ऊर्मिला शुक्ल जी का “बिन ड्योढ़ी का घर” एक ऐसा उपन्यास है जिसमें स्त्री के जीवन का हाहाकार सुनाई देता है | साथ ही उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है |
इस उपन्यास को पाठकों और समीक्षकों द्वारा पसंद किये जाने के बाद अब उर्मिला शुक्ल जी ला रहीं हैं “बिन ड्योढ़ी का घर -2 ” पूरा विश्वास है की ये उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर कहर उतरेगा | आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का एक अंश ..
उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो
“ माँ देखो न ! डंकिनी ने मेरी माला खराब कर दी | उसने मुझे जीभ भी चिढाया | ” रूआँसी सी वन्या उसे अपनी माला दिखा रही थी | उसकी माला की लड़ें आपस में उलझ गयी थीं |
“ इसमें रोने की क्या बात है ? चलो अभी ठीक कर देते हैं | ” कात्यायनी को वहाँ से निकलने की राह मिल गयी | वह उसे लेकर वनिता धाम की ओर बढ़ चली |
“भूरी चींटी लाल भितिहा | गिर गई चींटी फूटगे भितिहा | ईइइ ” दीवार की ओट में खड़ी डंकिनी ने वन्या को चिढ़ाया |
“ देखो माँ वो फिर चिढ़ा रही है और बिजरा (जीभ चिढ़ा ) भी रही है | ”
कात्यायनी ने डंकिनी की ओर देखा | वह उसे देखकर भी डरी नहीं | पूरी ढिठाई से उसकी ओर देखती रही |
“ गंदी बात | अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते | ”
“ में अच्छी नई हूँ ? ”
“ किसने कहा तुम अच्छी नहीं ? तुम तो सबसे अच्छी हो | “
“ वनिया ने मेरे को डंकिनी फंखनी बोला | ”
“ वन्या ! ये गंदी बात है | तुमने क्यों चिढ़ाया इसे ? ”
“ इसने कहा ये माला मेरे को नई फबती और मेरी माला खराब कर दी | ” अपनी उलझी माला देख ,उसका स्वर फिर रुआँसा हो उठा |
“ इसने भी तो मेरे को काली चीटी बोला | डंकिनी डंक मार बी बोली | बिजराया बी | देखो – देखो फिर बिजरा रही | ”
कात्यायनी ने देखा ,वन्या उसके पीछे छुपकर अपनी माला दिखाते हुए उसे जीभ दिखा रही थी और डंकिनी की क्रुद्ध नजरें उसकी माला पर टिकी थीं | वह उसकी इर्ष्या कारण समझ गयी |
“ तुमको भी माला पहनना है ? ”
डंकिनी ने हाँ में गर्दन हिलाई |
“ आओ मेरे साथ | ”
“ माँ इसको माला नहीं देना | बहुत गंदी है ये | ”
“ ऐसा नहीं बोलते | ये तो तुम्हारी संगी है न | संगी के संग तो मिल कर रहते हैं | ”
कात्यायनी ने लाल पाड़वाली कोसा की ओढ़नी निकाली | साड़ी की तरह पहनाया उसे | फिर उसके बालों को समेट कर सुंदर सा जूड़ा बनाया | उसमें कौड़ियों की माला सजाई | फिर अपनी मालाओं में से लाल रंग की एक माला निकाली और तिहराकर पहना दिया | डंकिनी ने दर्पण देखा | उसका मुख गुड़हल सा खिल उठा | “ देख– देख मेरा माला कितना सुंदर | तेरे से भी सुंदर | ”
“ ठेंगा | ” वन्या ने अँगूठा दिखाया और जीभ चिढ़ाती बाहर भाग गयी |
उसके पीछे डंकिनी भी | कात्यायनी महसूस रही थी उस बाल युद्ध को ,जिसमें जीभ चिढ़ाना ,ठेंगा दिखाना और चिढ़ाने वाले शब्द ,ऐसे अस्त्र थे कि सामने वाला तिलमिला उठे | यहाँ डंकिनी का नाम भी ऐसा ही हथियार बन गया था | वरन डंकिनी इस अंचल की ख्यात नदी हैं | उसकी कथा में माँ दंतेश्वरी जुड़ी हैं | सो इस अंचल के लिए एक पवित्र नाम है डंकिनी | ‘ सोचती कात्यायनी को वह दिन याद हो आया जब …….
बस्तर के धुर दक्खिन में डंकिनी की गोद में बैठा पालनार | जंगल ,नदी और पहाड़ का सौंदर्य अपने में समेटे ,एक सुंदर सा गाँव | लोह अयस्क का तो अकूत भंडार ही था वहाँ | अपनी बोली – बानी ,अपने नाच – गान को सहेजता पालनार अपने आप में मस्त था | वह तेलंगाना के ज्यादा करीब था | सो उस गाँव का शेष बस्तर से, कोई ख़ास वास्ता नहीं था | न काहू से दोस्ती न काहू से बैर ,की तर्ज पर वह एक शांतिप्रिय गाँव था ; मगर उस दिन पूरा गाँव राख में बदल गया था ? पुलिस ,सेना और प्रशासन को अंदेसा तो उन्हीं पर था ,जो अपने को इस अंचल का कर्णधार मान बैठे थे ;मगर सबूत कोई न था | वे वहाँ पहुँचीं ,तब तक कुछ नहीं बचा था | बची थी तो सिर्फ राख | मारी माँ उदास हो उठीं | उन्हें लग रहा था आना व्यर्थ हुआ | सो लौटते समय गाड़ी में ख़ामोशी पसरी हुई थी | घाट आने वाला था | मोड़ तीखे हो चले थे | चालक ने गाड़ी की रफ्तार धीमी की | गाड़ी घाट चढ़ने ही वाली थी कि छत पर धम्म की आवाज आई |
“ साड़थी ! गाड़ी साइड लो | देखो कौन है ? ”
“ जिनावर होगा | इहाँ गाड़ी रोकना टीक नई | ये इलाका बहुत डेंजर | ” चालक ने कहा |
“ जानवर ? अमको लगता कोई आडमी है ? ”
“ आदमी ? इतना अँधेरा में आदमी कहाँ होयेगा ? कोंनो जिनावर है | मै गाड़ी को अइसा मोड़ेगा के वो धड़ाम हो जायेगा | ” और उसने झटके से मोड़ काटा –
“ रूको – रुको ! मैं मर जायेगा | ” आवाज के साथ पीछे वाली खिड़की पर एक हाथ लटक आया |
“ क्विक | गाड़ी ड़ोको ! ”
गाड़ी रुकते ही मारी माँ उतरीं | देखा एक आदमी लगेज बाँधने वाली रेलिंग से से सटा हुआ था | उसकी पीठ पर एक गठरी बँधी सी थी | वह उतरा ;मगर खड़ा नहीं हो पाया | शायद उसके पैर सुन्न हो गये थे | सो सड़क पर धप्प से आ गिरा | उसके गिरते ही – “आँ s s आँ s s | ” बच्चे के रोने के स्वर के साथ गठरी हिलने लगी |
“ नाय | चुप हो जा | रोते नाय रे | ” उसने गमछे की गाँठ खोली और बच्चे को बाहर निकाला |
“ बेबी टुम सामने बैठ जाओ | आओ टुम लोग इडर बैठो | ” किनारे सरककर उनके लिए जगह बनाई | मारी माँ ने गौर से देखा | वह पचीस – तीस साल युवक था | मिलिट्री बुशर्ट और मिलिट्री पेंट में वह सेना का जवान लग रहा था | बच्ची उन्हें देख ,उस युवक के सीने से चिपक गयी |
“ टुम सेना का जवान है ? ”
उसने न में सर हिलाया | उसकी साँसे अभी भी सम पर नहीं थीं | सो मारी माँ ने पानी की बोतल बढ़ायी – “ लो पानी पी लो | ”
बोतल लेकर बच्चे से पूछा “ नीर वेल्ली माँ ? ”
उसने बोतल की ओर हाथ बढ़ाया ,तो कलाई की गुलाबी चूड़ियाँ झलक उठीं | बच्ची बहुत प्यासी थी | उसने देर तक बोतल छोड़ी ही नहीं | उसे पानी पिला गमछे से उसका मुह पोछा और बाकी पानी पीकर एक लंबी उसाँस ली |
“ बेटी है टुम्हारा ?”
उसने मारी की ओर देखा ;पर कोई जवाब नहीं दिया | कुछ देर चुप रहा | फिर – “ मैं इसका कोई नइ | मैं नक्सली है | ”
कानों में एक धमाका सा गूँजा | उसके साथ ही चूँ s ऊँ उ की आवाज के साथ गाड़ी रुक गयी | उसे लगा कि अब कहा जायेगा – ‘ उतरो | ’
“ अड़े साड़थी ! गाड़ी क्यों ड़ोक डी ? कोई टेंशन नहीं | चलो ! ”
ड्राइवर ने गाड़ी बढ़ा तो ली ;मगर उसके मन में धकर – पकर मची हुई थी | सो वह बार – बार कनखियों से पीछे देखता कि कहीं …. | सब सशंकित हो उठे थे ;मगर मारी माँ निश्चिन्त सी खिड़की के बाहर देख रही थीं |
“ थैंक्यू | ”
“ किस बाट का ? ”
“ आपने मेरे कू गाड़ी से उतारा नइ | बिसबास किया मेरा | ”
मारी माँ ने देखा उसकी आँखों में कृतज्ञता झलक आई थी | ‘ नक्सली भी इंसान होटे है | हालाट ही बंदूक उठवाटी है | नहीं टो किसी औड़ के बच्चे को कोई ऐसे… | ’ सोचा |
“ आज मैं नक्सली है | फेर मैं हमिसा से अइसा नइ था | मेरा बी बाल बच्चा था | इसका माफिक बेटी था मेरा | फेर एक दिन …| नइ मैं आज अपना कहानी नइ सुनाएगा | मै ये बी नइ बोलेगा के मैं बेकसूर है | जिनगी में बहुत कसूर किया मैं | फेर ये पालनार का ये सब ? नको | मैं नइ किया | ये मेरा सिस्टर का गाँव | उस गाँव संग मैं ऐसा करेगा ? मैं तो उससे ‘भतखम्मा ’ मिलने कू आया | रात के अँधियार में चुपता – चुपता आया था | मेरा सिस्टर खूब खुश हुआ | दस बरस बाद आया था मैं | खूब पकवान बनाया | सब मेरा पसंद का | मैं खाने को बैठा के धाँय – धाँय | मैं नइ चाहता था मेरा कारन गाँव वाला परिसान हो | मैं सरेंडर कर दिया | फेर बी …
“ साले तेरे को हम इतना आसानी से नहीं मारेंगे | ले जाओ इसे डग्गा में डाल दो | इसको तो बाद में देखेंगे | ” उनके लीडर ने बोला |
वो मेरे को डग्गा के तरफ ले के चला के धाँय – धाँय | फेर एक चीख आया | मैं पाछु को देखा | मेरा सिस्टर खून में डूब…? ” फफक पड़ा वह |
मारी माँ ने अपना हाथ उसके कंधे पर रख दिया | वह देर तक रोता रहा फिर – “ जिसकू बचाने खातिर मैं सरेंडर किया | उनने उसीकू मार दिया ,तो मेरा सरेंडर बेकार हुआ न | फेर तो मैं उनकू ऐसा टंगड़ी मारा ; के वो पसर गया | मैं उनका गन चीन के तड़ा तड़ गोली चला दिया | फेर वई गन से उनीकू खलास किया, जो मेरा सिस्टर कू ..| फेर नदी में कूद गया | गोली का आवाज सुन | जवान का पूरा दल पुल पे आ गया | मैं तो मिला नइ ,तो पानी में गोली चलाता रहा | मैं डुबकी मारे के दूर निकल गया और एक पत्थर के पाछु चुप गया | रात कू बाहिर निकला | गाँव गया | मेरे कू पकड़ने का उनका मिशन फेल हो गया ,तो उनने पूरा गाँव को आग लगा दिया | मैं देखा पूरा गाँव में मसान का माफिक बदबू फैला था | कोई का बाडी जल के ऐंठ गया था ,तो कोई का आधा जला था | किसी का मुंडी अलग ,तो किसी का बाजू | मेरा सिस्टर ? उनने उसकू आग में डाल दिया था , उसका ढाँचा छानी ऊपर ऐसे खड़ा था के …| मेरा कलेजा हूल गया और मैं जंगल का तरफ दौड़ गया | थोड़ा देर बाद मेरा पैर में कुछ अरझा | मैं पैर कू झटकारा , तो वो एक गुलगुली चीज से टकरा गया | बाडी था | मैं उसकू उठाने लगा तो “ हाय s हाय | ” आवाज आया |
“ घबराने का नइ कुच नइ होयेगा | थोड़ा बल करो मैं तुमकू अस्पताल ले जायेगा | ”
“ नइ भाई ! अब मैं बचेगी नइ | तू मेरा पेड़की कू बचा ले | मेरा जिनगी का कमाई है मेरा डंकिनी | मsय बहुत मान – पान से पाया इसकू | डंकिनी माई का परसाद है ये | इसकू बsचा ले | ”
“ कुछ नइ होयेगा | बिहान होने से मैं बड़ा डागदर को दिखायेगा | फेर वो बिहान होने के पहिली …| ” वह कुछ देर रुका | उसने मारी माँ की ओर देखा | “ मैं इसकू उठा तो लिया | फेर पोसना मुसकुल ? बिहान में आपका गाड़ी जाते देखा ,तो आपकू देने का सोच लिया और ब्रिच्च (वृक्ष ) में चढ़ गया | फेर जब आपका गाड़ी आया तो ….| अब ये आपका सरन में है | ” उसने बच्ची को मारी माँ के पैरों के पास बिठा दिया | बच्ची जाग गयी और जोर से रोने लगी |
“ नो | रोटे नइ | ” मारी माँ ने उसे उठा लिया | गाड़ी एक तीखे मोड़ पर पहुँच चुकी थी | उसकी गति धीमी थी | उसने झुककर मारी माँ के पैर छुए | फिर गाडी का दरवाजा खोल नीचे कूद गया | सब इतनी जल्दी हुआ कि वे कुछ समझ ही नहीं पायीं | जब तक गाड़ी रुकी वह जंगल में बिला गया था |
‘ यह जब यहाँ आई थी तब दो – ढाई साल की अबोध थी | सो इस नये माहौल में जल्दी ही रच बस गयी थी ;मगर अब समझने लगी है कि वन्या बाकी लडकियों से अलग है | ओरों की तरह वह अकेली नहीं ; उसकी माँ उसके साथ है | शायद इसीलिए यह वन्या से इर्ष्या रखती है | ’ कात्यायनी सोच रही थी कि वे फिर आ पहुँची –
“ वनिया ने फेर ठेंगा दिखाया और बिजराया भी | ” उसने शिकायत की |
“ वन्या गंदी बात | जाओ ! बाहर जाकर कर खेलो और लड़ना नहीं | ”
दोनों चली गयीं | बाहर किसी ने आवाज दी “ शिवा | ” तो मन फिर शिवा में जा अरझा ‘ अपने को उससे दूर रखने के लिए यहाँ कमरे में आ गयी ,पर ये मन …? ’ सोचती कात्यायनी के मन में अतीत के दृश्य उभरने लगे | सबसे पहले प्रपात वाला दृश्य उभरा | फिर मड़ई वाला दिन | फिर अदालत की भीड़ में रक्षा कवच सा उसका साथ और फिर उभरा घाटी वाला वह दृश्य ,जो दूध में खटाई सा.. ? ’ मैं तो सब कुछ भूलकर आगे बढ़ चली थी ;मगर आज फिर? ‘
“ अरे बेबी ! तू यहाँ घुसी है ? उधर मारी माँ हलकान हैं | ”
“ हलकान हैं ? क्या हुआ ? ” सोनकुँवर की आवाज सुन अपने को सहेजा |
“ अजी हुआ तो कुछ भी नहीं ;मगर तुम्हारे बगैर उनका काम चलता कहाँ हैं | उनकी आँखों की पुतली जो हो | ” कात्यायनी ने महसूसा सोनकुँवर के कथन में स्नेह था | एक बड़ी बहन का स्नेह |
“ माँ s माँ ! आपको मारी नानी बुला रही हैं | ” वन्या दौड़ती हुई आयी और हाथ पकड़ कर बाहर खींच ले गयी |
उर्मिला शुक्ल
बिन ड्योढ़ी का घर भाग एक की समीक्षा पढ़ें –बिन ड्योढ़ी का घर भाग एक
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