डेढ़ सेर चाँदी

डेढ़ सेर चाँदी

  अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l जिसकी पृष्ठभूमि में दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l आशा जी ग्रामीण जीवन और आम मानवीय  मनोभावों की बारीकियों को, सच्चाईयों को इस तरह से सहजता के साथ उकेरती हैं उनकी  कहानी अपने व्यापक संदर्भ में याद रह जाती है l एक अच्छी कहानी और पुरस्कार के लिए आशा जी को बधाई डेढ़ सेर चाँदी किवाड़ उढगा था। नइका कोहनी से किवाड़ ठेल कर अँगनाई में पहुँची। अँगनाई के कोने में बंधी दोनों बकरियां उसे देख कर मिमियाने लगीं। दिन भर से अकेला पड़ा भग्गू भी उठकर खटिया पर बैठ गया। नइका का हाथ घास और बबूल की टहनियों से भरा था। मिसिर के यहाँ से आते-आते उसने रास्ते से बकरियों के लिए टहनियाँ तोड़ी थीं। बकरियाँ पिछले दो-चार दिन से खूँटे पर ही बंधी हैं बेचारी। संझा-सबेरे बाहर ले जाकर चराने का मौका नहीं मिल रहा है नइका को। अभी दो दिन और ऐसे ही चलेगा। घास और टहनियों को बकरियों के आगे डाल कर नइका ने पंजीरी-बताशे की गठरी को पीढ़े पर रखा और बाल्टी रस्सी लेकर कुँए पर हाथ-मुँह धोने चली गई। ठंडे पानी से छीटे मार-मार कर मुँह धोया, हाथ-पैर धोए,भरी बाल्टी आँगन में लाकर रखी और आँचल से मुँह पोछते हुए ओसारे में आकर बैठ गई। अँगनाई में ही छान उठाकर दो ओसारे निकाल लिए हैं नइका ने। दो कच्ची कोठरी और दो छनिहर ओसारे का उसका ये घर भीतर घुसते ही उसे सुकून से भर देता है। कितना भी थककर चूर हो गई हो पर अपनी  अँगनाई में आते ही उसकी आधी थकान खुद-ब-खुद चली जाती है। सुबह जब से गई थी, तब से एक मिनट की भी फुर्सत नहीं मिली थी उसे। इतना बड़ा कार्यक्रम आने-जाने वालों की इतनी भीड़! बैठती भी तो कैसे ? मिसिर काका बहुत भरोसा कर उसे बुलाते हैं,अगर वह भी बैठ जायेगी तो काम कैसे चलेगा? खड़े-खड़े दोना भर पंजीरी-बताशा फाँक कर पानी पी लिया था उसने और लगी रही बासन माँजने में, झाड़ू लगाने में। वहीं पुरबहिन और चमेला जांगर चुरा-चुराकर इधर से उधर भाग रहीं थीं। पाँच-छह दोना पंजीरी फाँक गईं। जो भी उधर से प्रसाद बाँटते हुए  निकलता, उसी के सामने हाथ पसार देतीं। अखंडरामायण पाठ के बैठक से पहले सत्यनारायण की कथा हुई थी। उसी का प्रसाद बंट रहा था। दिन भर लोग आते रहे। प्रसाद कम पड़ जाता तो! किसी की इज्जत की जरा-सी परवाह नहीं है इन लोगन को, अगला भरोसा किये बैठा है और ये लोग उसकी इज्जत लेने पर उतारू हुई हैं। भगवान से भी नहीं डरतीं ये लोग– नइका का मन वितृष्णा से भर गया। साँझ धुंधलाने लगी। संझबाती की बेला में बैठकर सुस्ताने से काम नहीं चलेगा- नइका ने मन ही मन सोचा और घुटने पर हाथ रखकर उठी, चूल्हे के पास काँच की एक ढिबरी पड़ी थी। उसमें तेल आधी शीशी से भी कम था। नइका ने शीशी को उठाकर देखा- आज का काम किसी तरह से चल जायेगा। कल के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी। रामअजोरवा को कितनी बार कहा था कि बचवा, खम्भे से तार खींच कर एक लट्टू मेरे आँगन में भी लटका दो। मिट्टी के तेल का खर्चा तो कुछ बचता पर मुए ने नहीं सुना। नइका मन ही मन बड़बड़ाते हुए ढिबरी जलाकर अँगनाई के गौखे पर रख आई। वहाँ से दोनों ओर ओसारे में उजियारा फ़ैल गया। भग्गू फिर ‘गों-गों’ करने लगा। नइका ‘गों-गों’ के अलग-अलग सुरों को पहचानती है। समझ गई कि उसका पति भूखा है। वह पंजीरी-बताशा,हलुवा-पूड़ी की गठरी उठा लाई। भग्गू की खटिया पर बैठकर  खोलने लगी। उस धुंधलके में भी नइका ने भग्गू की आँखों की चमक को देख लिया, मन-ही मन मुस्कराई- इसी चमक को देखने के लिए ही तो उसने वहाँ कौर-भर भी कुछ नहीं खाया था। सब उठा लाई थी। मिसिर काका ने हलुवा ज्यादा दिलवा दिया था। काकी तो देने में कुछ आना-कानी कर रहीं थीं पर काका ने डपट दिया। ‘दे दो उसे भरपूर,गुंगवा (भग्गू) के लिए ले जाएगी’। नइका धन्य हो गई थी। इसीलिए तो मिसिर काका की एक आवाज पर दौड़ी चली जाती है। गुंगवा को पूड़ी के साथ अचार अच्छा लगता है। नइका ने हिम्मत की– ‘काकी फाँक दो फाँक अचार भी दे देतीं।’ काकी ने मुस्कुराते हुए बिना उसे झिड़के तीन-चार फांक अचार लाकर पूड़ी के ऊपर रख दिया। नइका खाने की गठरी खोल रही थी। भग्गू ने सिरहाने से आधा प्याज और नमक निकाल लिया। नइका सबेरे उसे प्याज रोटी देकर गई थी। उसी में से कुछ बचा लिया था भग्गू ने। नइका मुस्कराई—‘रक्खो उसे,अचार लाई हूँ पूड़ी के साथ।’ भग्गू गों-गों करके हंसने लगा। भग्गू की हंसी नइका के कलेजे में धंस गई। इकलौता भग्गू माँ-बाप का बहुत दुलारा था। दोनों जून उसे थाली में दाल-भात, रोटी- तरकारी, सब चाहिए थी। जब नइका इस घर में ब्याह कर आई थी तब इस घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। डेढ़ बीघा खेत का मालिक था उसका ससुर। माँ,बाप,बेटा तीनों जुट कर खेती करते। बाहर भी मजूरी करते। घर में अनाज भरा रहता। भाजी-तरकारी तो भग्गू घर के अगवारे-पिछवारे की जमीन में ही बो देता। लौकी, तरोई , करेला आँगन की छान पर खूब लदे रहते। सास खुश होकर कहतीं, “मेरे बेटे के हाथ में बहुत बरक्कत है, ऊसर-पापड़ में भी बीज छीट देता है तो धरती सोना उगलने लगती है।” अब यही भग्गू …! नइका ने थाली में पूड़ी,अचार और हलुवा रख कर भग्गू के आगे … Read more

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

पूर्वा- कहानी किरण सिंह

“जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl” उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द से भर जाता है, पर हर बार वो जिंदगी की ओर बढ़ती है l  जीवन सुख- दुख का संयोग है l दुख तोड़ देते हैं पर हर दुख के बाद जिंदगी को चुनना ही हमारा उद्देश्य हो का सार्थक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है ये कहानी l वहीं  ये कहानी उन सैनिकों की पत्नियों के दर्द से भी रूबरू कराती है, जो सीमा पर हमारे लिये युद्ध कर रहे हैं l सरल – सहज भाषा में गाँव का जीवन शादी ब्याह के रोचक किस्से जहाँ पाठक को गुदगुदाते हैं, वहीं भोजपुरी भाषा का प्रयोग कहानी के आस्वाद को बढ़ा देता है l तो आइए मिलते हैं पूर्वा से – पूर्वा- कहानी किरण सिंह प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा । पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें  उसके पति  लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर  लिपटकर आया था। तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं । पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा – “बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।” रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा – “का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं  दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के  अनाथ नहीं कर सकते ।” आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। ” रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।” बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली। अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा – “माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।” आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये। माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया – “पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा। रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में  से एकही को ला सकते हैं। ” रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न। रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। ” रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में  अन्तरा अउर पूर्वे न है। रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम। पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी। तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो  ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी। अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए  विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था। दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी। सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। … Read more

दीपक शर्मा की कहानी एवज़ी

  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढ़ते हुए बिहारी का ये दोहा अनायास ही जुबान पर आ जाता है l सतसइया के दोहरे ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगें घाव करे गंभीर, छोटी सी कहानी ‘एवजी’ भी मरीजों, बुजुर्गों, बच्चों की सेवा टहल के लिए अपनी सेवाएँ देने वालों के ऊपर है l इन लोगों का का किस तरह ऐजेंसी वाले शोषण करते हैं l बड़े घरों के लोग जो इनसे  तमाम सेवाएँ लेते हैं पर खाने-पीने, रहने का स्थान देने में भेदभाव करते हैं l ये कहानी ऐसी ही लड़की शशि के बारे में है जो अपनी माँ की जगह ‘एवजी’ के रूप में काम पर आई है l तो आइए चलते हैं शशि की अंगुली पकड़कर     दीपक शर्मा की कहानी एवज़ी            बंगले के बोर्ड पर चार नाम अंकित थे :  पति, बृजमोहन नारंग का;  पत्नी, श्यामा नारंग का;  बड़े बेटे, विजयमोहन नारंग का;  और छोटे बेटे इन्द्रमोहन नारंग का।    एजेंसी के कर्मचारी ने अपना पत्र बाहर पहरा दे रहे गार्ड को थमा दिया और बोला, ’’अन्दर अपनी मैडम को बता दो मालती की सबस्टीट्यूट (एवज़ी) आई है।’’ मालती मेरी माँ है मगर एजेंसी के मालिक ने कहा था, ’’क्लाइंट को रिश्ता बताने की कोई ज़रूरत नहीं…..।’ इस एजेंसी से माँ पिछले चौदह वर्षों से जुड़ी थीं। जब से मेरे पिता की पहली पत्नी ने माँ की इस शादी को अवैध घोषित करके हमें अपने घर से निकाल दिया था। उस समय मैं चार वर्ष की थी और माँ मुझे लेकर नानी के पास आ गई थीं। नानी विधवा थीं और एक नर्सिंग होम में एक आया का काम करती थीं और इस एजेंसी का पता नानी को उसी नर्सिंग होम से मिला था। एजेंसी अमीर घरों के बच्चों और अक्षम, अस्वस्थ बूढ़ों के लिए निजी टहलिनें सप्लाई करती थी। अपनी कमीशन और शर्तों के साथ। टहलिन को वेतन एजेंसी के माध्यम से मिला करता। उसका पाँचवाँ भाग कमीशन के रूप कटवाकर। साथ ही टहलिन क्लाइंट को छह महीने से पहले नहीं छोड़ सकती थी। यदि छोड़ती तो उसे फिर पूरी अवधि की पूरी तनख्वाह भी छोड़नी होती । माँ की तनख्वाह की चिन्ता ही ने मुझे यहाँ आने पर मजबूर किया था। अपने काम के पाँचवें महीने माँ को टायफ़ायड ने आन घेरा था और डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने मुझे पन्द्रह दिनों के लिए अपनी एवज़ में भेज दिया था ताकि उस बीच वे अपना दवा-दरमन और आराम नियमित रूप से पा सकें। बंगले के अगले भाग में एक बड़ी कम्पनी का एक बोर्ड टंगा था और उसके बरामदे के सभी कमरों के दरवाजों में अच्छी-खासी आवाजाही जारी थी। हमें बंगले के पिछले भाग में बने बरामदे में पहुँचाया गया । मेरा सूटकेस मुझे वहीं टिकाने को कहा गया और जभी मेरा प्रवेश श्यामा नारंग के वातानुकूलित आलीशान कमरे में सम्भव हो सका। उसका पैर पलस्तर में था और अपने बिस्तर पर वह दो तकियों की टेक लिए बैठी थी। सामने रखे अपने टी.वी. सेट का रिमोट हाथ में थामे। ’’यह लड़की तो बहुत छोटी है’’, मुझे देखते ही उसने नाक सिकोड़ ली। ’’नहीं, मैडम’’, एजेंसी का कर्मचारी सतर्क हो लिया, ’’हम लोगों ने इसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है और यह पहले भी कई जगह एवज़ी रह चुकी है। और किसी भी क्लाइंट को इससे कोई शिकायत नहीं रही…..’’ ’’जी मैडम’’, मैंने जोड़ा, ’’मैं छोटी नहीं, मेरी उम्र 20 साल है।’’              माँ ने मुझे चेता रखा था। अपनी आयु मुझे दो वर्ष बढ़ाकर बतानी होगी। साथ में अपने को अनुभवी टहलिनी भी बताना पड़ेगा। ’’अपना काम ठीक से जानती हो?’’ वह कुछ नरम पड़ गई। ’’जी, मैडम। टायलट सँभाल लेती हूँ। स्पंज बाथ दे सकती हूँ। कपड़े और बिस्तर सब चेंज कर सकती हूँ……’’ ’’क्या नाम है?’’ ’’जी कमला’’, अपना असली नाम, शशि मैंने छिपा लिया । ’’कहाँ तक पढ़ी हो?’’ ’’आठवीं तक’’, मैंने दूसरा झूठ बोला हालाँकि यू.पी. बोर्ड की इंटर की परीक्षा मैंने उसी साल दे रखी थी जिसका परिणाम उसी महीने निकलने वाला था। किसी भी दिन। ’’परिवार में कौन-कौन हैं?’’ ’’अपाहिज पिता हैं’’, मैंने तीसरा झूठ बोल दिया, ’’पाँच बहनें हैं और दो भाई…..’’ ’’तुम जा सकते हो’’, सन्तुष्ट होकर श्यामा नारंग ने एजेंसी के कर्मचारी की ओर देखा, ’’फ़िलहाल इसी लड़की को रख लेती हूँ। मगर तुम लोग अपना वादा भूलना नहीं, मालती पन्द्रह दिन तक ज़रूर मेरे पास पहुँच जानी चाहिए…..’’ ’’जी, मैडम….’’ उसके लोप होते ही श्यामा नारंग ने मुझे अपने हाथ धोने को बोला और फिर कमरे का दरवाज़ा बन्द करने को। सिटकिनी चढ़ाते हुए। मुझे उसे तत्काल शौच करवाना था। अपने हाथ धोने के उपरान्त हाथ धोने एवं शौच का कमोड लेने मैं उसके कमरे से संलग्न बाथरूम में गई तो उसमें पैर धरते ही मुझे ध्यान आया मुझे भी अपने को हल्का करना था। मगर उसका वह बाथरूम इतनी चमक और खूशबू लिए था कि मैं उसे प्रयोग में लाने का साहस जुटा नहीं पाई। हूबहू माँ के सिखाए तरीके से मैंने उसे शौच करवाया, स्पंज-स्नान दिया।             बीच-बीच में अपने वमन को रोकती हुई, फूल रही अपनी साँस को सँभालती हुई, अपनी पूरी ताकत लगाकर। थुलथुले, झुर्रीदार उसके शरीर को बिस्तर पर ठहराए-ठहराए। एकदम चुप्पी साधकर। उसकी प्रसाधन-सामग्री तथा पोशाक पहले ही से बिस्तर पर मौजूद रहीं : साबुन, पाउडर, तौलिए, क्रीम, ऊपरी भाग की कुरती-कमीज, एक पैर से उधेड़कर खोला गया पायजामा ताकि उसके पलस्तर के जाँघ वाला भाग ढँका जा सके। ’’मालूम है?’’ पायजामा पहनते समय वह बोल पड़ी, ’’मेरा पूरा पैर पलस्तर में क्यों है?’’ ’’नहीं, मैडम’’, जानबूझकर मैंने अनभिज्ञता जतलाई। ’’मैं बाथरूम में फिसल गई थी और इस टाँग की मांसपेशियों को इस पैर की एड़ी के साथ जोड़ने वाली मेरी नस फट गई थी। डॉक्टर ने लापरवाही दिखाई। उस नस की मेरी एड़ी के साथ सिलाई तो ठीक-ठाक कर दी मगर सिलाई करने के बाद उसमें पलस्तर ठीक से चढ़ाया नहीं। इसीलिए तीसरे महीने मुझे दोबारा पलस्तर चढ़वाना पड़ा….’’ ’’जी, मैडम’’, पायजामे का इलैस्टिक व्यवस्थित करते हुए मैं बोली। ’’आप लोग को एजेंसी वाले चुप रहने को बोलते हैं?’’ वह थोड़ी झल्लाई, ’’मालती भी बहुत चुप रहा करती थी….’’ मैं समझ गई  आगामी मेरी पढ़ाई की फ़ीस की चिन्ता में ध्यानमग्न माँ को उसकी … Read more

काकी का करवाचौथ

हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस –हुलस कर दे रही थी | मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी बनी रहे|” मैंने उनके पैर छू  कर करवे ले लिए| तभी मेरा ध्यान बाकी बचे सामान पर गया| सामान तो खत्म हो गया था| मैंने काकी की ओर आश्चर्य से देख कर पूछा, “काकी, और आपके करवे ?” “इस बार से मैं करवाचौथ नहीं रहूँगी”, काकी ने द्रणता से कहा| मैं अवाक सी उनकी ओर देखती रह गयी| मुझे इस तरह घूरते देख कर मेरे मन में उठ रहे प्रश्नों के ज्वार को काकी समझ गयीं| वो मुस्कुरा कर बोलीं, “नीत्से ने कहा है, आशा बहुत खतरनाक होती है| वो हमारी पीड़ा को कम होने ही नहीं देती|”  काकी की घोर धार्मिक किताबों के अध्यन से चाणक्य और फिर नीत्से तक की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ| तभी अम्मा का स्वर गूँजा, “नीत्से, अब ये मुआ नीत्से कौन है जो हमारे घर के मामलों में बोलने लगा |” मैं, काकी, अम्मा और ‘नीत्से’ को वहीँ छोड़ कर अपने कमरे में चली आई | मन बहुत  भारी था| कभी लगता था जी भर के रोऊँ उस क्रूर मजाक पर जो काकी के साथ हुआ, तो कभी लगता था जी भर के हँसू क्योंकि काकी के इस फैसले से एक नए इतिहास की शुरुआत जो होनी थी| एक दर्द का अंत, एक नयी रीत का आगाज़| विडम्बना है कि दुःख से बचने के लिए चाहें हम झूठ के कितने ही घेरे अपने चारों  ओर पहन लें पर इससे मुक्ति तभी मिलती है जब हममें  सच को स्वीकार कर उससे टकराने की हिम्मत आ जाती है| मन की उहापोह में मैं खिड़की के पास  बैठ गयी| बाहर चाँद दिखाई दे रहा था| शुभ्र, धवल, निर्मल| तभी दीपेश आ गए | मेरे गले में बाहें डाल कर बोले, “देखो तो आज चाँद कितनी जल्दी निकल आया है, पर कल करवाचौथ के दिन बहुत सताएगा| कल सब इंतज़ार जो करेंगे इसका|”मैं दीपेश की तरफ देख कर मुस्कुरा दी| सच इंतज़ार का एक – एक पल एक एक घंटे की तरह लगता है| फिर भी चाँद के निकलने का विश्वास तो होता है| अगर यह विश्वास भी साथ न हो तो ?  इस अंतहीन इंतज़ार की विवशता वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो | मन अतीत की ट्रेन में सवार हो गया और तेजी से पीछे की ओर दौड़ने लग गया …छुक –छुक, छुक- छुक| आज से 6  साल पहले जब मैं बहू बन कर इस घर में आई थी| तब अम्मा के बाद काकी के ही पैर छुए थे| अम्मा  ने तो बस “ खुश रहो”  कहा था, पर  काकी ने सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी| सदा खुश रहो, जोड़ी बनी रहे, सारी जिंदगी एक दूसरे से प्रेम-प्रीत में डूबे रहो, दूधों नहाओ-पूतों फलों, और भी ना जाने क्या-क्या ….सुहाग, प्रेम और सदा साथ के इतने सारे भाव भरे आशीर्वाद| यूँ तो मन आशीर्वादों की झड़ी से स्नेह और और आदर से भीग गया पर टीचर हूँ, लिहाजा दिमाग का इतने अलग उत्तर पर ध्यान जाना तो स्वाभाविक था|कौन है ये के प्रश्न मन में कुलबुलाने लगे l तभी किसी के शब्द मेरे कानों में पड़े “अभी नयी -नयी आई है, इसको काकी के पैर क्यों छुआ दिए| कुछ तो शगुन-अपशगुन का ध्यान रखो |” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी|   मौका मिलते ही छोटी ननद से पूछा, “ये काकी बहुत प्रेममयी हैं क्या? इतने सारे आशीर्वाद दे दिए |” ननद मुँह बिचका कर बोली  “तुम्हें नहीं, खुद को आशीर्वाद दे रही होंगी या कहो भड़ास निकाल रही होंगी | काका तो शादी की पहली रात के बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए | तब से जाने क्या – क्या चोंचले करती हैं,लाइम लाईट में आने को |” शादी का घर था| काकी सारा काम अपने सर पर लादे इधर-उधर दौड़ रहीं थी| और घर की औरतें बैठे-बैठे चौपाल लगाने में व्यस्त थीं | उनकी बातों  का एक ही मुद्दा था “ काकी पुराण” | नयी बहु होने के कारण उनके बीच बैठना और उनकी बातें सुनना मेरीविवशता थी | काकी को काका ने पहली रात के बाद ही छोड़ दिया था,यह तो मुझे पता था पर इन लोगों की  बातों से मुझे ये भी पता चला कि भले ही काकी हमारे साथ रहती हो पर परिवार-खानदान  में किसी के बच्चा हो, शादी हो, गमी हो काकी बुलाई जाती हैं | काम करने के लिए | काकी पूरी जिम्मेदारी से काम संभालती | काम कराने वाले अधिकार से काम लेते पर उन्हें इस काम का सम्मान नहीं मिलता था | हवा में यही जुमले उछलते … कुछ तो कमी रही होगी देह में, तभी तो काका ने पहली रात के बाद ही घर छोड़ दिया | चंट है, बताती नहीं है | हमारे घर का लड़का सन्यासी हो गया | काम कर के कोई अहसान नहीं करती है | खा तो  इसी घर का रही है, फिर अपने पाप को घर का काम कर – कर के कम करना ही पड़ेगा | एक औरत जो न विधवा थी न सुहागन, विवश थी सब सुनने को सब सहने को | मेरा मन काकी की तरफ खिचने लगा | मेरी और उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी | वे उम्र में मुझसे 14-15 साल बड़ी थीं | पर उम्र हमारी दोस्ती में कभी बाधा नहीं आई | मैं काकी का दुःख बांटना चाहती  थी | पर वो तो अपने दुःख पर एकाधिकार जमाये बैठी थीं | मजाल है कभी किसी एक शब्द ने भी मुँह की देहरी को लांघा हो l पर बूंद-बूंद भरता उनके दर्द का घड़ा साल में एक बार फूटता, करवाचौथ के दिन | जब वो चलनी से चाँद को देख उदास सी हो थाली में चलनी  वापस रख देतीं | फिर जब वो हम सब को अपने –अपने पतियों के साथ पूजा करते देखतीं तब उनका दर्द पिघल कर आँखों के रास्ते बह निकलता | अकसर वो हमें वहीं छोड़ पल्लू से … Read more

शोकपर्व-चमत्कार के मनोविज्ञान पर निधि अग्रवाल की कहानी

निधि अगवाल की की कहानी शोकपर्व

  आज हर जगह चमत्कार और चमत्कारियों की चर्चा है l कहीं चमत्कार  को नमस्कार है तो कहीं चमत्कार पर प्रहार है l लेकिन ये बात केवल आज की नहीं है, वो कौन सा दौर था या होगा या कौन सा धर्म था/ होगा जहाँ चमत्कारी लोगों का अस्तित्व नहीं रहा ?  क्यों भीड़ की भीड़ इनकी तरफ आती है l मानव मन की कौन सी गुत्थियों को ये सुलझा देते हैं?  क्या ये सिर्फ दिखावा है या जीवन की गहरी और अगर आप लूटते हैं तो क्या आप पूरेविश्वास के साथ कह सकते हैं कि विकास हो या मेडिकल साइंस आप को नहीं लूट रहा ? निधि अग्रवाल ने समकालीन युवा कथाकारों में जीवन को गहराई से उकेरने वाली लेखिका के रूप अपनी सशक्त पहचान बनाई है l प्रस्तुत कहानी शोकपर्व में वो पिता पुत्र के रिश्ते के साथ इन तमाम प्रश्नों से उलझती सुलझती चलती हैं l  यह बहुपर्तीय बेहतरीन कहानी चमत्कार और चमत्कारी बाबाओं के साथ-साथ जीवन को के विविध रंगों को खोलती चलती है l  आइए पढ़ें कहानी — शोकपर्व ——–   “ज़बान देखो। कमाया धेला नहीं और ज़बान गज भर की कर लाया।” माँ दराती से सरसों काटती हुई चिल्लाई। ध्यान हटा तो दराती ने सरसों के संग अँगुली भी काट दी। वह सी सी करती पल्ला अँगुली में लपेट दूसरे हाथ से उसे दबाए बैठी रही। आँखों में नमी तैर गई। उसकी आँखों में नहीं… माँ की आँखों में । वह और बाबा तो वैसे ही अविचलित बैठे रहे। स्त्री की चोट पुरुष के मन को स्पर्श कब करती है? सच कहा जाए तो एक संतुष्टि का अनुभव किया उसने। अपनी बेइज़्ज़ती पर मूक-बधिर बनी बैठी रहने वाली माँ, बाबा को एक शब्द कहने पर तिलमिला जाती है। उसका मन हुआ कहे, देख लो अपने परमेश्वर की हक़ीक़त।   माँ अब तक हल्दी की पट्टी अँगुली में लपेट फिर से साग काट रही थी। उसके कष्टों के प्रति विरक्ति की सज़ा  किसी दिन इसी दराती से वह उन दोनों की  गर्दन काट कर क्यों नहीं देती? वह अपलक माँ को देखता रहा। ये कोई पहली नौकरी नहीं थी जो वह छोड़ आया था। इसके पहले चार साल में कोई बीस नौकरी आज़मा चुका था। उदासी इसलिए गहरी थी कि इस बार नौकरी के साथ छोकरी से भी हाथ धोना पड़ा था। “सेठ की लड़की को फसाएँगा तो देर सवेर जूत्ते ही खाएँगा।” बाबा ने हिकारत से कहा था, “पढ़ लिख लेता कुछ तो कहीं ढंग की नौकरी मिल जाती। अब करता रह गुलामी।” “क्या फ़ायदा पढ़कर। पढ़े लिखे लोग तुम जैसों के पैर पड़ते हैं।” वह वैसा ही शिथिल पड़ा, जम्हाई लेता हुआ बोला था। इस जवाब पर माँ तिलमिला गई थी। “और कितनी देर है खाने में। दो बजे गद्दी पर बैठना है। कोई काम समय से नहीं कर पाती ये औरत।” बाबा का बड़बड़ाना चालू है।   अब वह  उनकी लंबी नुकीली जीभ को दराती पर टँगा देख रहा था। माँ के सधे हाथ बिना देखे ही चलते जा रहे हैं। छोटे छोटे रक्तरंजित टुकड़े जूट की बोरी पर इकट्ठे हो रहे  हैं। बहते हुए रक्त की धार का छोर उसे स्पर्श करने ही वाला था जब माँ का थका हुआ मरियल स्वर उसे इस वीभत्स दृश्य से बाहर खींच लाया।   “खाना तैयार है। आ जाओ दोनों।” माँ के स्वर का ठंडापन उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर गया।   इस दृश्य की वीभत्सता से अधिक भयावह यह कल्पना थी कि बाबा के बाद अगली जीभ उसकी हो सकती थी। उसने थूक निगला। मुँह का स्वाद कड़वा था। उसने पानी का लौटा उठा, एक बार में खाली कर दिया।   “एक चपाती तो और ले लो!” माँ बाबा से कह रही है।   उसने आँखों की कोर से बाबा को ‘न’ में गर्दन हिलाते देखा।   वह मुँह पोंछता थाली के पास बैठा। माँ एक चपाती बाबा की प्लेट में रखती हुई बोली-   “छोटी-सी है। खा लो।”   बाबा गुर्रा रहे हैं, “मना किया न फालतू ज़िद करके दिमाग खराब करती है ये औरत।”   माँ इसरार कर-कर के भूख से अधिक खिला देने में निपुण है। उसके अन्नपूर्णा नाम  के कारण उसने अपने जीवन का लक्ष्य बाबा की क्षुधा शांत करना बना लिया है। क्षुधा से उसे उषा याद आ गई। कल इसी समय वह उसकी देह चख रहा था। तृप्ति से क्षण भर पूर्व ही सेठ अचानक घर आ गया था। विवस्त्र बेटी को खींच कर  अलग कर दिया और बिना  बक़ाया दिए उसे काम से निकाल दिया। आदिम भूख उसके शरीर पर रेंगने लगी। वह थाली छोड़कर खड़ा हो गया।   “बरसाती वाले किरायेदार हैं क्या अभी भी?” बेध्यानी में माँ से पूछा।   “नाबालिग़ लड़की पेट से हो गई थी। पिछले साल ही मुँह काला करवा कर चले गए।” जवाब बाबा ने दिया।   उसे अपने हाथों में लड़की का गदराया बदन महसूस हुआ। उसकी देहगंध नथुनों में भर गई। उम्र में लड़की उससे कुछ साल छोटी थी। कोई न कोई सबक समझने के बहाने उसके पास चली आती। उस बरस कहानी की किताब उसे पढ़ाते कितनी ही कविताएँ  उसके शरीर पर लिखी थी। लड़की की देह को जानने के लिए जितना उत्सुक वह रहता उससे अधिक वह लड़की आतुर रहती। उसे दुःख हुआ कि बाबा की किसी बात पर बिगड़ कर घर छोड़ गया था। रुका रहता तो वह  बच्चा उसका दिया हुआ होता। वह अनजाने लड़की के बड़े हुए पेट पर हाथ फेरने लगा।  सेठ की गद्दी के नीचे रखी पत्रिका में पढ़ा था कि गर्भावस्था में कुछ स्त्रियों की प्यास और बढ़ जाती है। वह तो थी ही रेत की नदी।   बाबा ने थाली सरकाई। बर्तनों की झनझनाहट कमरे में तैर गई। उन्होंने बनियान के ऊपर कुर्ता पहना। साफ धोती के लिए माँ को पुकारा। वह रसोई छोड़ धोती लाने नंगे पाँव दौड़ गई। “सुबह निकाल कर क्यों नहीं रख देती। रोज़ माँगनी पड़ती है।” बाबा का बड़बड़ाना जारी। बात बात पर उफ़न पड़ने वाला यह इंसान दुनिया को शांति बाँटने का दावा करता है। घोर आश्चर्य!     २   पाँचवी की कक्षा का पहला दिन था। नए आए मास्टर जी सबका परिचय पूछ टाइम खोटी कर रहे … Read more

प्रियंका ओम की कहानी बाज मर्तबा जिंदगी

बाज मर्तबा जिंदगी

सोशल मीडिया एक खिड़की खोलता है अपने विचारों की अभिव्यक्ति की l ये स्वतंत्रता अपने साथ कुछ जिम्मेदारियाँ भी ले कर आती है l ये जिम्मेदारी केवल हम क्या लिख रहे हैं कि नहीं होती, ये जिम्मेदारी होती है है असहमति से सम्मान पूर्वक सहमत होने की l ये भी जिम्मेदारी होती है कि किसी की भावनाएँ आहत ना हों l असभ्य भाषा और कुतर्कों के अतिरिक्त ट्रोलिंग सोशल मीडिया में एक खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में उभरी है l जिसमें पीड़ित व्यक्ति को मानसिक आघात भी लग सकता है l आइए पढ़ें निराशा और मानसिक कुंठा को जन्म देती सोशल मीडिया की इस ट्रोलिंग प्रवृत्ति पर प्रहार करती वागार्थ में प्रकाशित साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती युवा कथाकार प्रियंका ओम की कहानी …. बाज मर्तबा जिंदगी    सुबह की मीटिंग में व्यस्त महेश के साइलेंट फ़ोन स्क्रीन पर उमा की तस्वीर कौंध-कौंध आ रही थी | वह फ़ोन तभी करती है जब महेश कुछ भूल जाता है | घड़ी उसकी कलाई में बंधी है, लैपटॉप सामने खुला है और मोबाइल पर उमा की कॉल आ रही है | उसे ठीक याद है, टिफिन लेकर आया है और बटुआ जेब में हैं | वैसे इन चीज़ों के वास्ते उमा का फ़ोन पहले मोड़ तक पहुँचने से पहले ही आ जाता है। अब काफी देर हो चुकी है | जरूर कोई गंभीर मसला है वरना इस वक़्त वह कभी फ़ोन नहीं करती | “मैडम चक्कर खाकर गिर पड़ी है “ महेश ने फ़ोन उठाया तो उधर से सहायिका की घबराई आवाज़ आई ! कहीं चोट तो नहीं आई? नहीं, कारपेट पर गिरी हैं | शुक्र है, मन ही मन बुदबुदाया फिर मुखर हो “मुझसे बात कर सकेगी ?” पूछा| मना कर रही है | महेश ने तुरन्त-फुरंत में घर की राह ली | इस वक़्त शहर की सड़कें सूनी मिलती हैं, बच्चे स्कूल में पहली कक्षा के बाद छोटी ब्रेक में स्नैक्स का आनंद लेते हुए जाने किस बात पर खिलखिला रहे हैं और श्रीमान दफ्तर की फाइलों में सिर दे चुके हैं | दरअसल पति और बच्चों से फारिग हुई घरेलू स्त्रियों का यह नितान्त निजी वक़्त है | यह वक़्त उमा के योगाभ्यास का है, कहती है “ योग से उसका चित्त शांत रहता है” किन्तु कई दिनों से वह बेतरह व्याकुल रहा कर रही है ! बीते सप्ताहांत की बात है! शनिवार की दोपहर महेश तैराकी से वापस लौटा तो सोफे पर लेटी उमा बेहद उदास मिली, कारण पूछने पर रुआंसी हो आई “ कुछ लोग फेसबुक पर मुझे लोग ट्रोल कर रहे हैं” ! ट्रोलर्स की समस्या क्या है ? थकन और भूख से परेशांहाल महेश ने दोनों अंगूठे से अपनी कनपट्टी दबाते हुए पूछा, उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था लेकिन वह जानता था अभी इस वक़्त उमा को उसकी जरुरत थी और वह उसके साथ था ! वैचारिक मतभेद! उमा ने संत्रस्त कहा | वैचारिक मतभेद तो बेहद मामूली बात है,बाज मर्तबा बाबजूद एक ही तरबियत के दो लोग अलग होते हैं | मुझे और भैया को देख लो, हम दोनों एक दूसरे से कितने तो अलग है और तुम सब बहनें, देखने में तो एक-सी किंतु स्वभाव से सब एक दूसरे से कतई भिन्न ! लेकिन उसने स्क्रीन शॉट लगाकर मुझे पागल कहा! लोकतंत्र की गरिमा से बेपरवाह, कौन है वह मतान्ध ? मुझे दोस्त कहा करती थी, पिछले पुस्तक मेले में अपनी बिटिया को मुझसे मिलवाते कहा था “ मौसी को प्रणाम करो” | तुमने जवाब दिया ? नहीं उसने मुझे अमित्र कर मजमा लगाया है | उसकी पोस्ट तो पब्लिक होगी | हाँ, लेकिन पब्लिक कमेंट रिस्ट्रिक्टेड है | तो तुम अपने वाल पर जवाब लिखो, वहां तो कोई रोक नहीं न  ? तमाशे से डरती हूँ ! लेकिन इस तरह चुप बैठने से बदमाशों को शह मिलेगी,वे तुम्हें डरपोक समझेंगे और दूसरे कायर या फिर गलत ! जबकि बात गलत या सही की नहीं, सोच की है | लेकिन आम लोग इस मसले को मात्र गलत या सही के चश्मे से देखेंगे |सोशल मीडिया पर बेहिसाब समय बिताने से हमारी सोच औसत दर्जे की होती जा रही है | हम भीतर-ही-भीतर कुंद होते जा रहे हैं ! उनका समूह बड़ा है | तुम्हारी फैन फॉलोविंग भी छोटी नहीं | तो मुझे जवाब लिखना चाहिये? यकीनन लिखना चाहिये | अपने लिये न सही, अपने पाठकों के लिये तो जरूर लिखो, अन्यथा वे तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे ? ! बालपन की साथिन से जीवन संगिनी बनी उमा को महेश पोर-पोर जानता है, अगर वह जवाब नहीं देगी तो अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहेगी और सीधे सीधे जवाब देने की हिम्मत भी नहीं, उमा को हमेशा एक कुशन, एक सपोर्ट की जरुरत होती है, जो शुरू से महेश है | स्कूल के दिनों भी महेश के दम लड़ आती, फिर बिगड़ी बात वह संभालता | लेकिन इस मर्तबा बात इतनी बिगड़ जायेगी इसका उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था,अगर कुछ ऐसा वैसा हो जाता तो… सोचकर महेश की रूह काँप गई; स्वयं को कभी माफ़ नहीं कर पाता ! उमा बिस्तर पर शिथिल पड़ी है |  निढाल , अशक्त | जैसे देह में कोई जान शेष न बची हो | निस्तेज चेहरा, बुझी हुई आँखें | मानो महीनों से बीमार, हाथ थामा तो आँखें बह चलीं ! डॉक्टर ने कहा “ वर्टिगो का अटैक है, किसी मानसिक द्वंद्व का विकार” फिलहाल नींद का इंजेक्शन देकर सुला दिया है। कम-अज-कम बीस घंटे सोती रहेगी ! आपके दफ्तर के लिए निकलने के बाद हम दोनों सब्जी लेने गये थे, उसके बाद मैडम नहाने चली गई | मैं सब्जी धो-पोछ रही थी, जब धम्म की आवाज़ आई। दौड़ आई तो देखा औंधे गिरी है, सहारा देकर बिस्तर पर सुलाया | सहायिका ने एक सांस में पूरा हाल कह सुनाया ! उसने आगे कहा,कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रहा, मैडम बेहद तनाव में रहती है | खोई-खोई सी दीखती है | होकर भी नहीं होती। दिमाग कहीं और रहता है अभी परसों की ही बात है,दाल के लिए काट रखा टमाटर चाय के लिए उबलते दूध में डाल दिया और दाल में चाय पत्ती | आजकल बहुत झल्लाती है, बात-बेबात … Read more

मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा

मां की सिलाई मशीन

नारी जीवन बस दर्द का पर्याय है या बाहर निकलने का कोई रास्ता भी है ? बचपन में बड़े- बुजुर्गों के मुँह से सुनती थी,  ” ऊपर वाला लड़की दे तो भाग्यशाली दे ” l और उनके इस भाग्यशाली का अर्थ था ससुराल में खूब प्रेम करने वाला पति- परिवार मिले l नायिका कुंती की माँ तो हुनर मंद थी, आत्म निर्भर भी, फिर उसका जीवन दुखों के दलदल में क्यों धंसा था l  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ‘मां की सिलाई मशीन’ एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने दो-तीन बार बार पढ़ा और हर बार अलग अर्थ निकले l एक आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री का भी आर्थिक शोषण हो सकता है l बाहर से दिखने वाले एक सामान्य संस्कारी परिवार के बीच अनैतिक रिश्ते अपनी पूरी ठसक के साथ चल सकते हैं l मारितयु से परे भी कुछ है जो मोह के धागों संग खींचा चला आता है l आइए पढे एक ऐसी कहानी जो अपने पूरे कहानी पन के साथ पाठक के मन में कई सावाल छोड़ जाती है और दर्द की एक गहरी रेखा भी… मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा   मां की सिलाई मशीन               वरर्र ? वरर्र ? सूनी रात के इस सुस्त अंधेरे में ? डयोढ़ी में सो रही मैं जग गयी। व्हिरर ! व्हिरर्र !! फिर से सुना मैं ने ? मां की मशीन की दिशा से ? धप ! मैं उठ बैठी । गली के खम्भे वाली बत्ती की मन्द रोशनी में मशीन दिख रही थी, लेकिन मां नहीं । वह वहां हो भी नहीं सकती थी। वह अस्पताल में थी। ट्रामा सेन्टर के बेड नम्बर तेरह पर, जहां उसे उस दिन दोपहर में पहुंचाया गया था। सिर से फूट रहे उनके लहू को बन्द कराने के वास्ते। बेहोशी की हालत में। मशीन के पास मैं जा खड़ी हुई। उस से मेरा परिचय पुराना था। दस साल की अपनी उस उम्र जितना। मां बताया करतीं पहले मुझे गोदी में लिए लिए और फिर अपनी पीठ से सटाए सटाए उन्होंने अपनी कुर्सी से कितनी ही सिलाई पूरी की थी। मां टेलर थीं। खूब सिलाई करतीं। घर की, मुहल्ले की, शहर भर की। मां की कुर्सी पर मैं जा बैठी। ठीक मां के अन्दाज़ में। ट्रेडिल पर दाहिना पैर थोड़ा आगे। बायां पैर थोड़ा पीछे। क्लैन्क, क्लैन्क, क्लैन्क……… बिना चेतावनी दिए ट्रेडिल के कैम और लीवर चालू हो लिए। फूलदार मेरी फ़्राक पर। जो मशीन की मेज़ पर बिछी थी। जिस की एक बांह अधूरी सिलाई लिए अभी पूरी चापी जानी थी। और मेरे देखते देखते ऊपर वाली स्पूल के गिर्द लिपटा हुआ धागा लूप की फांद से सूई के नाके तक पहुंचने लगा और अन्दर वाली बौबिन, फिरकी, अपने गिर्द लिपटा हुआ धागा ऊपर ट्रैक पर उछालने लगी। वरर्र……वरर्र…… सर्र……..सर्र और मेरी फ़्राक की बांह मेरी फ़्राक के सीने से गूंथी जाने लगी, अपने बखियों के साथ सूई की चाप से निकल कर आगे बढ़ती हुई…….. खटाखट….. “कौन ?’’ बुआ की आवाज़ पहले आयी। वह बप्पा की सगी बहन न थीं। दादी की दूर-दराज़ की भांजी थी जो एक ही साल के अन्दर असफल हुए अपने विवाह के बाद से अपना समय काटने के लिए कभी दादी के पास जा ठहरतीं और कभी हमारे घर पर आ टपकतीं। “कौन ?’’ बप्पा भी चौंके। फट से मैं ने अपने पैर ट्रैडिल से अलग किए और अपने बिस्तर पर लौट ली। मशीन की वरर्र…..वरर्र, सर्र…..सर्र थम गयी। छतदार उस डयोढ़ी का बल्ब जला तो बुआ चीख उठी, “अरे, अरे, अरे…….देखो…देखो…. देखो…..इधर मशीन की सुई ऊपर नीचे हो रही है और उसकी ढरकी आगे-पीछे। वह फ़्राक भी आगे सरक ली है….’’ जभी पिता का मोबाइल बज उठा। “हलो,’’ वह जवाब दिए, ’’हां। मैं उस का पति बोल रहा हूँ…..बेड नम्बर तेरह….. मैं अभी पहुंच लेता हूं…..अभी पहुंच रहा हूं…. हां- कुन्ती…..कुन्ती ही नाम है….’’ “’मां ?’’ मैं तत्काल बिस्तर से उठ बैठी।                “हां…”बप्पा मेरे पास  खिसक आए। “क्या हुआ ?’’ बुआ ने पूछा। “वह नहीं रही, अभी कुछ ही मिनट पहले। नर्स ग्लुकोज़ की बोतल बदल रही थी कि उसकी पुतलियां खुलते खुलते पलट लीं…’’ “अपना शरीर छोड़ कर वह तभी सीधी इधर ही आयी है, ’’बुआ की आवाज़ दुगुने वेग से लरज़ी, “अपनी मशीन पर….’’ “मुझे अभी वहां जाना होगा,’’ बप्पा ने मेरे कंधे थपथपाए, ’’तुम घबराना नहीं।’’ और उनके हाथ बाहर जाने वाले अपने कपड़ों की ओर बढ़ लिए। अपने कपड़ों को लेकर  वह बहुत सतर्क रहा करते। नयी या ख़ास जगह जाते समय ताजे़ धुले तथा इस्तरी किए हुए कपड़े ही पहनते। वह ड्राइवर थे। अपने हिसाब से, कैज़्युल। अवसरपरक। कुछ कार-मालिकों को अपना मोबाइल नम्बर दिए रहते, जिन के बुलाने पर उनकी कार चलाया करते। कभी घंटों के हिसाब से। तो कभी दिनों के। “अभी मत जाएं,’’ बुआ ने डयोढ़ी की दीवार पर लगी मां की घड़ी पर अपनी नज़र दौड़ायी, “रात के दो बज रहे हैं। सुबह जाना। क्या मालुम मरने वाली ने मरते समय हम लोग को जिम्मेदार ठहरा दिया हो !’’ “नहीं। वह ऐसा कभी नहीं करेगी। बेटी उसे बहुत प्यारी है। नहीं चाहेगी, उस का बाप  जेल काटे और वह इधर उधर धक्का खाए…..’’ मैं डर गयी। रोती हुई बप्पा से जा चिपकी। मां की मशीन और यह डयोढ़ी छोड़नी नहीं थी मुझे। “तुम रोना नहीं, बच्ची,’’ बप्पा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुम्हारी मां रोती थी कभी ?’’ “नहीं,’’ मेरे आंसू थम गए। “कैसे मुकाबला करती थी ? अपने ग्राहक-ग्राहिकाओं से ? पास पड़ोसिनों से ?  मुझ से ? बुआ से ? अम्मा से ?’’ यह सच था। ग्राहिकाएं या ग्राहक अगला काम दें न दें, वह अपने मेहनताने पर अड़ी रहतीं। पड़ोसिनें वक्त-बेवक्त चीनी-हल्दी हाज़िर करें न करें, वह अपनी तुनाकी कायम रखतीं। बप्पा लोग लाख भड़के-लपकें वह अविचल अपनी मशीन चलाए रखतीं। “हां…’’ मैं ने अपने हाथ बप्पा की बगल से अलग कर लिए। “अस्पताल जाना बहुत ज़रूरी है क्या ?’’ बुआ ने बप्पा का ध्यान बटांना चाहा।  “जरूरी है।बहुत जरूरी है।कुन्ती लावारिस नहीं है। मेरी ब्याहता है….’’ इधर बप्पा की स्कूटी स्टार्ट हुई, उधर मैं मशीन वाली कुरसी पर जा बैठी।  मां को महसूस करने। मशीन में मौजूद उनकी गन्ध को अपने अन्दर भरने। उन की छुअन को छूने। “चल उठ,’’ … Read more

अंधी मोहब्बत

अंधी मुहब्बत

“अंधी मोहब्बत” कहानी का शीर्षक ही अपने आप में किसी प्यार भरे अफ़साने की बात करता है l यूँ तो अंधी मुहब्बत उसे कहते हैं जब इंसान दिल के हाथों इतना मजबूर हो जाए कि दिमाग को ताक पर रख दे l परंतु ये कहानी शुरू होती है एक व्यक्ति की जिसके पति की तेराहवीं हुई है l लेकिन ये कहानी अतीत की ओर नहीं जाती, ये भविष्य की ओर चलती है l अशोक कुमार मतवाला जी व्यंगकार और कथाकार दोनों  के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं l और उनके इन्हीं दोनों रूपों को मिलाते हुए कहानी का अंत व्यंग्य का पुट लिए हुए है l जहाँ गंभीर पाठक चौंकता है और फिर एक बार व्यंग्य को समझ मुसकुराता है l   अंधी मोहब्बत  सुनीता डयोढी में पड़ी चारपाई पर औंधी पड़ी थी। सोकर जब उठी तो उसने चारपाई पर पड़े दर्पण में खुद को निहारा. उसे अपनी आँखें लाल सुर्ख और थकी – हारी सी लगी। कुछ पल यूँही वह दर्पण को पथराई दृष्टि से तकती रही। मेहरा साहिब का तेरहवां पिछले बुध को था! पति का साथ छूटने के बाद उसके सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. अचानक ऐसा हादसा होने की संभावना तक नहीं थी, उसे! अब क्या होगा, कैसे संभाल पाऊंगी सब कुछ अकेले, मैं? मेहरा साहिब थे तो सब कुछ खुद ही संभालते थे. अनगिनत सवाल सुनीता के दिमाग को उथल – पुथल कर रहे थे. बेवश, फफक पड़ी वह! सहसा, बेटे प्रतीक की आवाज उसके कानों में पड़ी, मम्मा, उठो, कुछ खाने को दे दो, प्लीज़. जोरों से भूख लगी है…और खुद तुम भी कुछ खा लो…मम्मा, तुम सुबह कह तो रही थी खाऊंगी, मगर पता नही अभी तक तुमने कुछ खाया भी है या नहीं? तुम भीतर चलो, मैं मुंह धोकर आती हूं! निशा को भी खाने के लिए बुलाले, बेटा, खाने का टाइम तो हो गया है, वह भी गर्म – गर्म खा लेगी! अच्छा, मम्मा!कहकर प्रतीक भीतर आ गया! खाने के बाद, सुनीता ड्राइंग रूम में आई और प्रतीक को टीवी बंद करने का इशारा कर कहने लगी, बेटा, सुन, तूं जिद्द मत कर, अब जब भी तेरा जर्मनी जाने का वीज़ा लगता है, तूं बिना देर किए निशा और अपने बच्चों को लेकर चल… मैं भी इधर कुछ कामों को निपटाकर आती हूं! मैंने कहा है न मम्मा, मैं तुम्हे यहां अकेला छोड़कर जर्मनी नहीं जाऊंगा! तूं पागल मत बन, बेटा, तूं इतना स्याना होता तो अभी से अपनी नौकरी छोड़ कर घर बैठ नही जाता और निशा की भी नौकरी ना छुड़वाता. अब जब तक तेरा वीज़ा नही लगता, क्या करेगा खाली घर बैठ कर? मम्मा, मेरी जर्मनी जाने की बारी तो आई पड़ी थी लेकिन किसी कारणों से जर्मनी सरकार ने  प्रवासियों के  कोटा  पर टेंपरेरी रोक लगा दी है! बेटा, तूने जर्मनी जाना है तो जा, मैने नही अब जाना, वहां! सुनीता अनमने से कहने लगी। “वह कयूं ?” “प्रतीक बेटा समझा कर, मैं और तेरे पापा अभी तो तुम्हारी बहिन सीमा के पास जर्मनी में चार महीने लगा कर आए हैं. बेटी सीमा की जगह अगर तुम वहां होते, बेटा, तो अलग बात थी लेकिन, बिटिया के घर में मेरा रहना ठीक नही। बेटा, सीमा के घर रहने वाली भी बात नहीं. सच कहूं तो जर्मनी में मेरा दिल नही लगा….वहां बहुत बर्फ और ठंड पड़ती है। बेटा, मेरे तो गोडे जुड़ जाते हैं…हाल ही में में जब वहां थी तो सीमा और तुम्हारे जीजा सोम तो अपने-अपने काम पर चले जाते थे और मैं या तो चूल्हे चौके में व्यस्त रहती या उनके बच्चों के सारा दिन डायपर बदलती! न बेटा न, मैं तो अपने घर ही अच्छी, यहां मेरा अपना घर है, घर में सब कुछ है…! जरूरत पड़ी तो काम के लिए मैं एक  को भी रख सकती हूं.” “मम्मा, सुनो…तुमने सीमा के पास थोड़ा ही रहना है…तुम्हें तो मेरे पास रहना है….” “तुमने तो वही बात की बेटा जैसे कहावत है – शहर बसा नहीं और लुटेरे पहले आ गए. तूं अभी जर्मनी पहुंचा नही, नौकरी तेरे पास नही, तेरे अपने रहने का जर्मनी में कोई अता पता नही…आया बड़ा मुझे अपने पास रखने वाला!” “इसीलिए तो कहता हूं, मम्मा, तुम साथ चलो. मैं और निशा काम करेंगे और तुम अंशु बेटे और बिटिया सरिता का घर पर खयाल रखना…बहुत जल्दी ही हमारे पास अपने रहने का इंतजाम भी हो जायेगा…” बेटे का जवाब सुनकर सुनीता खामोश रही! देखा, तुम्हारा स्वार्थ तुम्हारे मुख पर आ ही गया कि तुम मुझे अपने पास अपने बच्चों की आया बनाकर रखोगे. मन ही मन यह कहकर सुनीता सुबक पड़ी! मैं आऊंगी बेटा तेरे पास. तूं खुद तो जर्मनी पहले पहुंच! कहकर सुनीता अपने सोने के कमरे की और बढ़ गई. कमरे में प्रवेश करने के बाद भीतर से उसने दरवाजे की चिटखनी लगा दी और सिरहाने में अपना मुंह छिपाकर फूट-फूट कर रोने लगी थी! सहसा, पास रखा फोन बज उठा. अपने आंसू पोंछते हुए सुनीता ने फोन उठाया. आनंद का कनेडा से फोन था! दोनों की अलग अलग शादियां हुई मगर दोनों एक दूसरे से ऐसे बिछड़े थे जैसे दो दोस्त बचपन में किसी मेले में कही गुम हो गए हों. खैर, विधाता ने सुनीता और आनंद को मिलाने का एक और तरीका निकाला। फेसबुक के जरिए एक बार फिर दोनो आपस में मिल गए थे! सैकड़ों मील दूर होने पर भी दोनों एक अच्छे मित्र की तरह एक-दूसरे के नजदीक बने रहे! समय बदलता गया…दोनो अपने अपने कर्म करते और भुगतते हुए जिंदगी के अपने अपने सफर पर आगे बढ़ रहे थे! सुनीता आनंद को अपने पति मिस्टर मेहरा से अपनी शादी के पहले से जानती थी. मां -बाप के स्तर पर एक गलतफहमी की वजह से दोनों की मंगनी होकर टूट गई थी! दोनों की राहें जुदा हो गई थीं। सुनीता को आज आनंद के फोन का भी इंतजार था! उन्होंने पहले से बात करने का समय तय कर रखा था! काफी देर तक दोनों बातचीत करते रहे थे! दुनियादारी के डर और घर में व्यस्क बच्चों की शर्म ने जैसे सुनीता की खवाइशों का गला घोट दिया हो. उसकी रूह तक कांप उठी थी। “नही, आनंद मुझसे अब यह … Read more

लकीर-कहानी कविता वर्मा

लकीर

कोयल के सुत कागा पाले, हित सों नेह लगाए, वे कारे नहीं भए आपने, अपने कुल को धाए ॥ ऊधो मैंने —                                             जब भी माँ की बात आती है | यशोदा और देवकी की बात आती है | परंतु जब यशोदा कृष्ण को पाल रहीं थीं तब उन्हें पता नहीं था की वो उनके पुत्र नहीं देवकी के पुत्र हैं, ना ही कृष्ण को पता था .. परंतु यह बात पता होती है तो रिश्ते में एक लकीर खिचती है | क्या पुत्र के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती  माँ को सारे अधिकार मिल जाते हैं या पुत्र अधिकार  दे पाता है ? हर प्रश्न एक लकीर है जो एक सहज रिश्ते को रोकती है | कौन बनाता है ये लकीरे और क्या होता है इनका परिणाम | आइए इसी विषय पर पढ़ें सुपरिचित कथाकार कविता वर्मा की कहानी .. लकीर  जिसने भी इस खबर को सुना भौंचक रह गया। कुछ लोगों ने तो एकदम से विश्वास ही नहीं किया, तो कुछ ने विश्वास कर इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि ऐसा ही कुछ होना था, हम तो पहले से जानते थे। शुभचिंतकों ने पूछा कि अब उनका क्या हाल है, तो अति शुभचिंतकों ने कहा कि ऐसा करना ही नहीं था। पराये को अपना बना ले इतना बड़ा दिल नहीं होता किसी का।शायद उन्हें यही अफ़सोस था कि हम तो इतना बड़ा दिल कभी न कर पाते उन्होंने कैसे कर लिया? कुछ लोग ये कयास लगाते नज़र आये कि आखिर हुआ क्या होगा? कुछ सयाने यहाँ तक कहते दिखे कि बेकार में बात बिगाड़ी। जितने मुँह उतनी बातें। वैसे अब तक जो कुछ देखा सुना समझा वह इस घटना की नींव तो नहीं थी, फिर उसकी परिणिति इस तरह क्यों हुई? उस चाल से थोड़े ऊपर के स्तर की बड़ी सी बिल्डिंग में रहने वाले दस-बारह परिवार अपनी स्तरीयता को कायम रखते हुए स्वतंत्र भी थे और साथ में एक दूसरे से जुड़े हुए भी। इसलिए कभी कभी घर के राज़ साझा दीवारों से रिस कर दूसरे घर तक पहुँच जाते थे। . इसी बिल्डिंग के दो कमरों में रहता था वह परिवार या कहें पति-पत्नी। शादी के कई साल बाद भी गोद सूनी थी और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया था। ऊपरी तौर पर तो कर ही लिया था लेकिन मन में बहती ममता की नदी को सुखा पाना कहाँ संभव होता है वह बहती थी और कभी-कभी तो तटबंध तोड़ बहती थी। यह उनका बरसों का प्रयास ही था कि वे इस उफान को थाम लेतीं और वहाँ से हट जातीं। उस नदी का प्रवाह मोड़ने के लिए खुद को किसी काम में या अपने कृष्ण कन्हैया की सेवा में व्यस्त कर देतीं। तब मन के रेगिस्तान में रह जाती एक लकीर सुगबुगाती सी। उनकी दिनचर्या बड़ी सुनियोजित थी। ठीक छह बजे उनके घर के दरवाजे खुल जाते। सात बजे घंटी की आवाज़ आती और सब अपनी घडी मिला लेते। तभी उनके बगल के तीन कमरों में वह परिवार रहने आया। पति-पत्नी और दो प्यारे से बच्चे। परिवार के वहाँ आकर रहने के कुछ ही दिनों बाद इस दिनचर्या में सिर्फ इतना अंतर आया कि घंटी की आवाज़ से पहले चिंटू के नाम की पुकार होने लगी। जिस घर में बिना स्नान किये कोई रसोई में नहीं घुस सकता था वहाँ चिंटू जी बिना नहाये पूजा की आरती में शामिल होते, ताली बजाते, आरती की लय पर झूमते और उनकी हथेली को सहारा दे कर उस पर न सिर्फ प्रसाद दिया जाता बल्कि उसके बाद उनका मुँह भी साफ किया जाता। चिंटू के आने से उनकी पूजा को एक सार्थकता मिलने लगी। उन्होंने तो जिंदगी को इसी रूप में स्वीकार कर लिया था। भगवान से जितनी मनौतियाँ मानी जा सकती थीं माँग ली गयीं थीं। भगवान उनकी आशा पूरी नहीं करेंगे इसका भी उन्हें विश्वास हो गया था। उनकी गोद न भरने के लिए भगवान से जितनी शिकायतें की जा सकती थीं कर ली गयीं थीं। और अब सारी मान-मनौतियों, शिकवे शिकायतों को भूला कर पूरे श्रध्दा भाव से सुबह की पूजा, आरती,भोग से लेकर तीज त्यौहार तक मनाये जाते थे। पता नहीं मन से शिकायतें ख़त्म हुई या नहीं लेकिन ये उनके जीवन की लय को बनाये रखने के लिए जरूरी थे और ये उसी का पुण्य प्रभाव था कि ममत्व की धारा जीवन की कठोर धूप की परवाह किये बिना भी उनके मन में प्रवाहमान थी। उस चिलचिलाती धूप में जब सभी घर बंद किये गरम हवा फेंकते पंखों के नीचे पसरे पड़े थे और किसी बच्चे के रोने की आवाज़ को सुनकर भी अनसुना कर रहे थे वे घर से बाहर आ कर हर घर की आहट भाँप चुकीं थीं। उस पर भी मन न माना तो छत पर जाकर अडोस पड़ोस के हर घर आँगन में झाँक आयीं। कहीं कोई न दिखा लेकिन बच्चे के रोने चीखने की आवाज़ बदस्तूर सुनाई देती रही। उनका मन भर आया शिकायत होंठों पर आने को हुई उस माँ की बेपरवाही पर झुँझलाती सी सोने की कोशिश करती रहीं लेकिन वह आवाज़ तो उनकी ममता को ही पुकार रही थी उन्हें सोने कैसे देती? वे फिर उठ बैठीं और कुछ सतर्क सी आवाज़ का पीछा कर छत पर पहुँच गयीं। धूप की तपिश में भी वात्सल्य की नदी हरहरा रही थी सतर्क आँखें छत पर पड़े कबाड़ की टोह सी लेती लकड़ी की पेटी पर आकर रुक गयी। पास ही रजाइयों का ढेर सूख रहा था। उनकी आहट में ही प्रेम का स्पर्श पा कर वह रोने की आवाज़ बंद हो गयी। उन्होंने एक बार फिर चारों ओर देखा। नज़र फिर पेटी पर टिकी उसे बंद देख कर वे पलटीं और सीढ़ियों की ओर बढ़ गयीं। लेकिन मन को अभी भी बच्चे के रोने की आवाज़ व्यथित कर रही थी। प्रेम पूरित मन के साथ लौटते क़दमों ने अपनी सारी शक्ति कानों को दे दी और बंद पेटी के ढक्कन के धीरे से खटके को पकड़ वे फिर उस तक पहुँच गयीं। किसी और की पेटी को नहीं खोले जाने का … Read more