स्वतंत्रता अनमोल होती है | पर क्या स्त्री कभी स्वतंत्र रहती है | एक सच यह भी है कि तमाम बंदिशों में रहने वाली स्त्री के हिस्से मे स्वतंत्रता के वो कुछ पल आते हैं जब उसका पति ऑफिस गया होता है | एक बार मैत्रेयी पुष्पा जी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जब अकेली होती हूँ तो मैं उडती हूँ , घर की चार दीवारी के अन्दर | क्या ये स्त्री का सच है ?
लघुकथा – एक सच यह भी
तेजी से अनार के दाने निकालती हुई, चार महीने में कितनी एक्सपर्ट हो गयी थीं अनु की ऊँगलियाँ !
उस दिन भी वह अनार के दाने ही तो निकाल रही थी। तभी दीदी आ गई थीं। देखते ही बोली थीं, “अनु, ये क्या हाल बना रखा है तूने ! देखा है आईने में खुद को ! कितनी कमजोर हो गयी है !”
हँसकर वह भी बोली थी, “दीदी, अभी तो मेरा ध्यान सिर्फ इन पर लगा रहता है।”
दीदी ने एक गहरी साँस ली थी और फिर दुलार करते हुए बोली थीं, “देख अनु, ये मुश्किल भरे दिन भी कट जाएँगे। मगर तेरा स्वास्थ गिर गया तो फिर कौन सम्हालेगा? देख, जब भी तू भास्कर के लिए कुछ सूप वगैरह बनाती है, एक कप खुद के लिए भी बनाकर पी लिया कर । इसी तरह अनार का रस या और जो भी कुछ, तेरे शरीर को भी तो पोषण चाहिए।”
उसने गहरी नजरों से उनकी ओर देखा था।
“ऐसे क्या देख रही है?”
“और जो मन को चाहिए, और आत्मा को …?”
दीदी फट पड़ी थीं, “उफ्फ ! कैसे समझाऊँ ! इतनी आपाधापी में या तो तू शरीर का कर ले या फिर … जो तेरी समझ में आए।”
वह चुप रह गयी थी और सिर झुका लिया था। कैसे कहे अपने मन की बात, है तो छोटी-सी … । जब से भास्कर का आॅफिस जाना बंद हुआ है, बस उन्हीं के मन का जीती है। उसे कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रहना अच्छा लगता है और वे, सारे दिन खिड़कियाँ बंद करके रखते हैं। मानो खिड़कियों के साथ उनके मन के दरवाजे भी बंद हो गये थे । कितना जी घुटता है उसका।
दीदी फिर बोल पड़ी थीं, मगर इस बार धीरे से, “अनु, मैं समझती हूँ सब। अभी तू जो कुछ भी कर रही है न, समझ ले ये तेरी साधना है …।” और फिर वह उसका सिर सहलाती रही थीं।
अचानक उसकी तंद्रा टूट पड़ी, “सुनो अनु, डॉक्टर ने मुझे आज से आॅफिस जाने की अनुमति दे दी है। चहकते हुए भास्कर ने कहा।
वह भी खुशी से चहक उठी, “तो चलिए, जल्दी से ये रस तो पी लीजिए। और हाँ समय से खाना जरूर मँगवा लीजियेगा।”
“सच कहूँ तो, तुम्हारी वजह से आज मैं इतनी जल्दी ठीक हो गया हूँ। तुमने जो किया मेरे लिए, कोई और नहीं कर सकता। लेकिन एक सच और कहूँ …?”
उसकी नजरें उस सच को जानने के लिए उत्सुक हो उठीं।
“इतने दिनों तक घर में रह कर, मैं घुटता ही रहा । आॅफिस जाने की तलब लगी रहती थी।”
“ओह मुझे भी … !” कहते-कहते चुप रह गयी वह।
भास्कर के ऑफिस जाते ही वह कमरे में आ गयी और सारी खिड़कियाँ खोल दीं। पूरे कमरे में बस वह थी और उसका तन-मन, जो उसकी रूह के साथ अब सुर-लय-ताल मिला कर थिरक रहा था।●
मौलिक एवं स्वरचित
प्रेरणा गुप्ता – कानपुर
prernaomm@gmail.com
***
यह भी पढ़ें …
आपको लघु कथा ” एक सच यह भी ” कैसी लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |
filed under –story, hindi story, emotional hindi story, short story
बढ़िया रचना
बहुत ही सुन्दर ।अनकही व्यथा
बहुत बढ़िया, एक व्यथा
कितना भी एक दूजे के लिए हो पर एक कोना तो केवल अपने लिए होना बहुत जरूरी है। वह कोना होगा तभी हम दुसरों के लिए भी आकाश बुन पोयेंगे। एक सच जो बहुत सलीके से कहा गया।