पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी

सागर से मिलने को आतुर नदी हरहराती हुई आगे बढ़ती जाती है, बीच में पड़ने वाले खेत खलिहान को समान भाव  से अपने स्नेह से सिंचित करते हुए | पर इस नदी में कभी बाढ़ आती है तो कभी सूखा भी पड़ता है | परंतु  वो ऐसी नदी नहीं थी, वो अपने दो पक्के किनारों के बीच अविरल बह रही थी .. भले हि कगार के वृक्ष मूक देख रहे हों | आस-पास से गुजरते पथिक प्रश्न उठा रहे हों, यहाँ  तक की उसके अंदर पली बढ़ी मछलियाँ भी उसके इस तरह बहने से आहत हों ? फिर भी वो बहती रही अपने ही वेग में अपने ही अंदाज में इस तरह की सारे प्रश्न स्वतः ही गिर गए | अस्वीकृति  को मौन स्वीकृति मिल गई और अस्वीकार को स्वीकार | आइए पढ़ते हैं   सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका आदरणीय पद्मश्री उषा किरण खान जी की बेहद सशक्त कहानी “वो एक नदी” | एक स्त्री की नदी से तुलना हमने कई बार सुनी है पर वो कुछ अलग ही थी ..

वो एक नदी

पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी

 

जब कभी तुम्हारे बारे में कुछ सोचने बैठती हूँ तो दृष्टि अनायाम आकाश की ओर उठ जाती है। सफेद खरगोश की तरह दौड़ता चाँद दिखने लगता है, उसके पीछे  बादलों का झुंड पड़ा  दिखता है। लुकता-छिपता यह चाँद मुझे सचमुच नहीं दिखता, यह तो मैं अपने  मन के आकाश में देखती हूँ। ऐसा भी नहीं है कि आकाश मे  उन दृश्यों को देखकर मुझे तुम याद आती हो। नहीं, मैंने  कहा न, मैं  तुम्हारी याद आने पर ही उन वस्तुओं की कल्पना करने लगती हूँ जो कभी घटी थी।

तुम्हें  क्या मालूम कि तुम्हारी  आज की इतनी-इतनी, सौन्दर्यबोध वाली माँ उन दिनों क्या कहती थी, कैसी लगती थी। श्यामा कुँअरि से श्यामा शर्मा होते जाने  की कहानी का तुम्हें कहाँ पता है? तीन भाईयों वाले जमींदार साहब के घर कई-कई पुश्तों के बाद जनमी पहली लड़की थी श्यामा। भक् गोरा रंग, बड़ी-बड़ी चमकती आँखें और सौन्दर्य के तमाम उपमानों की हेठी करती-सी उसके देहयष्टि देखकर कोई भी सोच सकता था कि इसका नाम श्यामा क्यों है। मुझे याद है, तुमने भी कई बार पूछा था। रेशमी  घघरी छोड़कर अभी साड़ी बाँधने ही लगी थी श्यामा कि उसकी शादी उच्च कुलीन बलदेव  से कर दी गयी थी। वही बलदेव, जो तुम्हारा पिता है और उसे  तुम बेहद-बेहद प्यार करती हो। आठ वर्षो की श्यामा थी, अठारह वर्षो का बलदेव था। कहीं संस्कृत विद्यालय में  पढ़ रहा था। श्यामा की ओर बलदेव भौंचक देखता रहता। श्यामा की शैतानियाँ बदस्तूर  कायम रहीं। वैसे ही आम की बगीची में जाकर। कोयल के सुर-में-सुर मिलाना, वैसे ही घर से दाल चावल-घी चुराकर ले जाना, कुम्हार के घर से हाँड़ी उठा लाना और कमलबाग में  आम की सूखी  टहनियों से ईटे  जोड़कर खिचड़ी पकाना। हर टोले की छोकरियाँ श्यामा की दोस्त हुआ करतीं। साथ-साथ खिचड़ी खाना और करिया झूमर खेल खेलना ढली साँझ तक चलता रहता आषाढ़ बीतने के बाद ताल-तलैया भर जाते , कमलबाग सूने  पड़ते । तब बंसी-बनास लेकर कीचड़े-कादों फलाँगती फिरती मिली हुइ छोटी मछलियों को खेत में ही पकाकर नमक मिर्च  के साथ चट कर जाती। अक्सर बूढ़ी  दादी के डाँट खाती किन्तु  उसकी भी परवाह नहीं करती। बड़ी-बुढ़ियां  अक्सर सिर पर हाथ ठोंककर कहतीं ‘‘अरी, यह तो बड़ी  बहरबटटू है,दिन भर वन-वन छिछियाती रहती है। घराने की नाक कटाएगी।’’

‘‘क्या बताऊँ , यह तो बड़े घराने की कन्यादानी बेटी है। कौन क्या कहेगा? लेकिन हम जैसे छोटे घर की लड़कियो  को तो बिगाड़ कर रख देगी’’-दूसरी बूढ़ी  कहती और सोच में डूब जाती।

पहले  बड़े  घराने  के लोग करते थे। बेटी के नाम धन-सम्पत्ति का भाग तो रहता ही था, मायके में रहकर खानदान भर पर रौब गाँठने का स्वार्जित अवसर भी स्वतःहाथ आ जाता था। तो तुम्हारी माँ श्यामा ऐसी ही कन्यादानी बेटी थी। तुम्हारा पिता बलदेव वैसा ही उच्चकुलीन दामाद था जो कई   और शादियाँ कर सकता था। तुम्हारे  पिता को पढने-लिखने  का कुछ अधिक ही शौक था। सो उन्होंनें  संस्कृत विद्यालय पास कर मेंडिकल स्कूल में दाखिला ले लिया था। कुऐं  की जगत पर ‘‘पाहुन, आप श्यामा कुँअरि को क्यों नहीं कुछ कहते?’’- एक दिन स्नान के बाद धोती पकड़ते खवासन ने कहा था। ‘‘ऊँ, क्या कहूँ?’’ चिहुँक उठे थे बलदेव। ‘‘यही, रन-वन छिछियाती रहती है।’’ ‘‘हें-हें-हें’’

-स्निग्ध हँसी हँस पड़े थे थे बलदेव।

‘‘घर में लोग तो है ही।’’

‘‘फिर भी, आप स्वामी है।’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है।’’

‘‘हाँ सरकार। कहीं आपके कहने से सुधर जाए।’’

‘‘कोइ बात नहीं, अभी बच्ची है, बड़ी होगी तो समझ जाएगी।’’ बातों के तार को छिन्न कर दिया उन्होंने । लेकिन उसी रात को जब छोटी काकी ने  नहला-धुलाकर चाटी-पाटी करके किशोरी की थी। मेडिकल में नाम लिखाने के बाद बलदेव  पहली बार ससुराल आये थे। छह माह में  ही श्यामा बड़ी लगने लगी थी। आते ही चहककर पास आ बैठी। आप इस बार बहुत दिनों के बाद आये । डॉक्टरी की पढ़ाई  शुरू हो गयी? बार रे। आप भी छुरी से घाव चीर डालिएगा, नौआ की तरह? प्रश्न-पर-प्रश्न दागती चली गयी श्यामा तब तक जब तक बलदेव ने उसे अपनी ओर खींच नहीं लिया। बोल-े

‘‘छोड़ो यह सब, पहले  यह बताओं कि अबकी कलमबाग में नीलम परी उतरी थी क्या?’’

‘‘न, तो, किसने कहा? कैसे पता चला? तुम  नीलम परी को जानते तो क्या? झूठे।’’ आँखें मटका कर कहा था  श्यामा ने ।

“तुम्हीं  तो बताती थी, नीलम परी आती है, जादू  का डण्डा लाती है। जिस साल डण्डा फेरतीहै उस साल आम में बौर लगते है, नहीं, तो नहीं।’’-श्यामा ने सुनकर ठहाका लगाया था।

‘‘जानते हो, अब मैं  जान गयी हूँ, कोई परी-वरी नहीं आती है, वह तो धरती माता है, आकाश पिता है, जो आम के गाछों मे  बौर लगाते  हैं। ‘‘बस’’ -समझदारी से कहा।

‘‘लेकिन मेरा तो विश्वास बढ़ गया है नीलम परी के प्रति कि वह जरूर आती है बगीची में,जरूर  जादू की छड़ी फेरती है। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने  से सटाते  हुए कहा बलदेव ने। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने से सटाते हुए कहा बलदवे ने। सीने में सटाकर बलदवे ने जैसे ही दोनों पैर सीधे किये कि श्यामा चिहुँककर छिटक गयी।

‘‘ओहो हाय। तुमने तो घाव दबा दिया’’

“देखूँ कहाँ लगा है घाव’’। तलुवे  में मोटा काँटा गड़ा हुआ था। सूजन से तलुवा पीला लग रहा था।’’

‘‘ओह,रूई ले आता हूँ।’’- अपने  पास के रूई और ब्लेड निकालकर चीरा लगाया, पीप के  साथ ही मोटा काँटा निकल आया। दवा लगाकर पट्टी बाँध दी और बाँहों पर लेकर सो गया बलदेव पहर -भर रात बाकी थी तभी नींद खुल जाती थी बलदेव की।‘‘सुनो, सुबह होने  वाली हे’’ हौले  से  उठाया श्यामा को । अँगड़ाई लेकर उठी श्यामा। पट्टी  की ओ देखा। इसे खोल दूँ ?

‘‘नहीं, अभी रहने  दो। और -हो सके तो आँगन में  ही रहना’’

‘‘हाय राम, लोग क्या कहेंगे-दूल्हे से पैर छुआकर पट्टी  करवाई है। मुझे  शरम आती है।’’

‘‘पगली दवा लगी है, मत खोलना। बाहर कहीं मज जाना।“

बिना कुछ बोले उठ गयी श्यामा  और धीमे से बाहर निकल गयी। दिन भर आँगन में ही रही। कोठरी में मेरे साथ लेटी-लेटी  रात की घटना सुनाती रही थी। माँ चाचियों ने  सतोष की साँस ली कि अब श्यामा सुधर रही है।’’ छोटे -छोटे  भाइयों को और बलदेव जी को होस्टल में रहकर पढना पड़ता था। खर्चा बेहिसाब और खना-पीना ढंग  का नहीं। जमींदारों की बात। बच्चों को पढ़ाने  के लिए एक मकान ही शहर में खरीद लिया गया।

श्यामा शहर ही आ गयी थी। एक अंग्रेज मेम पढ़ाने  के लिए रख ली गयी थी। श्यामा बदल गयी थी।

अब बेमतलब जंगल-जंगल फिरना, पानी-पानी तैरना  बन्द हो गया था। गाँव आती तब भी किताब हाथ में लिये बैठी रहती। हालाँकि बड़ी-बूढियाँ अब भी श्यामा को पीठ पीछे  कोसतीं कि लड़कियों वाले कोई लक्षण ही नहीं हैं इसके। न रसोई के किसी काम में मन लगता है, न फूल-कसीदाकारी में। कभी अरिपन (अल्पना), पुरहर (घड़े की रंगाई) भी नहीं करती। बंगालियों की तरह बैठकर उपन्यास-कहानी पढती रहती है।

‘‘ऊँह, उसी का फल है न कि बाल छितराये रहती है। खोपा-चोटी तो करती ही नहीं।’’…

श्यामा ने ही मुझमें भी साहित्य पढने की रूचि जागृत की। तुम कहोगी कि मेरे और श्यामा के गाँव के बीच बड़ा फासला है। नदी बहती है, फिर, कैसे मैं अक्सर मिला करती थी उससे, इतने फासले के बावजूद।  कैसे हम अंतरंग सहेलियाँ थी? तो सुनो-गाँवों में वैसे आज की हवा भी उतनी ही मुक्त है जितनी तब थी। फिर भी, वातावरण कुछ और ही था। नदी किनारे ही तुम्हारे नानाजी की बगीची थी, नदी किनारे ही एक विद्यालय था। मेरे पिता उन दिनों ‘परदा-तोड़ आन्दोलन’ के प्रचारक थे, तुम्हारे नानाजी उनके समर्थक। तुम्हारी माँ और मैं दोनों गाँव के एक ही स्कूल के बाद नदी किनारे की रेत में दौड़ना। पानी मे छप-छप करना और बालू का घरौंदा बनाना हमारा प्रतिदिन का काम था। मैं कहाँ-से कहाँ बहक जाती हूँ। यह सब तो मैंने कितनी बार तुमसे कहा हैं।तब से कह रही हूँ जब से तुम कॅलेज में मेरे निकट रहकर पढ़ने आई। मैंने बहुत -सी बातों को तब यह कहकर टाल दिया था कि अभी तुम नहीं समझोगी: बड़ी हो जाने पर आपसे आप समझ में आ जाएँगी सारी बातें। यद्यपि ये सारी परिस्थितियाँ, जो तुम्हारी माँ श्यामा के इर्द -गिर्द  निर्मित होती रही, समझ पाना इस संसार के लोगों के लिए आसान नहीं है। भारतीय नारी के पारम्पारिक, शास्त्रीय सामाजिक रूप के तो निश्चय ही विरूद्ध है। किन्तु यह क्यों नहीं सोचती कि श्यामा के इस रूप को पीठ पीछे क्यों न दुत्कारे,समाज ने प्रत्यक्षतः अंगीकार कर लिया है। स्थूल कथा में न तो तुम्हारी रूचि होनी चाहिए, न जिज्ञासा।

तुमने सब कुछ जान-समझकर ही तो अपने पति के पास से पहली बार आने पर मुझसे कहा था-‘‘मेरे पिता मोम के पाँव पर खड़े है अंजू मौसी। कौन -सी बाध्यता थी कि वे इस तरह का जीवन जिएँ?’’

 

यह तो मैं नहीं समझ पाती कि तुम्हारे पिता की कौन-सी बाध्यता थी कि वे तुम्हारी माँ को देवी की तरह पूजते रहे, किन्तु मेरा मन सन्दहे ग्रस्त है। मैं नहीं मानती कि तुम्हारे पिता, इतने बड़े डॅक्टर, उच्चकुलीन व्यक्ति, मोम के पाँव पर खड़े है। तुम्हारे तर्क ही मुझे यह मानने को मजबूर नहीं कर रहे-‘‘कि उन्हें क्या बाध्यता थी?’’ शहर में बड़े ही उत्तरदायित्वपूर्ण तरीके से श्यामा रहती थी। भाई-बहन और पति की देखभाल करती हुई स्कूल की परीक्षा भी पास कर ली। तब तक तुम्हारे पिता बलदेव बाबू डॅक्टरी की एल.एमपी. डिग्री लेकर  नौकरी में लग चुके थे। अभी शहर के ही अस्पताल में लगे थे। उन्होंने श्यामा से आगे पढ़ने का आग्रह किया था, किन्तु श्यामा ने स्वयं ही टाल दिया। कहा था, ‘‘पुस्तकें पढ़ने योग्य मैंनेंपढ़ लिया है। कक्षा में जाकर विभिन्न विषय ही पढ़ूँगी न? इससे साहित्य पढ़ने में बाधा ही आएगी।’’

मैं कॅलेज के होस्टल में रहकर पढ़ने आ गयी थीं। उन दिनों कॅलेज के छात्रावास में मात्र पन्द्रह लड़कियाँ रहती थीः बाकी विदेशी में से और नन। मेरे  विवाह की बातचीत चल रही थी। माँ का जोर था कि तुरन्त विवाह हो जाए, किन्तु पिता नहीं चाहते थे। छात्रावास से अक्सर मैं तुम्हारे यहाँ आ जाया करती। तब तुम्हारी माँ के द्वारा पढ़े गये साहित्य पर चर्चा- मात्र होती। भारतीय साहित्य में तुम्हारी माँ को बंकिमचन्द्र की कृतियाँ विशेष अच्छी लगती जबकि मुझे शरदचन्द्र की। पात्रों पर बहस करते वक्त हम परस्पर एक-दूसरे पर आक्षेप करने से भी नहीं चूकते।

उन्हीं दिनों देश आजाद हुआ था। मेरे पिता खोई हुई पंक्ति में जा मिले थे। तुम्हारे नाना जी अगली पंक्ति के नेता बन गये थे।। हमारे परिवार की भीतरी बनावट मे इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता था। मैं वैसे ही तुम्हारी माँ के घर जाया करती, हमारी बहसे बदस्तूर जारी रहीं।  रविवार के दिन मैं श्यामा से मिलने पहुँची तो उस कक्ष में एक अत्यन्त सुदर्शन व्यक्ति कुर्सी पर सावधान- सा बैठा कोठ पत्रिका पलट रहा था। बिना उसे देखे कमरे में घुसकर मैं  पलंग  पर बैठ गयी। बाहर धूप बड़ी तेज थी, सिर चकराने लगा था। खाली घर देखकर मैं थोड़ी देर पलंग पर लेटने जा ही रही थी कि कोने  की कुर्सी पर मेरी दृष्टिचली गयी। घबराहट का भाव मेरे चेहरे पर अवश्य आया होगा क्योंकि वह व्यक्ति जोर से ठहाका लगाकर हँस पड़ा।

‘‘आप अंजू है क्या? अंजू दास? बैठिये, मिसेज पाठक आती ही होगी, घबराइए नहीं।’’ उसने अपनी जादूई आवाज में कहा। यह कौन होता है मुझसे इस तरह बातें करने वाला, श्यामा के कमरे में, मुझे’ नहीं घबराने की सलाह’ देने वाला-मैंने खीझ में सोचा। संकोच और क्रोध के मिले-जुले भाव का उस सुदर्शन पुरूष ने अवश्य परखा होगा।

‘‘मैं अकिंचन हूँ, अकिंचन दत्त। डॉ. बलदेव पाठक मेरे मित्र है।’’- उसने, बच्चों को जैसे समझाते है वैसे ही, मुझसे कहा। सच, मैंने उतना सुंदर और आकर्षक पुरूष अब तक नहीं देखा। मेरा हृदय  काँपने लगा, रक्त प्रवाह बढ़ गया, गला प्यास से सूखने -सा लगा, मैं अवश-सी होने लगी। अपने आपको किसी तरह सँभालकर पलँग से उतरने की चेष्टा कर ही रही थी कि श्यामा आ गयी।

‘‘अंजू तो आ गयी, यह इनके …..’’

 

‘‘मैंने अपना परिचय बता दिया हे’’- अकिंचन दत्त ने कहा। मैं बार जाने लगी तो श्यामा ने टोका-

‘‘कहाँ जा रही है?’’

‘‘पानी पीने ’-उसके सामने मेरे बोल पहली बार फूटे। ‘‘

‘‘ मँगवा देती हूँ।’’ श्यामा ने नौकर को आवाज देकर पानी मँगवा दिया। पानी बार-बार गले में अटक जा रहा था। अकिंचन दत्त के पाश्र्व में बैठी  श्यामा को देखकर अनायास मन आशंकित हो गया था उस समय क्यों?- यह मैं अब जान पायी। शरीरिक सौष्टव, ईश्वर- प्रदत्त रूप और गर्वेन्नत व्यक्ति, दोनों का एक -सा था, जैसे स्वयं विधाता ने नर -मादा की जोड़ी बनाई हो। अपनी बाँहों की ओर मैंने एक नजर देखा, गहरा साँवला रंग, सूखी त्वचा, अपने यौवन के प्रति अनजान उपेक्षित व्यक्तित्व किन्तु हृदय ? हृदय  को किसी सुंदर वस्तु के प्रति प्रेम होने से रोका नहीं जा सकता।

‘‘दत्त साहब, मेरी यह बाल-सखी बड़ी मेधावी है। इसने पूरे राज्य में प्रवेशिका परीक्षा में प्रथम स्थान पाया है। छात्रवृत्ति मिलती है।’’

‘‘देखकर ही तेज झलकता है।’’ अकिंचन दत्त ने कहा और मैं अपनी हँसी को दबाकर मुस्करा-भर सकी थी।’’

‘‘यह नहीं मानेगी दत्ता साहब। इसका कहना है कि यूँ ही प्रथम आ गयी है।’’ श्यामा ने कहा।

‘‘नहीं अंजू जी, आपको देखकर कोई भी कह सकता है कि यह लड़की सेकेण्डरी बोर्ड में फस्र्ट आई होगी।’’

‘‘कैसे?’’- बडे़ प्रयास से मैंने अपना मुँह खोला।

‘‘अ-आपमें कुछ ऐसा है-बस है।‘‘हाथों को कोई शक्ल देने  का प्रयास कर रहे थे अकिंचन। उसी समय डॅक्टर साहब आ गये थे और मैं सहज हो गयी थी।

‘‘ क्या सब हो रहा है?’’ कहते हुए तुम्हारे पिता डॉ. बलदेव  पाठक श्यामा के पाश्र्व मैं बैठ गये।

‘‘ ईश्वर । कहीं ऐसा न हो।” – मेरे छोटे-से अकिंचन मन ने यह सोच लिया। सच, तुम्हारे पिता का रूप-रंग और व्यक्तित्व श्यामा के इतने विपरीत  है मैंने अब तक परखा ही न था। श्यामा बीच से उठकर खाना लगाने चली गयी मैंने भी उठना चाह रही थी कि उसके रोक दिया। पाठक जी ने भी कहा-

‘‘अरे रे, अंजू, अब तुम कहाँ जाती हो? तुम्हारी मित्र और उनकी फौज क्या खाना लगाने के लिए काफी नहीं है?’’ मैं पलंग पर चिपकी -सी बैठी रही।

‘‘दता साहब बड़े प्रशासनिक अधिकारी है, हाँ।’’-उन्होंने आँखें बड़ी कर कहा। मैंने एक बार उनकी ओर देखा। अभी दत्ता चुपचाप निर्विकार भाव से बैठे  हैं। वह भाव उन्हें ओर अधिक ऊँचाई दे गया।

 

 तरु बेटी, वह दिन था और आज का दिन है, श्यामा का एकान्त साथ मुझे नहीं मिला। श्यामा ने मन का चाँद भागते हुए खरगोश की तरह मेरी पकड़ से छूटता रहा। मेरी जिज्ञासा का बादल उसका पीछा करता रहा।

‘‘दत्ता साहब , यह अंजू, डॉक्टर  बनना चाहती है।’’श्यामा ने एक दिन अपने नये सलाकार से कहा था। मैं चुप बैठी थी|

’’ठीक ही तो चाहती है, लेडी डॉक्टर  की बड़ी जरूरत है।

“समाज सेवी बाप की बेटी है मिस दास। मैं इनके इस निर्णय को अप्रिशियेट करता हूँ। श्रीमान् अकिंचन  दत्त ने अपना विचार स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया था।’’

‘‘ऊँह, मैं कहती हूँ, अंजू में साहित्य की समझादारी कमाल की है। इसे साहित्स की प्रोफेसर होना चाहिए।’’

‘‘आप भी कमाल की बात करती है श्यामा जी। साहित्स की प्रोफेसर होने से क्या समाजसेवी हो सकेगी?’’

-मैंने लक्ष्य विचार, अकिंचन दत्त मिसेज पाठक से ‘श्यामा जी’ पर उतर आये थे। ‘‘क्यों नहीं कर सकती? उसके अनेक तरीके है।’’

‘‘डॉक्टर  बनकर सेवा करने से बड़ा, सेवा का और कोई तरीका नहीं हो सकता।’’

‘‘आप मेरी मानिए, साहित्य में जो इसकी पैठ है वह बिरलों में ही मिलती है।’’

‘‘साहित्य करने के लिए क्या आप काफी नहीं है? अकिंचन दत्त ने मुस्करा कर कहा।’’

‘‘हटिये। आप तो मजाक करते है। मैं चैका-चूल्हा  करूँगी, घर की साज-सज्जा सँभालूँगी कि साहित्य करूँगी,’’-श्यामा तुनककर बोली।

‘‘यही तो है। इसी सब में आपका सौन्दर्य-बोध देखकर मैं तो दंग रहता हूँ।’’…

सच कह रहे थे दत्ता साहब, श्यामा का  चौका  हो गया ड्राइंगरूम, आँगन वाला पिछला बरामदा हो या सहन का लॉन , सब कुछ सुघड़, स्वच्छ और सुन्दर। पुस्तकों की अलमारी, और क्रॉकरी -स्टैण्ड, सब कुछ चमचमाता, सुव्यवस्थित। सम्पूर्ण कमरे की सज्जा वह अंग्रेजी पुस्तकें पढ़कर वर्ष मे कम से कम चार बार अवश्य बदल देती। अर्थ के साथ सुरूचि का वैसा समन्वय बहुत कम देखने को मिलता है।

मेरे मेडिकल में नाम लिखाने पर श्यामा बड़ी दुखी हुई थी? तब मेडिकल कॉलेज  बाजप्ता खुल गये थे। एक तरफ मेरी माँ-दादी दुखी हुई कि मैंने मेडिकल पास कर विवाह करने की घोषणा की है, दूसरी ओर, श्यामा दुखी र्हुइ  कि मैंने साहित्य से मुँह मोड़कर मेडिकल की पढ़ाई को तरजीह दी। हमारे गुरूजनों ने मुझे बड़ा संबल दिया। डॉ. पाठक और अकिंचन दत्त का साथ सदा मिलता रहा। धीरे-धीरे तुम्हारी माँ भी संयत हो गयी। मैं भी साहित्य पढ़ती और उससे बहस करती। श्यामा अपने परिचितों से अक्सर यह चर्चा करती-मेरी बाल्य-सखी डाॅ. अंजू दास इतनी सफल और नामी-गिरामी डाॅक्टर होकर भी मशाीन नहीं बनी है। श्यामा सबका श्रेय मेरे साहित्य के अनवरत साहचर्य को देती।

‘‘मैं अब नहीं आऊँगी’’-मैंने एक दिन रूकते हुए श्यामा से कहा था।

‘‘क्यों , क्यों नहीं आओगी?’’

 

‘‘इसलिए कि तुम्हारे पास मुझसे बातें करने को समय ही नहीं रहता।’’

‘‘ऐसा मत सोचो। किसी रविवार की मै तुम्हारे  बिना कल्पना भी नहीं कर सकती। तुम नहीं जानती हो अंजू, छुटि्टयों में जब तुम गाँव चली जाती हो तब मुझे बड़ा सूना-सूना लगता है।’’ -शब्दों के भाव तुम्हारी माँ श्यामा का सुन्दर चेहरा बखूबी ग्रहण करता। मैं अपलक देखती ही रह जाती। तुम्हारी माँ का व्यक्तित्व वाकई रानियों-जैसा है। अपनी मर्जी की मालिक तो स्वयं है। मैं कभी-कभी अनायास सोचने लग जाती हूँ कि ऐसा क्यों होता है। कि विधाता किसी-किसी को अधिकार ही दे डालता है। वह व्यक्ति कैसे अपने भाग्य का सिरजनहार स्वयं होता है-आज तक ऐसी दूसरी औरत कम से-कम मेरी नजरों से नहीं गुजरी जिसने कभी-कभी अपना दर्दें दिल न खोला हो। इस दृष्टि से श्यामा अकेली है। अनेक है। अनके दृष्टियों से श्यामा औरत है जिसमें औरतों की सामान्य कमजोरी नहीं है।

मेडिकल कॉलेज  की सभी परीक्षाएँ मैं सफलतापूर्वक पास कर गयी थी। पिता बड़े प्रसन्न थे, माँ उदास। उनके हृदय की यह इच्छा जो पूरी होती नहीं दिखाई दे रही थी  कि दामाद की आरती अपने हाथों   उतारे।चुचचाप बैठकर आँसू पोंछती रहती। तुम तब दो वर्षो की थी। अकिंचन दत्त जिस जिले के जिलाधिकारी बनकर गये थे वहीं तुम्हारी पिता भी मेडिकल ऑफिसर बनकर गये थे तुम्हारे सबसे सबसे छोटे मामा और मौसी स्कूल में ही थे। नानाजी अपनी राजनीतिक लिप्स में डूबे रहते। श्यामा घर-बाहर का काम सँभालती, खानों में बँटती जा रही थी।

‘‘अभी छुटि्टयाँ है, फिर भी ये बच्चे गाँव नहीं जाना चाहते है अंजू। मैं तरु के पिताजी के पास जाना चाहती हूँ, कैसे जाऊँ?’’ -एक दिन श्यामा ने कहा था।

‘‘सच, बेचारे को परेशानी होती होगी। न खाने-पीने का ठीक, न रहने-सहने का। बेचारे तुम पर कितने आश्रित थे। कैसे अस्पताल के बाद आकर अपने कपड़े सवयं निकालते होंगे। तुम चली  क्यों नहीं जातीं?- मैंने सुझाया था।’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है। उनकी देखभाल करने को लोगों की कमी नहीं है। मि. दत्त के क्वार्टर में, उन्हीं के साथ रहते हैं। कोई दिक्कत नहीं होती मैं तो अपने संबंध में कह रही थी।’’

‘‘ठीक कहती हो।’‘… छुटि्टयों में लगातार श्यामा पाठकजी के पास दत्त साहब के क्वार्टर में जाकर रहने लगी।

मैंने कभी श्यामा के विषय में कुछ सोचना गवारा नहीं किया। किन्तु तुम्हारे पिता, डाॅ. बलदेव पाठक की कलीग-महिला-डाॅक्टरों ने कई बार कोंच-कोंचकर मुझे ही कठघरे में खड़ा कर दिया। क्यों डाॅ. पाठक की तो बड़ी ऊँची उड़ान है। जिलाधिकारी के बंगले में रहते हैं, जिलाधिकारी की गाड़ी में घूमते हैं, फाइलें  भी वहीं देखते हैं क्या?’’ – मैं ऐठकर रह जाती। क्या कह सकती थी। पहली बार तो यह कहकर पीछा छुड़ा लिया करती कि- ‘‘संयोगवश एक ही स्थान पर पदस्थापित हैं और कुसंयोगवश दोनों को अकेले रहना पड़ता है। साथ ही रहते हैं तो क्या हुआ?’’ मैं कभी-कभी अधिक खीझकर यह भी उत्तर दे देती कि-

‘‘शुक्र है, वे दोनों पुरुष हैं, उनमें पुरानी पहचान है, आप तो आश्चर्य कर लेतीं  हैं उनके साथ रहने पर मैं नहीं करती।’’ – किन्तु धीरे-धीरे मि. अकिंचन दत्त का स्थानान्तरण-पदस्थापन भी जुड़ने लगा तक मेरा मन भी स्वयं आशंकित रहने लगा। मैंने पूछा था श्यामा से-

‘‘सब कुछ ठीक तो है श्यामा?’’

‘‘क्या सब?’’

‘‘डाॅक्टर साहब और अकिंचन दत्त की मैत्री व स्वास्थ्य के संबंध में पूछ रही हूँ।’’

‘‘क्यों, क्या हुआ उन्हें?’’ – श्यामा ने पूछा था। उसका पूछना इतना सहज था कि मैं स्वयं संकुचित हो आई थी। अनियगित झंझावात। श्यामा के निकट पहुँचने के बाद पहले मन-प्रान्तर को आन्दोलित अवश्य करता, जिसमें खड़ी एक असहायक अकेली वृक्ष मैं भी थी। मैंने अनेकानेक अपवाद श्यामा को लेकर यूँ ही झेल लिये। अब जीवन का तीसरा पड़ाव है। बाकि इतिहास किसी को आन्दोति नहीं करता, तो तुम्हारे प्रश्नों के घेरे में खड़ी हो गयी हूँ स्वेच्छा से। अपनी माँ श्यामा के विषय में सोच-सोच कर तुम अपने आपको व्यर्थ ही दुखी कर रही हो तरु। उसकी कोई आवश्यकता नहीं। यदि दूसरा कोई तुम्हें कुछ कहता है तो उसे टाल जाओ। जो घटनाचक्र तुमसे होकर न गुजरता हो, जिसके घट-अघट पर तुम्हारा वश नहीं है, उसे सोचने की जहमत ही क्यों उठाती हो? हाँ कहीं तुम्हारा अपना मन तो कमजोर नहीं है? तुम्हारे कमजोर मन के लिए ही मैं आज सोचने बैठी हूँ। अपनी समझ में मैं तुमसे, जिसे मैंने अपने बच्चे की तरह पाला  है, स्थिति स्पष्ट कर देना चाहती हूँ। यह सब कुछ तुम्हें तुम्हारे जन्म-दिवस के अवर पर बताकर थोड़ी हलकी कर देना  चाहती हूँ। अब तुम भी दो बच्चों की माँ, छब्बीस वर्ष की पूर्ण युवती हो। दीन-दुनिया की बहुत सारी बातें जानती होगी, जिन्हें मैं भी नहीं जानती। वैसे तो, परिवार नहीं बसाकर भी मैं एक पारिवारिक किस्म की महिला रही हूँ। मात्र इसीलिए, अपनी माता की फरियाद करती अतृप्त आँखें मुझे डिगा न पायीं। मरते दम तक माँ मुझसे आग्रह करती रही कि जिस किसी जाति-वर्ग का लड़कामुझे भाता हो, मैं उससे विवाह कर लू। एक समय बीतने के बाद तो पिता भी कहने लग गये थे कि जीवन अकेले काटना दुष्कर हो जाएगा। परिवार की सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। किन्तु मैं बिना किसी तर्क के अपनी चुप्पी से उन्हीं उपरान्त करती रही।

डाॅ. बलदेव पाठक बड़े प्रतिष्ठित हो गये थे। देश-विदेश की र्कइ -कई डिग्रियाँ भी बटोर लाए थे। इसी शहर मं अकिंचन दत्त के ‘लम्बे-चैड़े सरकारी आवास में श्यामा और बच्चों को छोड़कर विदेश चला जाना उनके लिए आम बता थी। तुम्हारे नाना जी के मकान का उपयोग अब उनके युवा बेटे और पुत्रवधू करने लगे थे। साज-सज्जा की सार-सँभाल और रहने के तौर-तरीके बताने श्यामा अक्सर वहाँ जाती। उस घर के बाकी लोग प्रजा। अकिंचन दत्त की उम्र बढ़ती ही जा रही थी। श्यामा के साथ, उसके बच्चों के साथ रहते  वे अधिकाधिक पारिवारिक होते जो रहे थे। मैं जब भी उनके यहाँ जाती, वे बड़े ही प्रसन्न नजर आते है। कहा करते-

‘‘आओ-आओ डाॅक्टर, अब तो तुम प्रोफेसर हो गयी होगी मेडिकल कॉलेज  में?’’- अन्दर से संकुचित होते हुए भी, उनकी सहजता के कारण, मुझे सहज हो जाना पड़ता। ‘‘नहीं सर, अभी कहाँ? अभी तो कई मंजिलें तय करनी हैं।’’ – मैं उन्हें आदर देती  कहती।

‘‘चलो ठीक है, तुम्हें देखकर कोई नहीं कहता है कि तुम इतनी बड़ी डाॅक्टर हो। वैसी ही दिखती हो जैसी 12 वर्ष पहले। इधर श्यामा जी को देखो, कैसी भारी-भरकम हो रही हैं।’’…मुस्कराकर कहते अकिंचन दत्त। फिर पुकारते…

‘‘श्यामा जी, सुनिए मैं क्या कह रहा हूँ अंजू से।’’ और अपनी बात फिर दुहरा देते ।

‘‘ये तो मेरी जान के पीछे पड़े हैं कि मैं भारी होती जा रही हूँ।’’ …श्यामा उपालम्भ से कहती।

‘‘अच्छा-अच्छा। मैं क्या गलत कहता हूँ? तुम्हारे साहित्य में क्या ऐसाी ही भारी नायिकाएँ होती हैं?’’ -मेरी ओर मुखातिब होकर वे श्यामा से ही पूछते।

‘‘तो मैं क्या साहित्य की नायिका हूँ?’’ -श्यामा रूठ-सी जाती।

‘’लो, अरे, मैं तो एक बात कह रहा था। नायिकाएँ क्या कहीं आकाश से आती हैं? इसी धरती की न होती हैं। तुम्हारी-जैसी, श्यामा जी जैसी।’’ सम्बोधन मुझसे ही हो रहा था, बात श्यामा से होती थी। इस तरह के कितने ही आत्मीय क्षणों  की गवाह मैं होती थी, क्या हूँ। बहुत दिनों तक तो मैंने यह एहसास भी पाला था कि अकिंचन दत्त मुझसे बहुत अधिक निकट हैं, मुझे तुम कहकर पुकारते  हैं, श्यामा जी कहकर। मैं काफी दिनों तक यह प्रतीक्षा करती रही कि अकिंचन दत्त की ओर से कोई प्रस्ताव आएगा। न आना था, न आया। मैंने अपने सपनों को अपने मन के अन्दर ही रहने दिया। आज तुम्हें बता रही हूँ। किसी से न कहा, श्यामा से भी नहीं। कैसे कहती? अकिंचन से भी नहीं। मैं विश्वास करती हूँ वह सचमुच अकिंचन है, अपने नाम की तरह।

डाॅ. बलदेव  पाठक विदेश से लौटकर आये तो दक्षिण भारत घूमने का कार्यक्रम बन गया अकिंचन दत्त का। श्यामा को साथ ले जाएँगे, ऐसी ही योजना बनी थी।

‘‘अंजू, घर में आकर रह जाओ बच्चों के पास मैं दक्षिण भारत घूमने जा रही हूँ।’’ एक दिन आकर श्यामा ने बताया।

‘‘अभी-अभी डाॅक्टर साहब विदेश से आये हैं, और तुम-? … ‘‘मैंने आश्चर्य से कहा।’’ तो क्या हुआ? अभी-अभी अकिंचन दत्त साहब को छुट्टी मिली है दक्षिण भारत जाने की। डाॅक्टर साहब अपनी क्लिनिक जमाने के लिए थोड़ा समय चाहते हैं। तुम आकर बच्चों को भी देख लोगी और उनको भी सलाह दे दोगी। ‘‘मैं कोई उत्तर नहीं दे सकी। अकिंचन दत्त के सरकारी आवास पर आकर रहना मैंने गवारा नहीं किया, लेकिन अपना बाकी समय वहाँ देने लगी थी। रात को अपने कमरे में लौटती हुई

मैं तुम्हें उठाकर ले आती। तभी से तुम मेरे साथ रहने लगी। कई बहाने थे। तुम्हारा काॅलेज मेरे क्वार्टर के नजदीक पड़ता था, तुम्हारा भाई सोम तुम्हें तंग करता था, तुम मेरे पास बड़ी सहजता से रह लेती हो, और सबसे बड़ा बहाना था कि मैं अकेली हो गयी थी। मेरे क्वार्टर के नजदीक ही डाॅ. पाठक ने अपना क्लिनिक खोला था। मै। अक्सर उनके साथ क्लिनिक सजाने में मदद करती देखी जाती।’’

 

अंजू, एक घण्टा समय तुम क्लिनिक पर भी क्यों नहीं दे देती? -पाठक जी ने कहा था।

‘‘मैं क्या समय दूँगी। मेरा तो सारा काम लेबर-रूम का और आॅपरेशन-थियेटर का है। आप ठहरे मेडिसिन वाले। अलग से व्यवस्था करनी पड़ेगी’’ -मैंने कहा था।

‘‘भई, कर लो व्यवस्था, तुम्हारे बहाने कुछ मरीज मुझे भी…।’’ हँसते हुए कहा था उन्होंने।

‘‘क्या बात कहते हैं डाॅक्टर साहब! आप इतने यशस्वी डाॅक्टर, आपकी ये डिग्रियाँ। मरीज की क्यू यहाँ से जो शुरू होगी सो आपकी कोठी तक नहीं समाप्त होगी।’’

-‘‘वाह भई, वाह! खूब मजाक किया। कर लो, कर लो, तुम तो यहाँ की जमी हुई गाइना-काॅलोजिस्ट हो ना।’’

“मेरी बात करते हैं डाॅक्टर साहब! मेरी-जैसी तो इस शहर की गलियों में फिरती हैं। मात्र एम.एस. डाॅक्टर की क्या बिसात?”

‘‘हाँ, याद आया। तुम क्यों नहीं विदेश चली जाती हो? डिग्री ले ही आओ। वहाँ जाकर बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा। और सुनो, तब यह भी कहने योग्य नहीं रह जाओगी कि- अब मेरी शादी करने की उम्र नहीं रही।’’ कान के पास मुँह ले जाकर धीमें से कहा डाॅ. पाठक ने। मैं मुस्करा उठी। डाॅ. पाठक ने हँसते हुए कहा- ‘‘एक बहुत बुरी बात है कि चहेरा मास्टरनियों की तरह गम्भीर बनाए रहती हो। खुल कर हँसो-बोलो। खुश रहो।’’

‘‘मैं आपको खुश नहीं दिखती डाॅक्टर साहब? मैं तो बहुत खुश हूँ। शादी की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। अब भी नहीं है, ऐसा मानती हूँ। विदेश जाकर डिग्री ले आऊँ उसकी भी आवश्यकता अभी नहीं जान पड़ती। क्लिनिक भी खूब चलता है, न चाहते हुए भी पैसे आते रहते हैं। इस भारत देश की आबादी को देखिये और स्त्री रोग-विशेषज्ञ डाॅक्टर की स्थिति का अवलोकन कीजिए। आप स्वयं समझते हैं।’’ मुझे सचमुच हँसी आ गयी थी।

कभी मैंने डाॅ. पाठक से आत्मीय बातें करने की चेष्टा  नहीं कि, न कभी डाॅ. पाठक ने ही की।

यदि कोई ऐसा क्षण हमारे बीच टपक ही पड़ता तो जेठ की वर्षा की पहली बूँद की तरह व्यावहारिकता की गर्म धरती पर भाप बनकर उड़ जाता। मेरे विचार, वही एक कारण था कि हमारा सम्बंध चिरस्थायी रहा। हम एक-दसूरे के आत्मीय बने रहे । डाॅक्टर साहब का कई अनकहा दुख मैंने भोगा है। मेरी आकांक्षाओं की कमी शायद डाॅक्टर साहब ने भी देखी हो। उनमें भी कुछ कहने-पूछने की आदत जो नहीं रही। तुम शिक्षित विवाहिता युवती हो। पुरुषों के साथ रहकर काम करती हो। तुम्हारा अपना एक  नजरिया है। तुम स्वयं अब सब कुछ किनारे हटकर सोच सकती हो। मैं तुम्हें सब कुछ बता देना चाहती हूँ। कई बार तुमने मुझे घेरा है-

‘‘मौसी, माँ ऐसी विचित्र जीवन-पद्धति क्यों अपनाए हुए हैं? उन्हें नहीं है चिन्ता, न लोक-अपवाद का भय। मैं कई बार उनके इस तौर-तरीके की सजा भुगत चुकी हूँ। कई लोग ऊगली उठाकर कहते हैं-’’ देखो वही है तरुलता ठाकुर, श्यामा पाठक की बेटी। जरा गौर तो करो, चेहरा किससे मिलता है- अकिंचन दत्त से या बलदेव से?” जी चाहता है, पलटकर कोई कड़ुवी बात कहूँ, लेकिन क्या कहूँ, सारी बातें पलटकर चाबुक-सी मुझे दाग देंगी।

 

मद्रास से आकर श्यामा बड़ी तरोताजा थी। देर रात तक लाॅन में बैठकर हम सब उसा अनुभव सुनते। बीच-बीच में वह डाॅक्टर साहब से तुनक कर विदेश का अनुभव सुनाने का आग्रह करती और डाॅक्टर उत्सासपूर्वक सुनाने लगते।

‘‘अंजू, डाॅक्टर साहब का क्लिनिक सज तो गया?’’ …अकिंचन दत्त ने पूछा था।

‘‘मुझसे पूछिए सर। अंजू कमाल की प्राणी है। डाॅक्टरी क्लिनिक सजाने में मेरी मदद जिस खूबी से कर सकती है उसी खूबी से श्यामा की गृह-सज्जा में।’’

‘‘मैं कोई मदद  नहीं देती। आपको एक साधारण-सी छोटी बुद्धि की लेडी डाॅक्टर क्या सुझाव दे सकती है? वह तो जैसा आपने कहा मैंने कर दिया।’’

‘‘तब तो मुझे भी आपसे सलाह लेनी पड़ेगी।’’ अकिंचन दत्त ने कहा था।

‘‘लीजिए सर, देर न कीजिए। मैं इन्हें तो नहीं, आपको कुछ सलाह तो दे ही सकती हूँ।’’-मैंने जाने किस भावना के वशीभूत होकर तपाक से कहा दिया था एकबारगी सभी चुप हो गये थे, चौकने का बाह्य प्रदर्शन नहीं किया था।

‘‘देर हो रही है, अंजू को अपने फ्लैट में लौटना होगा। खुद ही ड्राइव करती है और रास्ता   लम्बा है। चलिए, खाना लग गया है।’’ -तुम्हारी माँ ने ही सन्नाटे का धागा खींचकर तोड़ दिया था। खाने की मेज पर सब खूब बोल-बलिया कर खा रहे थे। एक मैं ही थी जिसे खाना ही धीमे-धीमें खा रहा था। लौटते वक्त मैं सोचती आ रही थी कि क्या दूसरों की चिन्ता की सिल अपने कलेजे पर झेती आ रही हूँ। आते ही देखा, तुम जग बैठी हो।

‘‘क्यों, पढ़ाई जोर-शोर से चल रही है क्या?’’ – तुम्हारी परीक्षा निकट देखकर कहा था मैंने।

‘‘नहीं अंजू मौसी, पढा़ई ही तो नहीं चल रही है। मेरा जी उचट गया है पढ़ाई से। आपसे कुछ कहना चाह रही थी।’’

‘‘क्या कहना चाह रही थी? यही न कि तुम अब किसी से प्यार करने लगी हो! तुम किसी से विवाह करनाा चाहती हो? कपड़े उतारते हुए मैंने कहा था।’’

‘‘आपने जान लिया? चलिए, अच्छा ही हुआ।’’

‘‘फिक्र की कोई बात नहीं। अबकी तुम एम.ए. कर लोगी। विवाह हो ही जाना चाहिए।’’

‘‘लेकिन…।’’

‘‘लेकिन क्या? जिस लड़के से तुम ब्याह करना चाहती हो सजातीय ही है, कोई दिक्कत नहीं होगी। एम.ए. कर लो, शादी जा जाएगी।’’

‘‘आपको तो सब मालूम ही है, मोसी। आप मेरी मित्रवत हैं। माँ से दूरी लगती है, आपसे नहीं।

मेरी समस्या वह नहीं है। मेरी तो दूसरी समस्या है। विजय के माता-पिता मुझसे शादी के लिए तैयार होंगे तब न। उसका कहना है कि…।’’

 

‘‘अरे, वे क्यों न तैयार होंगे? इतने बड़े कुल-शील की सुन्दर सुघड़ कन्या। अपने बेटे की पसन्द को वे किस बिना पर ठुकराएँगे।’’ उस समय मैं ख्याल ही नहीं कर पा रही थी कि तुम्हारा इशारा किधर हो सकता है।

‘‘मौसी, आप जाने कैसे वह सब गले से उतार लेती हैं। पिताजी को क्या हो गया है, समझ में नहीं आता। सोनू से कुछ कहने की स्थिति में मैं अपने को नहीं पाती। किन्तु यह सच है कि सम्पूर्ण समाज में माँ को लेकर बहुत कुछ कहा जाता है। सच भी तो लगता है। मैं तो बड़ी शर्मिन्दगी महसूस करती हूँ’’ … मैं तुम्हारा मुँह देखती रह गयी।

‘‘अंजू मौसी, विजय के परिवार  के लोग क्या मुझे स्वीकारेंगे? नहीं। कभी नहीं।….

लेकिन तरु,विजय ने अपने परिवार वालों को मना ही लिया। तुम्हारी शादी खूब धूमधाम से श्रीमान् अचिंकन दत्त के सरकारी आवास में र्हुइ । बारात के लोग अकिंचन दत्त आई.ए.एस. की अगवानी के कायल थे। तुम्हारी ससुराल के लोग पीली धोती में डाॅ. बलदेव पाठक और पीली साड़ी में श्रीमती पाठक को देखकर तुष्ट थे। विजय के पैर धरती पर नहीं पड़ते। तुम कितनी प्रसन्न थी। आगे-आगे विजय लन्दन गया डाॅक्टरी की उच्च शिक्षा लेने, पीछे-पीघे तुम गयी। तुम्हारी भरी-पूरी गहृस्थी देख मैं सब कुछ भूल गयी। अपने दर्द , श्यामा का दुहरा सुख, समाज में वाष्प की तरह उठती अफवाहें, सब कुछ।’’

सोनू भी डाॅकटर बनकर दूर जा बसा है। डाॅ. बलदेव पाठक सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। अकिंचन दत्त का सेवाकाल भी समाप्त हो गया है। बड़ी ऊँचाई पर पहुँचे दत्त साहब प्रशासनिक अधिकारी के रूप में…। उनकी मिसाल पेश की जाती है। दूर, पहाड़ियों की गोद में, एक सुन्दर-सा बंगला खरीदा है उन्होंने। जीवन भर का साथ था, तो अब क्यों साथ न रहते। वह स्थान यहाँ से दूर है। डाॅ. पाठक को अपनी जमी-जमाई पै्रक्टिस छोड़कर जाना पड़ा। फिर भी, उन्होंने आगा-पीछा न सोचा, चले गये छोड़कर सब कुछ। श्यामा की इच्छा जो थी।

‘‘देख अंजू, इनका नाम तो पूरे देश में हो गया है। जहाँ कहीं जाएँगे, पै्रक्टिस जम ही जाएगी।फिर, स्थान-परिवर्तन भी कोई मानी रखता है?’’

मैं तो ऊब गयी इस जगह से। श्यामा के निर्णय सुनाते हुए कहा था।

मेरी ठण्डी नजर देखकर श्यामा में जरा-सा ठहराव आया।

‘‘एक तू अकेली रह जाएगी, यही गम है।’’ ‘‘मेरी चिन्ता मत कर श्यामा, मैं कितनी व्यस्त  रहती हूँ, देखती  नहीं?’’ मैंने सपाट लहजे में कह दिया था।

‘‘हाँ, तू व्यस्त तो रहती है। बीच-बीच में छुट्टियाँ लकेर वहाँ आ जाना, बड़ा अच्छा होगा। जितनी सुन्दर पहाड़ी है उतना ही खूबसूरत मकान। किसी अंग्रेज ने अपनी प्रेयसी के लिए बड़े यत्न से पत्थर कटावा-कटवाकर बनवाया था वह मकान। कितने तो सजावट वाले वृक्ष हैं, भारतीय-अभारतीय लता-गुल्मों की पूरी नर्सरी ही दिखती हे। मैं वहाँ रहने और अंग्रेज की अपनी प्रेयसी की प्रसन्नता के लिए बनवाई गयी उस स्नेह कुटीर की भावना की अनुभूतियों को हृदय में भर लेने को  उतावली हो रही हूँ।’’ कितनी सुखी, सन्तुष्ट और निश्छल है श्यामा। मैंने उसके पचास वर्षीय भावाविष्ट चेहरे को देखते हुए सोचा। भावनाओं की कोमल उर्मियाँ उस उम्रदार चहेरे पर ज्वार ले आती है, यह अपनेआप में बहुत बड़ी बात है। यही सब देखकर मेंरा सन्देहग्रस्त मन संयत होता रहता  है। लोगों की ओछी बातें मेरी या तुम्हारी दुविधाग्रस्त चिन्ताएँ उस ऊँचाई के सामने लघर पड़ जाती हैं। मैं कभी-कभी स्वार्थी होकर सोच लूँ तो मेरा मन अपने आपको प्रताड़ित करने लगता है।

‘‘तरु को समझाओ अंजू, वह तुम्हारे हाथों ही ठीक रहती है।’’ …एक बार डाॅ. पाठक ने आकर कहा था मुझसे।

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ मैंने आशंकित होकर पूछा था।

अनायास श्यामा ने अंजू और उसके पति को बच्चों सहित नये मकान में बुलवा लिया था। बड़े उत्साह से घर का इतिहास-भूगोल दिखा रही थी वह कि तरु ने टोक दिया बीच में- ‘‘यह सब दिखाने-सुनाने क्यों बुलाती हो हमें माँ? तुम्हारा तौर-तरीका मुझे सखत नापसन्द है।’’ – कहकर तेजी से घर के अन्दर चली गयी। श्यामा की तो कुछ बोलने की आदत नहीं है, तुम जानती हो। किन्तु आहत हुई होगी। ऐसा लगा मुझे। वह हुई तो मैं भी हुआ आहत। विदा करते समय मैंने अंजू को समझाना चाहा तो सबने मुझे हो चुप करा दिया- ‘‘पिताजी आप अपना जीवन-दर्शन अपने पास रखिए, मुझे मत सुनाइए। आश्चर्य  होता है तरु, ऐसी क्यों हो गयी अंजू।’’

… मैंने तब एक साँस-सी खींची थी। मैंने डाॅ. पाठक से कभी कुछ नहीं कहा, अब भी नहीं कह सकती कुछ। जैसे तुम्हारी माँ का यौवन तन-मन से अब तक ठहरा हुआ है, उसी तरह तुम्हारा कैशोर्य  ठहर गया है। मैं देखती रही हूँ श्यामा की यौनवनमायी छवि डाॅ. बदलेव पाठक और अंकिचन दत्त को बाँधे हुए हैं। कोई तो कमी नहीं है उनको, अपने जीवन से पूरी तरह तुष्ट हैं वे। तब तुम क्यों व्यर्थ अपने को सोच-सोचकर पेरशानी करती हो? ‘‘कुछ बोल नहीं रही हो अंजू। तरु अपने जीवन को बेकार ही विषाक्त कर रही है। तुम ही उसे समझाओ।…’’ उन्होंने फिर कहा।

‘‘डाॅक्टर साहब, तरु बच्ची है, बचपना तो है ही कम-से-कम, उसकी बातों पर मत जाइए। श्यामा आहत हुई है तो अच्छा ही है। कभी तो एक ऊँचाई से नीचे उतरे वह। मानती हूँ, औरत एक नदी है, हहराती, बलखाती, अनवरत यात्रा करती, आस-पास की धरती को स्नेह बाँटती, बढ़ती चली जाती है। उसमे भी बाढ़ आती है, सूखा पड़ता है, इस पर श्यामा के मन की नदी को तो कुछ भी नहीं व्यापता। ईश्वर करे, कुछ न व्यापे। जिस दिन श्यामा प्रौढ़  होगी, मेरे ख्याल से, तरु समझदार हो जाएगी।’’ – मैंने तुम्हारे पिता से कहा था।

 

‘‘तुमने अपने उत्तर से ही अपनी सखी के सतत प्रवहमान रूप को परिभाषित कर दिया अंजू! मैं तुम्हारी इसी उदारता का कायल हूँ। तुम्हारी समझदारी के अनवरत साहचर्य में रहकर भी तरु कैसे अब तक अज्ञान है यह समझ नहीं पाता।’’ – डाॅ. पाठक सचमुच चिन्तित थे।

‘नहीं डाॅक्टर साहब, नदी और उसके दोनों पक्के किनारे के साहचर्य की ऐकान्तिक अनुभूति मेरी व्यक्तिगत सम्पदा है। स्त्रीधन की तरह इसे मैंने अपने अन्तस्तल में छुपाकर रखा है। तरु को कुछ ताने-समझाने की लचर कोशिश मैंने नहीं की। कहीं किसी को कुछ न कहकर, कोई सफाई न देकर, मैंने श्यामा के व्यक्तित्व की रक्षा ही की है, तरु स्वयं समझ जाएगी। वह एक स्वस्थ सामान्य औरत है। औरतों वाली सारी कमजोरियाँ में हैं। औरतों वाला हृदय भी पा लेगी, सागर की तरह।’’ तरु, तुम्हारे पिता के सामने मैंने जो कुछ कहा वह सब अविकल तुम्हें सुना रही हू ँ। तुम स्वयं को सँभाल सको, यह कामना है।

अब मेरा सेवाकाल समाप्त हो रहा है। डाॅ. पाठक आये थे। उन्होंने आग्रह किया था कि मैं भी वहीं उसी कोठी में जाकर रहूँ। ‘‘अंजू, बड़ा-सा सूना-सूना घर है। मात्र तीन प्राणी हैं। तुम भी चली चलती तो गुलजार हो जाता। काफी दिनों से इच्छा भी रही है कि तुम मेरे साथ मेरे क्लिनिक में बैठो, वह भी पूरी हो जाएगी। श्यामा ने बार-बार तुमसे विनती करने को कहा है। चलोगी न?’’

‘‘नहीं पाठक जी, अभी नहीं, कुछ दिन तो मै अपनी सहायिकाओं पर क्लिनिक छोड़ देश-भ्रमण करना  चाहती हूँ, दिन सोचूँगी। आज तक कभी इस शहर ने छोड़ा ही नहीं, देखूँ अब मैं इसे छोड़ पाती हूँ या नहीं।’’ -प्रकटतः कहा मैंने मन-ही-मन सोचा, मैं उस सदानीरा के तट की वृक्ष हूँ-स्थित खड़ी। नदी जैसे-जैसे पाट बदलती है, वृक्ष भी तो नहीं चलने लगता।

‘‘अच्छा, मैं प्रतीक्षा करूँगा, हम सब प्रतीक्षा कगे।’’ – डाक्टर साहब ने प्रसन्नता से कहा था। आशा से भरकर वे लौटे थे। कल रात याद आया कि तुम्हारा सत्ताईसवाँ जन्म दिवस शीघ्र आने वाला है। श्यामा की ओर से तुम्हारे पास बेशकीमती उपहार जाएँगे ही। अपनी मित्रों और पति को इठला-इठलाकर दिखलाओगी। मैं अबकी तुम्हें, जन्मदिन के अवसर पर, यही वस्तु भेज रही हूँ। मेरी इस भेंट को मूल्यवान उपहार समझकर ग्रहण करो।

वह एक नदी है, उसके प्रवाह को रोकने की चेष्टा व्यर्थ होगी तुम्हारी। अपने आपको उसक साथ जोड़कर मैं सार्थक हूँ, सम्पूर्ण। तुम तो हो ही, अपने भीतर झाँककर देख लो।

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पद्मश्री उषा किरण खान

उषा किरण खान

 

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