैं……….
कहाँ है दादी -नानी? …………
बचपन की बात हो और दादी के बनाये असली घी के लड्डू या नानी की कहानियों की बात ना हो तो बचपन कुछ अधूरा सा लगता है। पर दुखद है आज के बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं हैं। दो जून रोटी की तलाश में अपना गाँव -घर छोड़ कर देश के विभिन्न कोनों में बसे लोगों के बच्चे दादी और नानी के स्नेहिल प्यार से वंचित ही रह जाते हैं …………… और उस पर यह कमर तोड़ महंगाई जिस की वजह से घर का खर्च चलाने के लिए माँ -पिता दोनों को काम पर जाना होता है. ………और मासूम बच्चे सौप दिए जाते हैं किसी आया के हांथों या आँगन वाडी में। यह सच है की पैसे के दम पर सुविधायें खरीदी जा सकती हैं पर अफ़सोस माँ का प्यार , परिवार के संस्कार , घर का अपनापन यह दुकान पर बिकता नहीं है। क्या कहीं न कहीं इसी वजह से बच्चे अधिक चिडचिडे ,बदमिजाज व् क्रोधी हो रहे है ?इसका एक दुखद पहलू यह भी है की आंगनवाडी में पले यह बच्चे वृधावस्था में अपने माता -पिता का महंगे से महंगा ईलाज तो करा देते है……………. पर उनका अकेलापन बांटने के लिए समय………समय हरगिज़ नहीं देते। क्यों दोष दे हम उन्हें भी ?सीखा ही नहीं है उन्होंने समय देना। सीखा ही नहीं है उन्होंने कि घर बंधता है ,परस्पर विचारों के आदान -प्रदान से ,प्रेम से और समय देने से।
मोबाईल कंप्यूटर………. “सौ सुनार की एक लुहार की…”……
बचपन को बदलने सबसे बड़ा हाथ अगर किसी का है तो वह है मोबाईल और कंप्यूटर। अक्सर बच्चों के हाथों में मोबाईल देख कर मुझे एक दोहा याद आ जाता है। ………… “देखन में छोटे लगे ,घाव करें गंभीर “. इसका सकारात्मक ,और नकारात्मक दोनों प्रकार का असर होता है…………… सकारात्मक असर यह है की ,बच्चों को घर बैठे दुनिया भर का ज्ञान मिल जाता है। किसी भी विषय पर शोध परक जानकारी सेकंडों में उपलब्ध है , कागज़ का खर्चा बचता है कितने पेड़ों का जीवन बच जाता है। कुछ शोध यहाँ तक कहते हैं की तेज गति से चलने वाले विडियो गेम्स खेलने से बच्चों का मानसिक विकास तेजी से होता है,या इन्हें खेलने से एकाग्रता बढती है। आजकल जबकि माता -पिता घर के बाहर खेलने गए बच्चों की सुरक्षा को ले कर चिंतित रहते हैं कहीं ना कहीं मोबाईल खेलने देने से वो आश्वस्त रहते हैं की ” चलो कम से कम बच्चा घर में ,आँखों के सामने तो है। पर यह आदत कब आँख से काज़ल चुरा लेती है पता ही नहीं चलता , बच्चे अपनी दुनिया में खो से गए हैं.|
घर में रह कर घर से अलग उनकी एक नयी दुनिया बस गयी है। माँ रसोई में मदद के लिए बुला रही है कौन सुने ?यहाँ स्पाइडर मैन के मरने की चिंता है। पिता पार्क में टहलाने के लिए साथ ले जाना चाहते हैं बच्चे को शूटर गेम “डेल्टा फ़ोर्स की चिंता है। मारधाड़ के इन वीडिओ गेम्स का बच्चों के ऊपर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। चाहते ना चाहते हुए बच्चे क्रोधी हो जाते हैं… अभी कुछ दिन पहले नार्वे में एक व्यक्ति ने कुछ बच्चों को एक द्धीप पर ले जाकर उनकी ह्त्या कर दी। जब उसे कोर्ट में पेश किया गया तो उसने कहा “मैं तो विडिओ गेम कॉल ऑफ़ ड्यूटी (मॉडर्न वारफेयर ) का अभ्यास कर रहा था। कौन सोच सकता है की विडिओ गेम इस कदर घातक भी हो सकता है।
दिन भर घर में बैठे बैठे खेलते रहने से बच्चे मोटापे का शिकार हो जाते हैं। साथ -साथ खेलने से बच्चे आपसी सहयोग ,मिलकर चलने एक दूसरे से सामंजस्य बनाने की जो भावना सीखते हैं उनका इन बच्चों में आभाव रहता है। सबसे ज्यादा सावधानी रखने की आवश्यकता है किशोर वय के बच्चों के लिए ………… मुझे याद आता है दादी कहा करती थी “दूध और पूत पर निगाह रखनी चाहिए ना जाने कब उफान आ जाये “……………आज एक क्लिक पर दुनिया भर की पोर्न साइट उपलब्ध हैं. जहाँ से यह किशोर होते बच्चे गलत सही जानकारी हासिल करते हैं। बच्चों में बढ़ती हुई वासनात्मक प्रवत्तियों में इनकी अहम भूमिका है।
खाने का समान या रोगों की दुकान………….
सामाजिक ताना -बाना………(बस मैं तुम्हे देखू )…
शिक्षा व्यवस्था……….
. इस विषय पर कुछ लिखने से पहले मुझे “तारे जमीं पर “फिल्म की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी………सबको सौ प्रतिशत चाहिए ,गाली है छियानबे प्रतिशत………बच्चे ना हुए ईलास्टिक हो गयी हर कोई लगा है खींचने में………खीचना है पूरी दम लगा कर चाहे टूट ही क्यों ना जाये। बच्चों पर अच्छा “परफॉर्म “करने का मानसिक दवाब है…….. सुबह से दोपहर तक स्कूल ,फिर ट्यूसन को जाना फिर थक हार कर घर आ कर होम वर्क निपटाना ,कहाँ है खेलने का समय ,वो मौज मस्ती भरा बचपन। उसपर माता पिता की अपेक्षाएं “भला तुम्हारे पचास में उन्नंचास व् बगल वाले बिट्टू के पचास कैसे ?आज से खेल -कूद बंद।
जब सी सी ई का नियम आया था तो सोचा यह गया था की जो बच्चे गणित ,विज्ञान ,आदि विषयों में कमजोर हैं पर खेलकूद ,नृत्य ,वाद -विवाद आदि में अच्छे हैं , उनकी प्रतिभा को बढाया जाये पर माता -पिता ने उसे भी रेस में शामिल कर लिया अब बच्चों को हर फ्रंट पर खुद को सिद्ध करना है। ………. गणित विज्ञान में भी अच्छे नंबर चाहिए ,खेलकूद में, वाद -विवाद में “,स्टेज परफोर्मेंस ” में कही भी माता –पिता अपना सर झुकाने देने को तैयार नहीं। ………। मासूम बच्चे सब पाने की कोशिश में तनाव से घिर जाते हैं ………यही अवसाद निराशा ,कुंठा बच्चों में विद्रोह ,दब्बूपन या आत्महत्या की प्रवत्ति को जन्म देती है।
अंत में मैं फिर अपनी बात को दोहराना चाहती हूँ माना की समय के साथ परिवर्तन अवश्यसंभावी है पर क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं है की हम इस परिवर्तन को सकारात्मक दिशा दे। …………. यह विचार करना आवश्यक है ,आखिरकार यह मेरे बच्चे हैं ,आपके बच्चे हैं ,देश के बच्चे हैं। ……… उन्हें बड़ा और सबसे बेहतर बनाने की होड़ में उनका बचपन ना छीने ,उनकी मासूमियत ज़िंदा रहने दे।
माँ जान गया हूँ मैं
चाँद है एक निर्जीव उपग्रह
दागों से भरा
नहीं है प्राण -वायू
नहीं चल सकते उस पर सीधे
पर सोचता हूँ
कभी -कभी
जैसे तुम कहा करती थी बचपन में
काश !!!
मैं भी तारों के नीचे लेटकर
एक बार प्यार से
कह पाता
उसको “मामा “
कह पाता उसको मामा ………………..
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